दफ्तर जाने का समय हो गया है, लेकिन आंखें इतनी बोझिल हैं कि जाने की इच्छा नहीं हो रही। दरअसल, कल रात नींद नहीं आई। आपसे सच कहूं तो बरसों से रात की नींद पूरी नहीं हो रही। मेरी नींद किसने चुराई है, यह बाद में बताऊंगा। फिलहाल अभी तो जाना है मुझे। भारी कदमों से निकल पड़ा हूं। स्टेशन पर हमेशा की तरह आखिर में लगने वाले डिब्बे के सामने प्लेटफार्म पर हूं।
सोच रहा हूं आज सीट मिल जाए तो पॉवर नैप यानी एक मीठी झपकी ले लूं ताकि रात की नींद पूरी हो जाए। देखते हैं। मेट्रो आ गई है। मुझे ज्यादातर कोच में सीटें खाली दिखाई दे रही हैं। लास्ट कोच तो खाली होगा ही। ……..सच में उम्मीदें हमें सकारात्मक बना देती हैं। मेरा अनुमान सही है। आखिरी डिब्बा लगभग खाली है। कोने की सीट मिल गई है। इरादा अब एक भरपूर झपकी लेने का है। मगर मेरी किस्मत इतनी अच्छी नहीं कि सुख का टुकड़ा नसीब हो। मेरे बगल में बैठा युवा यू-ट्यूब पर भोजपुरी गीत सुन रहा है। वह खुद वीडियो देख रहा है और गीत दूसरों को सुना रहा है। अब इसके गीत सुनूं या झपकी लूं?
मेट्रो में अक्सर ऐसे युवा दिखते हैं जो खुद सुनने के बजाय दूसरों को संगीत सुना कर ज्यादा खुश होते हैं। बेशक आप सुन कर दुखी क्यों न हो जाएं। इसी तरह फेसबुक स्टेटस चेक करने वाले और वाट्सऐप पर मैसेज पर बार-बार नजर डालने और इन्हें फारवर्ड करने वाले युवा भी कम नहीं। यों यह आदत मुझमें भी है। इसकी लत पड़ जाए तो समझिए आप मकड़जाल में फंस गए हैं।………बगल में बैठा यह लड़का मुझे झपकी नहीं लेने देगा। यह भी अपनी आदत से मजबूर लगता है।
चलिए आज बता दूं कि मेरी रात की नींद किसने चुरा ली है। जी हां……ये कमबख्त फेसबुक और वाट्सऐप ही है जो हम सबकी नींद का बैरी बन बैठा है। घर-दफ्तर में चार लोगों से हम बात नहीं करते और यहां अनगिनत लोगों से जुड़े रहने की न जाने कैसी चाह रहती है। क्या हम आभासी दुनिया नें जीने के आदी हो रहे हैं? या आज के दौर के इंसान की फितरत बदल रही है? कौन जाने। मगर ऐसा क्यों है कि यहां पराए अपने से लग रहे हैं और अपने लोग क्यों पराए हो गए?
कुछ साल पहले एक सर्वे में यह बात सामने आई थी कि बीते एक दशक में लोगों की नींद 7-8 घंटे से घट कर 5-6 घंटे ही रह गई है। इसके कई कारण बताए गए। जैसे मोबाइल का बेतहाशा प्रयोग, मैसेजिंग और चैटिंग। इंटरनेट पर अंधी गलियां बहुत दूर तक ले जाती है। जब वापस लौटते हैं तो हम बहुत कुछ खो बैठते हैं। अब तो लोग फेसबुक पर ही सोते और जागते दिखाई देते हैं। रात के दो-दो बजे तक आॅनलाइन। आज युवा पीढ़ी ही नहीं, अधेड़ भी खोए से, उलझे से दिखते हैं यहां। मेट्रो में सफर के दौरान हर दूसरा-तीसरा यात्री अपने स्मार्टफोन में गुम दिखता है। हम सब इसकी लत के शिकार हो गए हैं।
फेसबुक पर हरेक का अपना चांद उतर आता है और उसे निहारते हुए जब रात निकल जाए, तो भला नींद आए भी तो कैसे। एक अच्छी नींद लेने पर सुबह चेहरा खिला रहता है। और रात भर जागने वाले हम जैसे निशाचरों के चेहरे का हाल आपको मालूम ही है। पकौड़ी जैसी नाक, सूजी हुई आंखें और बेतरह बिखरे बाल…….। अगर आप रात भर जागते हैं, तो कभी आइने में खुद को देख लीजिए।
मैं गैजेट का विरोधी नहीं हूं। इसने बहुत से काम आसान कर दिए हैं। मगर हम इनका तार्किक तरीके से प्रयोग नहीं कर रहे। लिहाजा वे हमारी रचनात्मकता से लेकर स्वास्थ्य तक को प्रभावित कर रहे हैं। एक समय था जब रात का खाना खाकर लोग घर के पास टहल लेते थे। इससे अच्छी नींद भी आती थी। अब आलम यह है कि खाना खाते हुए भी हम ये देखते रहते हैं किसका मैसेज आया या फिर किसने लाइक किया। डिनर करते हुए भी सबके हाथ में मोबाइल है। सब की अपनी दुनिया है।
दो दशक पहले तक ट्रेनों में लोग एक दूसरे से बात करते हुए सफर पूरा कर लेते थे। अब सीट पर बैठते ही कोई लैपटॉप आॅन कर लेता है तो कोई मोबाइल। एक दूसरे से बात करना तो दूर एक दूसरे की ओर देखते भी नहीं। अजनबियों के बीच रात भर की यात्रा पूरी हो जाती है। यही हाल मेट्रो का है। हम रोज सफर करते हैं, पर आपको कोई मित्र नहीं मिलता।
सोशल मीडिया पर हजारों मित्रों के बीच अपनी बात रखने के फेर में हम उन मित्रों को खोते चले जाते हैं जो सामने बैठ कर आपकी बात सुनना चाहते हैं। इसके साथ ही खो देते हैं सुख की नींद का वो टुकड़ा जो हम सबके लिए अनमोल है। आज की झपकी का सबक यह समझ में आया कि नींद कितनी जरूरी है।
स्मार्टफोन और अब रोज मिलने वाले एक-डेढ जीबी डाटा ने आपसे क्या कुछ छीन लिया है, यह आपको पता ही नहीं। अलबत्ता आपकी नींद तो उड़ा ही दी है। आप सब के बीच होकर भी सिर्फ खुद में होते हैं। आसपास के लोगों की दुख-तकलीफ से आपका कोई सरोकार नहीं होता। ………जैसे अभी साथ बैठे इस लड़के को मालूम नहीं कि मैं एक झपकी लेना चाहता हूं और ये है कि मुझे जबरिया भोजपुरी गीत सुनाए जा रहा है- तू लगावेलू जब लिपस्टिक, हिलेला आरा डिस्ट्रिक…….जिला टॉप लागे लू…………लॉलीपॉप लागे लू।…….. कोई फायदा नहीं ये कमबख्त मुझे झपकी नहीं लेने देगा।
इसलिए मैं भी अब फेसबुक पर आॅनलाइन हो गया हूं। आपके लिखे को पढ़ रहा हूं….कहां आप? मैं फिर से हाजिर हूं। अभी मेरा स्टेशन आने में समय है। देखिए इसे कहते हैं लत। इस लत से हम कब निकल पाएंगे? मैं अब कोशिश करने जा रहा हूं। आपका क्या इरादा है।
*(यह शृंखला उन दोस्तों के नाम क्षमायाचना सहित जो अपना स्वास्थ्य और समय की परवाह किए बिना घंटों और लगातार सोशल मीडिया में जरूरत से ज्यादा उलझे रहते हैं। और जिन्हें अब रात में नींद नहीं आती)
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