कृष्ण कुमार रत्तू
समय के चक्र में इन दिनों कितना कुछ बदलता जा रहा है कि उन लम्हों को अपने मन मस्तिष्क की तरंगों के साथ भी पकड़ा नहीं जा पा रहा। भागते हुए समय में बदलते हुए उपभोक्ता और परमाणु खतरे के ढेर पर बैठे इस नए परिप्रेक्ष्य में बदलती हुई दुनिया की एक भयावह तस्वीर है जो इसके खतरनाक परिणामों से ओतप्रोत होते हुए सबको सदैव तनाव में रखती है। आज इस बदलती हुई दुनिया की इस शिलालेख पर जिस तरह के तनाव, उदासीनता और आभासी दुनिया की दस्तक ने आज समाज को बदला है, वह इससे पहले नहीं था। लेकिन जीवन का सच यही है कि दुनिया बदलती है।
समय का पहिया इतिहास से वर्तमान और भविष्य को जोड़ता है
बदलती दुनिया ही एक नई आभासी दुनिया और तकनीक से सूचना संसार के प्रचार-प्रसार की नई प्रौद्योगिकी को लोगों के साथ जोड़ती है और भविष्य की नस्लों के लिए वर्तमान को सुरक्षित करती है। यही समय का पहिया है जो इतिहास से चलता हुआ वर्तमान से भविष्य की ओर से नई नस्लों के लिए नई उम्मीदों और नए आविष्कारों के नए आसमान की ओर लेकर चल रहा है। पर समय की बदलती धारा और चमकती सूचना-क्रांति के विस्फोट ने जिस तरह से हमें बदला है, हम उसके साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं।
उदासीनता, अकेलापन से जिंदगी अकेली हो जा रही है
इसीलिए मादक पदार्थ, उदासीनता, अकेलापन और पलायनवादी झटकों के साथ जिंदगी बेहद अकेली होती जा रही है। इन दिनों हमारे गांव और महानगरों में जिस तरह की दूरियां बढ़ गई हैं, उसने और भी उदासीनता का प्रसार किया है। गांव से पलायन का मुद्दा और बौद्धिक पलायन विदेशों में जिस तरह हो रहा है, यह बढ़ती चकाचौंध आज ‘पैकेज’ और प्रवास पर जाकर रुक गई है।
आज एक पीढ़ी गांव में खत्म हो रही है
इन दिनों हमारे रिश्ते-नाते जिस तरह नई दुनिया के मंदिरों से संदेशों के बिना लौट कर आते हैं, तो लगता है कि वे गांव कहां चले गए और आने वाले वर्षों में जिस तरह के बदलते हुए गांव का मंजर हमें दिखाई देगा, वह कैसा होगा। आज एक पीढ़ी गांव में खत्म हो रही है। अब गांव में घरों की मुंडेरों पर ‘उड़ जा काले कावा’ की बात करने वाले गांव में हालात बदल गए हैं।
वह जमाना चला गया जब डाकिया डाक लाया करता था
बुजुर्ग मां-बाप उदास झुर्रियों पड़े हुए चेहरों के साथ दरवाजे पर बैठकर डाकिए का इंतजार नहीं करते। वह जमाना चला गया जब डाकिया डाक लाया करता था। चिट्ठी पढ़कर सुनाता था और फिर किसी व्यक्ति से स्वेच्छा से कुछ राशि लेकर उसे आशीष देता हुआ किसी अगली चिट्ठी लेकर आने के वादे के साथ साइकिल की घंटी बजाता चला जाता था। लोग उसकी कद्र करते थे।
गांव गंवा दिए और रिश्तों की संजीदगी के साथ भाईचारा भी छोड़ दिया
गांवों में चारों ओर नजर घुमाने पर लगता है कि बच्चे प्रवास पर कहीं चले गए हैं। कुछ महानगरीय जिंदगी का हिस्सा हो गए हैं। जिंदगी के संघर्ष को तिलांजलि देते हुए कुछ लोग पल-पल जीने का जुगाड़ कर रहे हैं। क्या यही है जिंदगी का असली रंग, जिसमें हमने अपने गांव गंवा दिए और अपने रिश्तों की संजीदगी के साथ भाईचारा भी छोड़ दिया है? अब लगता है कि इस आभासी दुनिया की तेजतर्रार जिंदगी ने हमसे सब कुछ छीन लिया है और इसी छीना-झपटी में हमने सब कुछ गंवा दिया है।
इस मजबूरी में पल-पल बूढ़े हो रहे मां-बाप घरों के वीरान दरवाजे पर बैठकर बच्चों का इंतजार करते हैं। पर किसी के पास समय नहीं है कि वह महानगरीय और विदेशों में प्रवास की जिंदगी को छोड़कर अपने मां-बाप के पास चंद लम्हे बिताने के लिए आ सके। क्या यही जिंदगी का वह संताप है, जो हमें नई प्रौद्योगिकी और नई उपभोक्तावादी संस्कृति दिखा रही है? इन दिनों जब संभावनाएं खत्म होने लगती हैं तो फिर तमाम चीजें भी खत्म होने लगती हैं।
मुंडेरों पर बैठे कौवे को एक बार बुला कर देखें! एक बार अपने बूढ़े मां-बाप को गांव में जाकर देखें और फिर देखें घरों के आंगन में घास के पौधों को जिन्होंने खुशियों से भरे आंगन के स्वरों को घास से ढक दिया है। अभी भी समय है कि हम इस देश की धरती के साथ अपने रिश्तों को बचा कर रखें। वरना सीमेंट के इस जंगल में भीड़ के इस शहर में ममता, रिश्ते, उलाहने, लोरियां, गीत- सब कुछ डूब जाएगा और उसके बाद फिर जो कुछ बचेगा वह ऐसी दुनिया का चेहरा होगा, जिसमें कोई संवेदना का हाथ नहीं होगा… कोई हाथ छूकर नहीं देखेगा… कोई आंखों के सपने नहीं देख सकेगा।
क्या हम आने वाले कल के लिए ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं? कतई नहीं। हो सकता है कि गांवों में सुविधाएं कम थीं, लेकिन इंसानियत और संवेदनाएं हमारे आसपास घर से लेकर खेत-खलिहाल तक बिखरी पड़ी थीं। तमाम भिन्नताओं के बावजूद जो साझापन था, वह मनुष्य को अपने सबसे विकट समय में जीवन के लिए टिके रहने का हौसला देता था। थोड़ा-सा पीछे लौट कर देखें। गांव हमें याद कर रहे हैं।