आज के महानगरीय जीवन में किसी के पास एक दूसरे के लिए समय नहीं है। ऐसे व्यस्ततम समय में क्या हमने कभी जीवन में संवाद की भूमिका को समझने की कोशिश की है? वह संवाद ही है, जहां से विचार की दोहरी प्रक्रिया शुरू होती है जो अपने को ‘अन्य’ की नजर से देखने-समझने की उदारता देती है।
हम जिस दौर में हैं, उसमें तकनीक से संवाद का दौर है। लगभग चार दशक पहले तक लोगों में प्रत्यक्ष संवाद करने का हुनर अधिक था। अब वह स्थान अलग-अलग एप पर भेजे जाने वाले संदेशों ने ले लिया है। मगर प्रत्यक्ष संवाद की सीमा भले ही शब्दों में कम पहुंचे, भाव-भंगिमाओं और कहन के प्रभाव और गहराई में अधिक दूर तक पहुंचती है।
जब दो व्यक्ति आमने-सामने या साथ होते हैं, तभी अपना दिल एक दूसरे के सामने खोलते हैं। तब वह केवल दो व्यक्तियों के बीच का संवाद नहीं होता, बल्कि समाज के बहुत सारे लोगों के व्यक्तित्व और परिवेश का भी संकेत होता है।
संवाद का यह असर दूर तक जाता है
संवाद का यह असर दूर तक जाता है। अगर यह प्रत्यक्ष हो, तब ठीक उसी तरह जैसे गरम दूध और ठंडे पानी के दो बर्तन पास-पास एक दूसरे से सटा कर रखे जाएं, तो एक का असर दूसरे में पहुंच जाता है। यानी दूध ठंडा होने लगता है और पानी गरम। ठीक वैसे ही संवाद से बहुत कुछ आदान-प्रदान भी होता है।
सामने वाला व्यक्ति आपसे संवाद में क्या ले रहा है, यह उसकी समझ और परिवेशगत स्थिति पर निर्भर है। दो बुजुर्गों की बातचीत आमतौर पर जमाने की शिकायत पर हुआ करती है। दो युवाओं के संवाद लगभग समान विषयों पर। स्त्रियों के क्षेत्र भले ही भिन्न हों, लेकिन मूल बात लगभग समान होती है, जब दो स्त्रियां आपस में संवाद करती हैं।
दो परिपक्व पुरुषों के बीच संवाद में भी रीति-नीति का अनुमोदन, समाज, व्यवसाय, भविष्य के विषय हो सकते हैं। दो बुजुर्ग महिलाओं की बातचीत और दो बुजुर्ग पुरुषों की बातचीत के विषय अलग-अलग ही होंगे। हमारे देश में संवाद की कला को लेकर भी अधिक चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि संवाद समाज की रीढ़ है।
संवाद वर्चस्व की जड़ता और आतंक को तोड़ता है
संवाद वर्चस्व की जड़ता और आतंक को तोड़ता है और समस्या को सरोकार का रूप देकर साझा लड़ाई का मुद्दा बनाता है। आज एक ऐसे दौर में, जब संवाद के स्थान पर विचारधारागत विवाद अपनी पैठ बनाए हुए है, साहित्य हो या राजनीति, धर्म हो या कोई मंच, हमने उस पारंपरिक सोच को सिरे से खारिज या विस्मृत कर दिया, जो संवाद के सौंदर्यबोध से गुजरती है।
इसे सामान्य रूप में समझें तो भौगोलिक इकाई से ‘राष्ट्र’ नहीं बनता। वह बनता है भूखंड की साझा संस्कृति, निर्बाध संवाद से। जिस ‘संवाद की कला’ की हम बात करते हैं, वह दो समानधर्मी लोगों के बीच ही नहीं, दो अलग-अलग परिवेश के लोगों के साथ भी है। जैसे शिक्षित बुजुर्ग और शिक्षित युवा, अशिक्षित स्त्री और शिक्षित स्त्री के बीच संवाद, ग्रामीण और शहरी स्त्री के बीच संवाद। यह परस्पर संवेदनशील होने का माध्यम भी बन सकता है।
इसलिए शायद हम घर के बच्चों को सही संगत के संस्कार भी देते हैं, क्योंकि संगत की प्रारंभिक प्रक्रिया संवाद ही है। संवाद से पहले परस्पर परिचय, परिचय के लिए भी संवाद जरूरी है। संवाद व्यक्ति के व्यक्तित्व के साथ अपने आकलन का और समाज को समझने का बोध भी विकसित करता है। यह भी कि संवाद अनौपचारिक हो। बल्कि सहज रूप में सामान्य चर्चा के रूप में, न कि किसी अकादमिक विमर्श सेमिनार के रूप में।
हर संवाद के अनेक भेद हैं, जिसमें संवेदनशीलता एक आम गुण है, जो बांधने का काम करती है। मगर आजकल यह संवाद ‘चैट’ या स्मार्टफोन पर संदेशों के आदान-प्रदान में आकर सिमट गया है। जबकि घर से, समाज से नियमित संवाद, साझा गतिविधियां, यह सब केवल बातचीत नहीं, बल्कि विश्वास, समझ और संबंधों की नींव है। सकारात्मक होने और स्वयं की समझ विकसित करने का एक सकारात्मक विकल्प।
कुछ लोग बहुत दायरे में कैद सोच के होते हैं। कभी-कभी स्वयं को अति बुद्धिमान दिखने के लिए भी वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन ऐसे लोग व्यवहार कुशल न होकर आत्ममुग्ध अधिक लगते हैं, क्योंकि वे संवाद से बचते हैं। उन्हें लगता है कि जब काम हो, तभी किसी से बात की जाए। जैसे दुकानदार से सामान खरीदते समय ग्राहक का उससे संवाद करना मजबूरी है। कुछ लोग इस जरूरत तक ही संवाद करते हैं। अक्सर ऐसे लोग समाज में एक नकारात्मक प्रभाव का कारक भी बनते हैं, क्योंकि उसे दूसरा कोई पक्ष या अनुभव है ही नहीं, सिवाय अपने अच्छे या बुरे अनुभवों के। समाज से कटा हुआ व्यक्ति अनजाने में सही, आत्ममुग्ध अहंकार की हद तक जा सकता है।
स्वस्थ संवाद कभी नुकसानदायक नहीं होता
स्वस्थ संवाद कभी नुकसानदायक नहीं होता, बल्कि कभी-कभी भ्रमों और संदेहों का निवारण कर देता है, बशर्ते उसे विवाद की भाप भी न छुए। सम्यक संवाद की भारत में एक दीर्घ परंपरा रही है, इसलिए अतीत में जाकर भी संवाद के प्रभाव और अभाव को तौला जा सकता है। असहमतियों पर भी स्वस्थ संवाद संभव है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न विचार होते हैं, उसकी कार्यशैली, प्रतिभा भिन्न। इस भिन्नता को समझे बगैर अपेक्षाओं का अंबार मतभेद को जन्म देता है। अगर स्वस्थ संवाद न हो, तो यह अलगाव एकाकीपन और अवसादग्रस्त होने का कारण बनता है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन में संवाद समझ को विस्तार देता है, जिससे व्यक्ति हिंसक होकर विरोधी बनने के बजाय असहमतियों का भी सम्मान करना सीखता है और सामंजस्य का एक नया विकल्प जन्म लेता है।
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