नीरज द्विवेदी
(१)
बाबा किसान थे,
पर चाहते थे कि वो
परिवार के आखिरी किसान हों….
बाबा मुझे,
खेतों मे नहीं ले जाते थे कभी,
डरते थे,
मुझे, परती से प्रेम न हो जाये कहीं..
(गोया कई आषाढ़ पहले उन्हें हो गया था कभी)
ज़िद मे, चोरी से..
ग़र कभी पहुँच भी जाता मैं खेत तक
तो बाबा, मेढ़ो को मेरे लिये सरहद बना देते…
मैने,
मेढ़ पर बैठे बैठे ही
बाबा को,पहले फसल..
फिर, खाद बनते देखा !!
बाबा के बाद,
सबने मिलकर, बहुत कुछ उगाया खेतों मे,
पर परिवार का ‘आखिरी किसान’ तो बाबा ही रहे !!!
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(२)
जिस वक्त,
संविधान को खीसे मे डाल, और
लोकतंत्र के चबूतरे पर बैठ,
नेतागण सब दे रहे होंगे लंबे लंबे भाषण…
मार्क्स और लेनिन के लड़ाके
कर रहे होंगे कागज़ों पर क्रांतियाँ…
मूछों पर ताव देते फेसबुकिये कवि,
लिख रहे होंगे अपनी टूटही रचनायें…
मैं,
एक सिपाही..
आठ बाइ आठ के तंबू में बैठ़कर,
ढूंढ़ रहा होउंगा
तुम्हारे प्रेम में डुबी,
अपनी एक-बटा-चार कविताओं का
नया अर्थ…
और ,
जोड़ रहा होउंगा, अपने जीवन का हासिल..
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