हरेक इंसान हमेशा किसी के नजरिए से बहादुर, तो किसी की नजर में कायर होता है। किसी के लिए मजबूत और किसी के लिए कमजोर ही नहीं, किसी के लिए अच्छा और किसी के लिए बुरा भी हो जाता है। यही नहीं, किसी के लिए घातक, जबकि किसी अन्य को सहायक नजर आता है। कुछ लोग किसी के बीच बेचैनी और झुंझलाहट महसूस करते हैं, तो कुछ अन्य उसी की संगति में सुकून और राहत पाते हैं। कोई किसी को ढीला मानता है, तो कोई उसे ही चुस्त बताता है। दुनिया वाले हर इंसान को अपनी-अपनी नजर से देखते और आंकते हैं। इसलिए बेहतर है कि हम अपने दिमाग की सुनें, अपनी ही धुन में जिंदगी जिएं। किसी जैसा बनने की बजाय जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहिए, क्योंकि बेपरवाह हो कर खिंचवाई गई तस्वीर हमेशा अधिक सहज आती है।
और फिर, ऐसे विचार उमड़ने से अपना मन भी गहन सोच में डूबा रहता है कि कुछ भी ठीक नहीं है। मन शिकायतें ही खोजता रहता है… मसलन, यह गलत है, वह सही नहीं है। हरेक का केवल एक ही मंत्र होना चाहिए कि अगर आज उसके जीवन का आखिरी दिन है, तो क्या उसने अपने आसपास की दुनिया को थोड़ा-सा बेहतर बनाया या नहीं। मन ज्यादातर इनकार ही करता है। वह ‘न’ कहने वाला होता है और ‘नहीं’ सरलता से कह देता है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब हम ‘हां’ कहते हैं, तो मन ठहर जाता है। तब मन की कोई जरूरत नहीं रह जाती। गौरतलब है कि जब कोई ‘नहीं’ कहता है, तो मन आगे सोच सकता है, क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है। वह तो शुरुआत है। दूसरे शब्दों में, ‘नहीं’ एक शुरुआत है, ‘हां’ अंत है। ऐसा ओशो अपने प्रवचनों में समझाते रहे हैं।
गुलाब और कमल के फूल की अपनी-अपनी शिफत और खूबसूरती है। ऐसे ही जिंदगी के सफर में भी कोई किसी से आगे या पीछे नहीं होता और न ही कोई किसी से बेहतर या कमतर होता है। हर इंसान वहीं है, जहां उसे होना चाहिए। बावजूद इसके आत्मग्लानि से ग्रसित रहता है- कुछ न करने की, तो कभी कुछ करने की। ग्लानि यानी अपनी गलती महसूस करके मन ही मन खेदजनक होना। इंसान ‘मैं ऐसा क्यों हूं’ या ‘मैं वैसा क्यों हूं’ के चक्कर में परेशान हो उठता है। जैसा है, वैसा है, भाव में खुश रहना चाहता है। वास्तव में, इंसान ऐसे लोगों से घिरा रहता है, जो दूसरों को नियंत्रित करते हैं, उनका मूल्यांकन करते हैं और निरंतर आत्मग्लानि का आभास कराते रहते हैं। जबकि ऐसे लोग दूसरों को बदलने के लिए तो उतारू होते हैं, लेकिन खुद को न बदल सकते हैं, न बदलने की हिम्मत जुटा पाते हैं। कोई कैसा भी है, उसे बिना आत्मग्लानि के अपने अंतरतम स्वभाव में जीना चाहिए। दूसरों के विचारों के अनुसार खुद को हेरफेर करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। बस स्वयं अपने स्वभाव में रहा जाए। तभी आनंद भीतर से पनपता है।
संपूर्ण एक अनुभूति है कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। संपूर्ण होने के लिए कुछ करने, कुछ सोचने और कुछ अनुभव करने की जरूरत नहीं है। जैसे हम हैं, एक संपूर्ण जीवन हैं। कई विद्वानों का मानना है कि किसी और की तरह बनने की इच्छा दरअसल खुद के व्यक्तित्व को व्यर्थ जाने देना है। लोगबाग दूसरों पर दबदबा जमाने के लिए आत्मग्लानि का अहसास जगाने से बाज नहीं आते। साथ ही, अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालने का प्रयास करते नहीं थकते। दिमागी सोच है, जिसमें खासी ऊर्जा खपती है। इसके नकारात्मक प्रभाव को जानने के बाद बचना अत्यंत जरूरी हो जाता है। और अगर कोई हमेशा स्वयं की दूसरों से तुलना करें, तो वह स्वयं ही अहंकार या ईर्ष्या का शिकार हो जाएगा। बात-बेबात पर खुद को कोसना छोड़ देना चाहिए। अपनी सीमाओं में रह कर बेफिक्री से सारे काम किए जाने चाहिए, जो दूसरों को ठेस न पहुंचाएं। हर इंसान के लिए चित्त की आजादी, नैतिक आचरण और सदाचार का सिद्धांत बेशक अलग- अलग हो सकता है।
जीवन को अपने हिसाब से जीने के लिए सबसे पहले दूसरों की अपेक्षाओं से मुक्त होना होता है। हर इंसान को अपने देश, समाज, धर्म और परिवार के मद्देनजर एक लक्ष्मण रेखा के दायरे में आजादी है, मनमर्जी करने की छूट है। इसीलिए जरा-जरा-सी बातों पर खुद को दोष नहीं देना चाहिए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और विचारक अब्राहम लिंकन ने काम करने की अपनी धीमी रफ्तार पर इस तरह तसल्ली दी है, ‘मैं धीमा चलता हूं, तो क्या, पर कभी वापस नहीं आता।’ सच है कि हर किसी की काम करने की अपनी गति होती है। अगर हमें किसी काम में दूसरों से अधिक समय लग रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि हम पीछे हैं। विद्यार्थी की धुन की तरह सीखते हुए हम आगे बढ़ेंगे, तो खुद दुरुस्त होते जाएंगे। सुधार निरंतर जारी रहेगा। गंभीर और उथल-पुथल वाले चित्त से कोई सुखी नहीं हो सकता। चीनी दार्शनिक लाओ त्सु का भी कथन है कि स्थिर मन के लोगों के सामने पूरी दुनिया झुकती है।