विमल कुमार
जिस तरह सुबह नए जीवन के अंकुरण का संदेश देती है, वैसे ही ढलती सांझ जीवन के अवसान की कहानी कह जाती है। हम सब खुद के उदित होने और ढलने के बीच जीवन जीने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। सांझ हमारे अंदर के अंधकार को ढूंढ़ने का मौका देती है। लेकिन इस धुंधलके में हमारी नजर स्वयं से दूर दूसरे के कारनामों की देहरी पर दस्तक देने लगती है। जिंदगी में कहीं पहुंचना या किसी से मिलना महज इत्तिफाक है। इसलिए हमें सदैव सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से हमारे जीवन का ज्यादातर वक्त अंदर से बाहर जाने में ही खर्च हो जाता है। जबकि इसके बजाय हमें बाहर से अंदर आने की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए था।
दुनियावी सफलताएं नहीं, जीवन को समझने और जीने की सार्थकता होना चाहिए उद्देश्य
जीवन की आपाधापी में हम अपने आप से रूबरू ही नहीं हो पाते और थोड़े से मिले कालखंड को नाजायज कार्यों में गंवा बैठते हैं। जीवन का मुख्य मोती तो हमारे अंतर्मन में रहता है, लेकिन हम बाहर के कंकड़-पत्थर को जुटाने के चक्कर में खुद को पाना भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि हम महज यात्री हैं इस ग्रह पर। कुछ वक्त गुजारने आए हैं। फिर एक छोटे-से कालखंड के बाद हम लोग न जाने किस शून्य में विलीन हो जाएंगे। दुनियावी सफलताएं नहीं, बल्कि जीवन को समझने और जीने की सार्थकता हमारा हासिल होना चाहिए था।
खुद की तलाश में, खुद से दूर भागना जैसे नियति हो हमारी
कितनी अनिश्चितता से भरी है जिंदगी और इस अनिश्चित सफर की गुमनाम मंजिलें। ठहरे रास्तों पर हम बेतहाशा भागते जा रहे हैं। जैसे लगता है हम खुद से दूर भागना चाहते हैं। खुद की तलाश में, खुद से दूर भागना जैसे नियति हो हमारी। खुद को भूल आसपास बजती धुनों में हम अपनी कहानियां तलाशते रहते हैं। भीड़ में पहचान के चेहरों को खोजती निगाहें जैसे किसी विशेष चेहरे की तलाश में गुम हों।
बढ़ते दायरों के साथ रिश्तों की असीमित कड़ियां जुड़ती जाती हैं, पर समर्पण और विश्वास के मानदंडों पर हर बार टूटी स्मृतियां मिलती हैं। फिर खोखली औपचारिकताओं के साथ रह जाता हैं नीरस मुलाकातों का दौर। जिंदगी एक नाटक तो है ही, जिसमें हम सभी अपना किरदार निभा रहे हैं, पर जब इन किरदारों के साथ और भी बनावटी अभिनय करना पड़ता है तो जिंदगी बेजान-सी लगने लगती है।
लोगों से मिल कर हम मुस्करा उठते हैं और तलाशते रह जाते हैं उस चेहरे को, जो इन मुस्कराहटों के पीछे की तकलीफों को पढ़ सके, पर तकलीफों को कैसे पढ़ा जा सकता है। इसके लिए तो मुकम्मल इंसान बनने की जरूरत है, पर हम इंसान छोड़कर शायद सब कुछ बनने को तैयार हैं। खुशी और दुख के अपने कार्यकाल होते हैं। जब हम बेहद खुश होते हैं तो लगता है दुख से कोई परिचय ही नहीं, लेकिन दुख के क्षणों में यह पता लगता है जैसे खुशियां हमारा पता ही नहीं जानतीं। हम सब कभी अपनी जिंदगी के सिकंदर होते हैं तो कभी हमारी ही जिंदगी ढहते साम्राज्य की तरह लगने लगती है।
जीवन कितना रहस्यमय है! जब-जब लगता है हम जीवन को जानने के बेहद करीब हैं, तब-तब आंखों पर पड़ी गलतफहमियों की धूल को एक नई सच्चाई की बारिश मिटा देती है और हम तब इस अहसास से रूबरू होते हैं कि हम महज एक लिखी गई कहानी के किरदार मात्र हैं जो एक पटकथा पर अभिनय कर रहा है। जिंदगी तो आखिर जिंदगी ही है… शायद बेपर्दा हो जाए तो हम मौत के आगोश में ही न चले जाएं!
कभी-कभी लगता है कि चीजें कितनी बिखर गई हैं। जीवन का कतरा-कतरा बिखरता जा रहा है। एक छोर पकड़ने की कोशिश में दूसरा छूट जाता है। सामने दो ही विकल्प नजर आते हैं। बिखरी चीजों को समेटने की कोशिश की जाए या इस बिखराव को ही नियति मान कर जीते चले जाएं। आखिर बिखराव का भी तो अपना सौंदर्य है। समेटने में फिर से बिखरने का भय है। बिखराव भयमुक्त है।
हम जैसा सोचते हैं जिंदगी उसके विपरीत कहीं दिखाई देती है। जिंदगी हमें एक ऐसे चौराहे पर खड़ा करती है, जहां हम तय ही नहीं कर पाते कि हमें किधर जाना चाहिए। एक तरफ बांह फैलाए हुए लोग दिखते हैं तो दूसरी तरफ मुंह मोड़ कर खड़े हुए लोग। यह बेहद कठिन है कि हम इस बात का चुनाव कर पाएं कि हम किस रास्ते पर जाएं। एक मुकम्मल जिंदगी की चाह में कभी-कभी हम जिस रास्ते पर जाना चाहते हैं। उस रास्ते पर जाने वाले हमारे सहयात्री हमसे कोई वास्ता ही नहीं रखना चाहते। हम एक अजनबी की तरह जिंदगी की अनजान राहों पर चलते जाते हैं। आखिर इस बेदर्द जिंदगी से क्या ही शिकायत की जाए!
कई बार ऐसा लगने लगता है कि हम जब भी कुछ पकड़ना चाहेंगे, वह छूट जाएगी। जिस चीज को जितनी शक्ति से पकड़ने की कोशिश करेंगे, वह उतनी जल्दी छूटेगी। लोग, संसाधन, भावनाएं- सबको मुक्त रखना चाहिए, क्योंकि दुनिया की हर एक शय की प्रकृति में मुक्ति की चाह है। जिंदगी पर भी हमेशा पकड़ ढीली रखनी चाहिए, ताकि मौत मुस्कराते हुए आलिंगन कर सके!