बरसात की एक सुबह स्टेशन अपनी तरह ही मिला। कितनी भावनाओं का केंद्र है रेलवे स्टेशन। कोई छोड़ने आया है, तो उसकी विदाई के आंसू में शामिल हो जाता है, तो कभी किसी के आने की खुशी के आंसू में अपना स्थान बना लेता है। एक साथ इतनी खुशी और इतने गम के विरोधाभास का केंद्र है स्टेशन। हम सब भी एक दिन ऐसे ही स्टेशन पर एक दिन आएंगे और फिर अलविदा हो जाएंगे, अपनी यादें छोड़कर, जिन्हें सुबक-सुबक कर कुछ अपने याद करेंगे। सबकी यात्राएं तय हैं, यह हम पर निर्भर करता है कि हम कैसे यात्रा करते हैं। हमारे पास कभी सीट या ‘बर्थ’ का आरक्षण होता है, कभी नहीं और कभी हम प्रतीक्षा सूची में होते हैं तो कभी ‘कन्फर्म’ में। जीवन का भी यही सिद्धांत है। कभी जूझना पड़ता है तो कभी आराम से चलता है।

हमारी ज्ञान परंपरा हमारा पूछताछ केंद्र है

स्टेशन पर आने के पहले की तैयारी पर यात्रा की सुविधा-असुविधा बढ़ती है। जीवन में भी तैयारी हो तो यात्रा ही नहीं, अंतिम यात्रा भी सुखद होती है। यह भी है कि किसी भी पल किसी स्टेशन पर उतरना पड़ सकता है। बाकी यात्री आगे यात्रा जारी रखते हैं। यह क्रम लगातार चलता है। स्टेशन पर पूछताछ कक्ष की तरह जीवन में भी हमारी ज्ञान परंपरा हमारा पूछताछ केंद्र है, जो हमेशा कहता है कि ‘मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं’। स्टेशन पर प्रतीक्षालय की तरह जीवन में भी कुछ प्रतीक्षालय होना चाहिए। जाकर कहीं थोड़ा ध्यान, ज्ञान, गान प्राप्त कर लेने से हमारा मन भी ताजा हो जाता है।

जीवन में टिकट जांच करने वाली प्रकृति होती है

स्टेशन पर हमारे सहयोग के लिए कुली होते हैं। जीवन में भी जितना भार कम होगा, उतना कम निर्भर रहना पड़ेगा। ट्रेन में टिकट की जांच होती है कि आपकी यात्रा कहीं अवैधानिक तो नहीं है। जीवन में भी गलत मार्ग पर चलने का खमियाजा भिन्न-भिन्न प्रकार से अदा करना होता है। जीवन में टिकट जांच करने वाली प्रकृति होती है, जो कहती है- ‘जैसा करोगे, वैसा भरोगे’।

परिवार का ताना-बाना भी इंजन, डिब्बों की तरह ही है

यात्रा में सहयात्री मिलते हैं और पता नहीं कहां-कहां के संपर्क सामने आ जाते हैं। उनसे हम घुलते-मिलते हैं, खाना, संस्कार बांटते हैं और फिर मिलने का वादा कर अपने-अपने स्टेशनों पर उतर जाते हैं। जीवन में भी हमारी यात्रा परिवार के साथ प्रारंभ होती है और फिर वही सिलसिला कि कितने भी अजीज हों, सबको अपने स्टेशन पर उतर जाना होता है। हम नम आंखों से उन्हें विदा करते हैं। ट्रेन की तरह परिवार का भी इंजन होता है जो सभी को चलाता है, जोड़कर रखता है। जहां इंजन खराब हो जाता है तो पूरी ट्रेन अस्त-व्यस्त हो जाती है। एक भी डिब्बा अगर पटरी से उतरता है तो पूरी ट्रेन, इंजन सहित बाधित हो जाती है। परिवार का ताना-बाना भी इंजन, डिब्बों की तरह ही है।

स्टेशन पर कई तरह के लोगों का जीवन चलता है, हाकर, टैक्सी चालक, भिक्षुक, रेलवे कर्मचारी आदि। ऐसे ही हमारा जीवन होता है, जिसके सहारे कई जीवन चल रहे होते हैं- दूधवाला, सब्जीवाला, किरानेवाला, हमारे ऊपर निर्भर परिजन आदि। कहीं स्टेशन पर भाप से चलने वाले पुराने इंजन को सम्मान से रखा गया है। जीवन के स्टेशन पर भी हमारे बड़े-बूढ़े इसी सम्मान की आशा रखते हैं। इन्होंने भी कभी वक्त को चलाया होगा। वास्तव में एक पीढ़ी, जो फल पेड़ों से तोड़कर खा रही होती है, वह पिछली पीढ़ियों ने ही लगाए होते हैं। यही पेड़ बनकर फल देंगे आगे चलकर।

ट्रेन के लिए सिग्नल होते हैं कि कब चलेगी, कब नहीं चलेगी। जीवन में भी सिग्नल मिलते हैं कि अब हमें संभलना है और कब रफ्तार कम या तेज करना है। रिश्तों की ‘शंटिंग’ अनुभवी हाथों से ही होती है, वरना ढीली रहने पर दुर्घटना का भय रहता है। स्टेशन पर साफ-सफाई हो तो अच्छा लगता है, वैसे ही जीवन भी साफ-सुथरा हो तो वह व्यक्तिव अलग ही कहलाता है। स्टेशन से गुजरती रेल की पटरियां एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बनाकर, एक-दूसरे की निजी जगह को ध्यान में रखते हुए साथ-साथ चलती हैं और सुदूर देखने पर लगता है कि आगे जाकर वे एक हो गई हैं। यही संदेश है कि हजारों किलोमीटर हम एक दूसरे का सम्मान करते हुए साथ-साथ चल सकते हैं। परिदृश्य हमें एक कर ही दिखाएगा। अहं के बगैर जीवन सरल, समतल हो जाता है।

लगभग हर स्टेशन पर कई तरह के पंछियों के आशियाने होते हैं। उनके बच्चे वहीं पैदा होते हैं, बड़े होते हैं और दूर गगन में विलीन हो जाते हैं। जीवन में महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि हम कितना जीते हैं, महत्त्वपूर्ण यह है कि कैसे जीते हैं। स्टेशन पर बने पुल एक दूसरे को चंद सीढ़ियों से जोड़ देते हैं। जीवन में भी जुड़ना महत्त्वपूर्ण है। यह तभी संभव है जब हमें सीढ़ियां बनाना आ जाए। रिश्तों की, जज्बातों की, भावनाओं की, सौहार्द की, अपनेपन की सीढ़ियां। बगैर पुल के फासले रहते हैं, इसलिए पुल हमारी आवश्यकता होना चाहिए।