हमारे यहां कुछ मांगने वाले और देने वाले को लेकर जिस तरह की धारणा है, उसमें कई बार ये दोनों स्थितियां एक सामाजिक विश्लेषण की मांग करती हैं। मगर इस जटिलता में पड़े बिना सहजता से इन पर गौर किया जाए तो कुछ देने के समांतर मांगने का मसला थोड़ा ज्यादा बड़ा फलक रखता है। दरअसल, मांगना एक ‘कला’ भी है, मगर इससे आगे इसे एक अजीब चलन के रूप में देखा जा सकता है। आमतौर पर मांगने वाला बड़ी चतुराई से कुछ मांगता है। इसमें मांगने की ‘कला’ का विशेष योग होता है। कई ऐसे लोग होते हैं, जो मांगते समय अपनी आवाज में मधुरता घोला करते हैं और अपने संबोधनों में अपनत्व पिरोया करते हैं।

मांगना सबके वश की बात नहीं, न ही सबमें मांगने की हिम्मत होती है

इनके हाव-भाव इतने दिलचस्प होते हैं कि देखने वाले देखते रह जाते हैं। सीधे-सीधे कहा जाए कि जो कोई नहीं कर सकता है, वह मांगने वाला कर देता है। यह कोई विधान तो नहीं है, लेकिन अगर उसे सामान्य अर्थ में लिया जाए, तो इसे विधान की तरह कहना अतिशयोक्ति न होगी। यहां यह बताना आवश्यक है कि मांगना सबके वश की बात नहीं, न ही सबमें मांगने की हिम्मत होती है। खासतौर पर तब जब मांगने वालों को लेकर कई तरह के पूर्वाग्रह पहले से काम कर रहे होते हैं। ऐसे में मांगने से पहले एक भूमिका बनानी पड़ती है और साथ ही अपने को हीन दिखाना पड़ता है। अधिकार के साथ मांगने का पक्ष अलग है, जहां व्यक्ति इस स्थिति में होता है, जहां वह सहजता के साथ कोई वस्तु या धन या किसी प्रकार की मदद मांग लेता है और उसका मांगना देने वालों को उचित लगता है।

मांगना भी एक कला है, जिसे जरूरत है वही मांग भी सकता है

सवाल है कि मांगता कौन है? इसका सीधा उत्तर है कि जिसे जरूरत है। जो चीज एक व्यक्ति के पास नहीं है, उसकी आपूर्ति के लिए वह अपनी पहचान वाले से मांग लेता है। कभी-कभी अपनी पहचान वाले के दायरे से बाहर के लोगों से भी। देने वाले में अगर सामर्थ्य है तो लेन-देन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। मगर गुंजाइश और गुजारिश में सामंजस्य हो तब यहां अर्थशास्त्र का मांग-पूर्ति का नियम सौ फीसद लागू हो जाता है। यानी कोई वस्तु मांगने वाले ने मांगा और किसी के पास वह दे सकने की सुविधा थी, तो उसने दे दिया। किसी को कोई परेशानी नहीं होती। मगर इससे इतर कई बार अजब-गजब होती है मांगने वालों की दुनिया। देखा जाए तो गांव-शहरों में मांगना एक आम चलन है।

हालांकि संभ्रांत कहे जाने वाले या अमीर इलाकों के धनाढ्य घरों में बहुत कम लोग सामान्य मांग के चलन में शामिल होते हैं। इनका मांगना कुछ अलग किस्म का होता है। उनकी मांग का स्तर बहुत बड़ा और लंबा-चौड़ा होता है। जबकि अन्य और सामान्य मानी जाने वाली जगहों के निवासियों में अपनापन कुछ ज्यादा ही देखने में पाया जाता है। कुछ बाशिंदे देखा-देखी भी कुछ मांगने चले आते हैं या किसी बच्चे को भेज कर मंगवा लेते हैं। घर में काम आने वाली या खाने-पीने की चीजों का आदान-प्रदान होता ही रहता है।

मसलन, कभी चीनी मांग ली, कभी दूध तो कभी-कभी चायपत्ती आदि भी मांग ली जाती है। इससे कभी आपसी सद्भाव और लगाव बढ़ता है, तो कभी यह किसी एक पक्ष के लिए ऊब का मसला भी बन जाता है। यह भी होता है कि अगर कभी किसी घर में ज्यादा रिश्तेदार आ गए तो उनकी खातिरदारी में चादर-गद्दे, कुर्सी-मेज आदि भी मांग लिए जाते हैं। हालांकि इस तरह की मांग का सामाजिक पक्ष यह भी है कि गांव-देहात में किसी के घर में अगर विवाह होता है तो अतिथियों के स्वागत के सभी सामान आस-पड़ोस से आ जाते हैं। यह सामूहिक बोध का मामला होता है।

इसके अलावा, विकास और एक उन्नति के लिए भी मांगने की पहल होती है। विकासशील देश अन्य विकसित देशों से अपने तौर-तरीके से जरूरत के मोर्चे पर कुछ मांगते हैं। कभी कोई प्राकृतिक आपदा आ जाती है या कहीं बड़ी भारी दुर्घटना हो जाती है, तब भी दूसरे देशों से सहायता मांगने में संकोच नहीं किया जाता। ऐसी स्थिति में कुछ देश मांगने से पहले ही अपनी ओर से बढ़ कर मदद करते हैं। चूंकि सर्वप्रथम मानव सेवा है, तो इसके बचाव के लिए कुछ भी मांगना पड़े तो यह अनुचित नहीं।

आजकल बैंक या अन्य संस्थान हैं, जहां से अलग-अलग तरीके से अपने लिए या घर-परिवार की महत्ता को ध्यान में रखते हुए ऋण मांगना गलत नहीं माना जाता। यहां तक कि सरकारें भी अपने स्तर से संबंधित संस्थानों से ऋण की मांग करती हैं। बड़े-बड़े उद्यमी-व्यापारी तो ऋण मांग कर ही अपना कारोबार बढ़ाते हैं। हालांकि उनमें से बहुत सारे ऋण डकार कर विदेश चले जाते हैं। फिर भी बाज नहीं आते इस तरह कर्ज देने वाले। इस तरह मांगने वालों के चक्कर कभी कहीं खत्म नहीं होते।

आज के जमाने में बहुत सारे काम आनलाइन होते हैं। काम देने वाले और काम मांगने वाले भी सामने हैं। सब जगह कंप्यूटर का बोलबाला है। अब मांगने का माध्यम भी इंटरनेट होने लगा है। पहले सड़क-चौराहों या अपने निर्धारित जगहों पर मांगने वालों में कोई-कोई लखपती भी मिल जाया करते थे। अब उनके बीच का आर्थिक मामला कहां पहुंचा है, यह भी देखने की बात होगी। कहते हैं, जब तक इंसानियत जिंदा है, तब तलक मांगने वाले भी रहेंगे और इनकी दुनिया भी रहेगी। दिक्कत वहां होती है जहां मांगने के बाद सहूलियत और समय के मुताबिक लौटाने को लेकर इतनी ही सजगता नहीं दिखाई जाए।