बचपन से हम सब अपने बड़े-बुजुर्गों से यह सुनते आए हैं कि ‘कर भला तो हो भला’। यानी अगर हम किसी का भला करें तो हमारा भी भला होगा। सीधे-सादे अर्थों में कहा जाए, तो अगर हम किसी के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे, दूसरों का भला करेंगे, तो अंत में किसी न किसी रूप में हमारा भी भला होगा। लेकिन वह कब और कैसे होगा, यह हम नहीं जानते हैं। सवाल है कि इस कहावत का अर्थ सिर्फ इसके शब्दों तक सीमित है या इसके कुछ गूढ़ मर्म भी हैं? सामाजिक रूप से यह एक प्रसिद्ध कहावत है, जो अपनी तहों में छिपे संस्कारों और नैतिक मूल्यों की गहराई को दर्शाता है।

कहावत का मर्म चाहे जो भी हो, लेकिन जब हमारे बुजुर्गों ने हमें यह सलाह के तौर पर कहा होगा, तो उस समय उनका यह मंतव्य जरूर रहा होगा कि हम सभी को बिना स्वार्थ के एक दूसरे की भलाई करनी चाहिए… एक दूसरे के बारे में अच्छा सोचना चाहिए… असहाय और असमर्थ लोगों की मदद करते रहनी चाहिए तथा सच्चाई के रास्ते पर चलते रहना चाहिए। यह दरअसल एक सकारात्मक ऊर्जा है, जो किसी के व्यक्तित्व में निखार लाती है, उसे बेहतर इंसान बनाती है।

यह सही भी है कि जब हम किसी जरूरतमंद की सहायता करते हैं या सामाजिक और सेवा के कार्यों में सहयोग करते हैं, तो समाज हमें आभार देता है, हमारा सम्मान करता है। जो हमें आंतरिक खुशी देता है। जब हम दूसरों के साथ ईमानदारी और प्रेम भरा व्यवहार करते हैं, दूसरों के बारे में अच्छा सोचते हैं, तो हमारे रिश्ते मजबूत और सुखद होते हैं। यह सुखमय जीवन जीने की एक सुंदर नीति है। इसमें भला करने वाला भी सुखी महसूस करता है और जिसका भला हो रहा है, वह भी आनंदित महसूस करता है।

मनुष्य को इस सुख की अत्यंत आवश्यकता होती है, क्योंकि मनुष्य का जीवन अनेक समस्याओं से उलझा हुआ रहता है। कभी हम रोग से लड़ रहे होते हैं, तो कभी हम अपने अंदर के क्षोभ से लड़ रहे होते हैं। अब यह क्षोभ और कुछ भी हो सकता है। आर्थिक स्थिति के कारण हो सकता है, सामाजिक या फिर पारिवारिक स्थिति के कारण हो सकता है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं।

जीवन के हर नए दिन में मनुष्य को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और इनसे लड़ने के लिए आंतरिक सकारात्मक ऊर्जा की बहुत जरूरत पड़ती है। जीवन की इन उलझनों को सुलझाने और प्रगति के पथ पर आई बाधाओं को हटाने में हमारी बहुत सारी ऊर्जा का बड़ा भाग खर्च होता रहता है। फिर भी हम सारी समस्याओं का हल नहीं कर पाते हैं। कुछ तो अपने चक्रव्यूह में ऐसे उलझा लेती हैं कि उसमें से निकलना असंभव हो जाता है।

प्रतिकूल परिस्थितियां मनुष्य को भीतरी रूप से क्षतिग्रस्त करती हैं

जीवन में मनुष्य के अनुकूल परिस्थितियां जितनी रहती हैं, उससे ज्यादा प्रतिकूल परिस्थितियों का उसे सामना करना पड़ता है, मनुष्य को भीतरी रूप से क्षतिग्रस्त करती हैं। हमारे अंदर निरंतर नई अपेक्षाएं भी जन्म लेती रहती हैं, जिनमें से कुछ पूरी होती हैं और कुछ हमारे सामर्थ्यवान न होने और परिस्थितियों के विपरीत होने के कारण उनका पूर्ण होना कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में हमारे मन में क्षोभ, खिन्नता उपजती है। इतनी सारी मानसिक दुविधाओं के साथ जीवन जीना आसान बिल्कुल नहीं है। इसकी तोड़ हमारे बड़े-बुजुर्गों ने निकाला कि ‘कर भला तो हो भला’। यह शब्द सिर्फ हमें यह नहीं सिखाता कि दूसरों का भला करने से हमारा भला होता है, बल्कि हमें दुख में भी सुखी रहना सिखाता है, क्योंकि यह हमें दूसरों को देकर खुश रहना सिखाता है।

जब हम एक बार दूसरों को देकर खुशी प्राप्त करना सीख लेते हैं, परमार्थ से आनंद प्राप्त करने लगते हैं, तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति से होने वाली खुशी गौण होने लगती है और इच्छाएं सीमित होने लगती हैं। परमार्थ एक स्थिर आनंद है जो भीतर से उत्सर्जित होता है। कभी किसी भूखे को भोजन करने के बाद या किसी असहाय की मदद करने के बाद जो आनंद चित्त को प्राप्त होता है, वह अतुलनीय होता है।

परमार्थ का दृष्टिकोण क्यों जरूरी?

जब दुनिया को हम परमार्थ के दृष्टिकोण से देखने लगते हैं, तो दूसरों की खुशी में ही हमें आनंद की प्राप्ति होने लगती है। यह आनंद स्वार्थ, लोभ और इच्छाओं से परे होता है। उसके बाद अपने जीवन में जितने भी दुख, तकलीफ, उलझन या राह में रोड़े होते हैं, हमें उतनी तकलीफ नहीं देते हैं, जितना ये पहले देते थे। दरअसल, परमार्थ हमें स्वार्थ, लोभ, इच्छाओं से बहुत ऊपर उठा कर ले जाता है। यह किसी भौतिक वस्तु से या परिस्थिति से मिलने वाली खुशी से बहुत ज्यादा आनंद देता है, भीतर से संतोष और आनंद निर्माण करता है। हमारे भीतर प्रेम, करुणा, शांति का स्रोत खुल जाता है। यही आनंद का सच्चा स्रोत है।

शायद इसी स्रोत से हमारा परिचय करवाने के लिए बड़े-बुजुर्ग कहते थे ‘कर भला तो हो भला’। भला करना परमार्थ है और परमार्थ से ही सारे आनंद द्वार खुलते हैं। धन, प्रतिष्ठा, भोग, विलास हमारे जीवन को वास्तविक सुख नहीं दे सकते है और न ही इससे पूरी तरह मन को शांति मिल सकती है। भौतिक सुख अस्थायी होता है। यह सिर्फ वस्तु और परिस्थिति पर ही निर्भर करता है, लेकिन जब मनुष्य एक बार अपने भीतर से संतुष्ट हो जाता है, तो उसे किसी बाहरी वस्तु की उतनी अपेक्षा नहीं रह जाती है। असली सुख और आनंद परमार्थ से उपजते है। इसीलिए भला करते रहना दूसरों से ज्यादा स्वयं को सुखी रखने का संसाधन है।

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