भावना मासीवाल
भाषा को मजबूत बनाने में लिपि का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। आज हिंदी का अपना बाजार है। यह बाजार सिनेमा, विज्ञापन और प्रौद्योगिकी का है। किसी भी भाषा का बाजार पर अपनी मजबूत पकड़ बनाना सरल नहीं होता है। भाषा का आर्थिक, सामाजिक और भाषिक व्यवहार ही उसे बाजार की भाषा बनाता है। आज हिंदी वैश्विक बाजार की भाषा बन कर उभर रही है। मगर यह भाषा ‘हिंग्लिश’ है। बाजार की इस चकाचौंध में हिंदी का व्यावहारिक पक्ष तो मजबूत हुआ है, लेकिन उसका भाषिक पक्ष कमजोर हुआ है। आज हिंदी को बोलने और समझने वाले लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। यही कारण भी है कि विविधताओं से भरे हमारे देश में जहां हर चार कोस में बोली-भाषा का स्वरूप बदल जाता है, वहां बहुत-सी भाषा और बोलियों के मध्य ‘हिंदी’ ने अपना स्थान बनाया है। वह संप्रेषण और रोजगार की भाषा बनी है।
हिंदी की देवनागरी लिपि के प्रयोग की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखने का चलन बढ़ा
हिंदी की इस मजबूत स्थिति के साथ उसका कमजोर पक्ष भी उभरा है। यह पक्ष हिंदी की लिपि का है। आज जब हम बाजार की चकाचौंध में चमकती हिंदी का गुणगान करते हैं तो उसके व्यावहारिक पक्ष को देखते हैं, लेकिन भाषिक पक्ष को अनदेखा कर देते हैं। बाजार, सिनेमा और विज्ञापन में हिंदी और उसकी लिपि के प्रति भेदभाव की मानसिकता को नहीं देख पा रहे हैं। हिंदी की देवनागरी लिपि के प्रयोग की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखने का चलन बढ़ा है। यह चलन हिंदी के भाषिक पक्ष को कमजोर बनाता है।
सोशल मीडिया से लेकर कंप्यूटर तक की भाषा अंग्रेजी है
अक्सर प्रश्न किया जाता है कि ‘हिंदी’ चूंकि संस्कृत के अधिक निकट है, इस कारण भाषिक व्यवहार में कठिन शब्दों के प्रयोग के कारण युवाओं को उसे सीखने में समस्या आ रही है। दूसरा, सोशल मीडिया से लेकर कंप्यूटर तक की भाषा अंग्रेजी है। इसका कारण भाषा की संप्रेषणीयता है। वहीं अंग्रेजी के प्रति इस तरह की धारणा सुनने को नहीं मिलती है। चूंकि वह भाषा हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अधिक सक्षम है तो हम हिंदी भाषी होने के बावजूद अन्य भाषा को सीखकर उस पर पूरी तरह अधिकार प्राप्त कर लेते हैं और वह हमारे विद्यालयी पाठ्यक्रम में अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ी-पढ़ाई जा रही है।
वहीं हम ‘हिंदी’ के प्रति संस्कृत से उसकी निकटता के कारण कठिनता का आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे हैं। भाषा कोई भी कठिन और सरल नहीं होती है। यह हमारी मानसिकता है, जिसने इसे दो खेमों में विभाजित किया है। इसी ने अंग्रेजी को उपयोगी और सरल बताया और हिंदी को दुरूह होने की श्रेणी में डाल दिया।
देवनागरी लिपि की बात करें तो यह जितनी सरल और वैज्ञानिक है, वह वैज्ञानिकता अन्य भाषाओं की लिपियों में नहीं मिलती है। हिंदी की देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही चिह्न का प्रयोग होता है जो रोमन लिपि में नहीं है। यहां एक ही ध्वनि ‘क’ के लिए ‘सी’, ‘के’ और ‘क्यू’ का प्रयोग होता है। इस कारण अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि को सीखते समय उसके उच्चारण क्रम में एक ही वर्ण के प्रयोग के साथ शब्दों के अलग-अलग उच्चारण क्रम को भी सीखना पड़ता है। लेकिन अंग्रेजी भाषा के प्रति प्रेम और सीखने की ललक उस लिपि के प्रत्येक पक्ष को सीखने में सहायक बनता है। यहां मकसद किसी भाषा को श्रेष्ठ या फिर कमतर बताना नहीं है, बल्कि हिंदी के प्रति हमारी संकुचित दृष्टि को जानना है।
भाषा के विकास में केवल उसका व्यावहारिक पक्ष ही कारगर नहीं होता है, बल्कि उसका भाषिक प्रयोगात्मक पक्ष भी अनिवार्य होता है। हम एक को लेकर दूसरे को छोड़ नहीं सकते हैं। हिंदी के भाषिक प्रयोग के लिए देवनागरी लिपि की अपेक्षा रोमन लिपि के बढ़ते चलन ने एक वर्ग को भारतीय भाषाओं के साहित्य से दूर कर दिया है। आज भारतीय साहित्य हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी भाषा में अधिक पढ़ा जा रहा है। लिपि जो भाषा की प्राणतत्त्व है, भाषा को स्थायित्व और संग्रहणीय बनाती है। यह कैसे हो सकता है कि हम उसके एक पक्ष को अपनाएं और दूसरे को छोड़ दें। हिंदी भाषा की मूल समस्या उसके व्यावहारिक प्रयोग की नहीं है। बावजूद इसके हिंदी की सबसे बड़ी समस्या उसके लिपिगत प्रयोग से है। किसी भाषा की मूल लिपि के प्रयोग की अपेक्षा सरलता के क्रम में रोमन लिपि का बढ़ता प्रचलन किसी भी भाषा के लिए हितकर नहीं है।
आज के दौर में कठिन से सरल के प्रवाह में देवनागरी लिपि का स्थान रोमन लिपि ले रही है। सरलता के इस प्रवाह में हम भाषा के मूल व्यवहार और उसकी संरचना को अनदेखा कर देते हैं। हमारा समाज बहुभाषी है। हमारी अपनी ही बहुत-सी बोली, भाषाएं और लिपियां है। इसके बावजूद हमारे देश में देवनागरी लिपि की अपेक्षा रोमन लिपि का प्रयोग बढ़ रहा है। एक ओर हम भारतीय भाषाओं, बोलियों और लिपियों को फिर से जीवंत बनाने, उनके शैक्षिक और साहित्यिक योगदान को मजबूत बनाने का प्रयास कर रहे हैं, वहीं हिंदी को देवनागरी लिपि में लिखे जाने की अपेक्षा रोमन लिपि में लिखे जाने की बहस चल रही है। ऐसे में हमारी बोलियां और भाषाएं अपना अस्तित्व खो देंगी, क्योंकि वह लिपि ही है जो किसी भाषा को स्थायी, सजीव और संग्रहणीय बनाती है।