अलका ‘सोनी’
अहं और वहम एक दूसरे के समांतर एक कमाल की चीज है। विरले ही ऐसे लोग होंगे जो इन दोनों से अछूते बच पाते हों। मगर अहं हो या वहम, इन दोनों में कोई अगर किसी के अंदर थोड़ा ज्यादा गहरे पैठ गया तो दुनिया उसे अजीब नजरों से घूरने लगती है। दोनों की ही मनोस्थितियां विचित्र होती हैं। जो वहम में होता है, उसे रास्ता काटती बिल्ली, आसमान से टूटता तारा और हरेक की शक्ल शकुनी-अपशकुनी तक नजर आ सकती है। मीलों दूर से छींक आती सुनाई पड़ सकती है। अगर वह कुछ नहीं देख या सुन पाता है तो बस अपने आपको और अपने दिमाग की आवाज को। उसे आसपास की दुनिया भी ठीक से कहां नजर आ पाती है!
ऐसे लोग ज्ञान, रूप और पैसे के घमंड में डूबे रहते हैं
यही वह सिरा होता है, जब व्यक्ति अपने आप पर विश्वास खो देता है और धारणाओं के आधार विकसित सोच की दुनिया में गुम होकर अंधविश्वास का शिकार हो जाता है। ठीक इसी तरह जो व्यक्ति अहं में होता है, उसे भी ‘मैं’ और ‘मेरा’ छोड़ कर कुछ और नहीं दिखता, किसी अन्य की बेहद जरूरी बात भी बेमानी और अनदेखी करने लायक लगती है। ऐसा व्यक्ति अपने में ही इतना मग्न होता है कि बाहरी दृश्य उसे आकर्षित नहीं कर पाते। वह अपने ज्ञान, रूप या पैसे के अहं में चूर समाज से कटा रहता है।
एक स्तर पर अहं को स्वाभिमान भी कहा जाता है
दरअसल, अहं का हर एक टुकड़ा एक नया आकार ले लेता है और हम सब उसे पाल-पोस कर बड़ा करते रहते हैं। मगर ऐसा भी नहीं है कि अहं हर स्वरूप में एक बेकार की चीज है। कायदे से देखा जाए तो किसी भी इंसान में थोड़ी मात्रा में अहं होती है और कई बार यह वक्त की जरूरत भी होती है। उदाहरण के लिए खुद पर भरोसे का अहं व्यक्ति को झुकने नहीं देता है, लेकिन इस स्तर के अहं को स्वाभिमान कहा जाता है। इस तरह हर किसी के पास इस तरह का अहं का होना जरूरी भी है, लेकिन बस उतना ही, जितना दाल में नमक की जरूरत होती है।
अहंकार अत्यधिक महत्वाकांक्षा को बढ़ावा देता है
दाल में नमक ज्यादा होने से जिस तरह दाल का स्वाद बिगड़ जाता है, ठीक उसी तरह व्यक्ति के अंदर अहं ज्यादा हो जाने पर उसका चरित्र बिगड़ जाता है। अहंकार पनपने लगता है। अहंकार अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा और स्वयं को सर्वोत्कृष्ट मानने और दिखाने की भावना है। इस भावना के गहराने का नकारात्मक असर व्यक्ति के आचरण पर पड़ता है और वह किसी भी अन्य के अस्तित्व को खारिज करने तक पर उतर जाता है।
कई बार अहं और अहंकार के बीच एक कड़ी होती है, जो दोनों को जोड़े रखती है। जब हम कहते हैं कि ‘मैं वहां नहीं जा सकता, जहां मेरी कद्र न हो’, तो यह स्वाभिमान है। इसकी रक्षा हमें करनी चाहिए। मगर जब हम कहते हैं ‘मुझे सब कुछ आता है, मुझे ज्ञान मत दो’ तो यह हमारा अहंकार बन जाता है। स्वाभिमान और अहंकार के अंतर को कालिदास से जुड़ी एक कहानी से समझा जा सकता है। कालिदास की विद्वता को भला कौन नहीं जानता, लेकिन उन्हें भी एक बार अहंकार हो गया, जब खूब सारी प्रसिद्धि और सम्मान पाकर उन्हें गर्व हो गया कि उनसे कोई शास्त्रार्थ में नहीं जीत सकता। इसी क्रम में एक बार शास्त्रार्थ के लिए जाते समय भीषण गर्मी के कारण उन्हें तेज प्यास लग गई। रास्ते में एक जगह कुएं पर एक बच्ची पानी भरती दिखी।
उन्होंने उससे पानी पिलाने के लिए कहा, लेकिन बच्ची ने बदले में उन्हें अपना परिचय देने कहा। तब कालिदास को घोर आश्चर्य हुआ। उन्होंने बच्ची से कहा कि तुम मुझे नहीं जानती! मैं बहुत बड़ा विद्वान हूं। यहां दूर-दूर तक लोग मुझे जानते हैं। इसके बाद भी उस बच्ची ने कहा कि मैं तो नहीं जानती आपको। बिना अपना परिचय दिए आपको पानी नहीं मिलेगा। फिर दोनों के बीच शास्त्रार्थ की बातें हुर्इं। कालिदास चकित रह गए। बड़े-बड़े विद्वानों को पराजित कर चुके कालिदास एक बच्ची के सामने निरुत्तर खड़े थे। इसका कारण उनके भीतर घर कर गया वह अहंकार ही था, जिसमें डूबने के कारण कथा के मुताबिक, वे अपने समक्ष खड़ी मां सरस्वती को भी नहीं पहचान पाए थे। बाद में उन्हें अपनी गलती का आभास हुआ और उन्होंने मां सरस्वती से क्षमा मांग प्रस्थान किया।
कुछ अलग करने की, दूसरों से बड़ा होने-दिखने की सोच मस्तिष्क पर हावी होती जाती है। इसी से अहंकार का बीज पनपने लगता है, जिसे जाने-अनजाने हम ही पोषित करते हैं। अहं में डूबे इंसान को यह वहम हो जाता है कि उससे महान कोई और है ही नहीं। अगर इस भावना का समय पर शमन न किया जाए तो यह अपने आश्रयदाता का विनाश कर देता है। इसलिए अहं और वहम हमसे दूर रहे तो ही बेहतर है।
अहंकार ऐसा ही होता है। वह हमारे ज्ञान चक्षुओं को बंद कर देता है, जिसके कारण हमें अपने आसपास की चीजें दिखाई पड़नी बंद हो जाती हैं। हम अपने से अलग कुछ नहीं जान पाते। जीवन भर इसी भ्रम में पड़े रहते हैं कि हमारी तरह महान कोई नहीं है। यही सोच विनाश का कारण बनती है।
संस्कृत के ‘अहम’ यानी ‘मैं’ में केंद्रित होने वाला व्यक्ति अहंकार रूपी रोग से ग्रस्त हो जाता है। संसार में जब शिशु जन्म लेता है तो वह निर्दोष होता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, वैसे-वैसे बच्चे में प्रतिस्पर्धा का भाव प्रबल होता जाता है।