प्रभात कुमार
आजकल हर कुछ समय बाद बदलने वाले और आधुनिक पोशाकों का जमाना है और पोशाकों पर बात भी काफी खुलकर हो रही है। एक तरफ वस्त्रों के नए स्वरूप तैयार करने और पहनने वाले कलात्मकता के बहाने नए प्रयोग कर रहे हैं, जो पूर्व के अनुशासन से अलग है, ऐसे कपड़े पहनने में बेफिक्री बढ़ रही है, तो दूसरी ओर कई स्थलों पर घोषित-अघोषित रूप से निर्देशित होना शुरू हो गया है कि वहां कैसे परिधान पहन कर आएं। ऐसा पहले भी होता रहा है, जब एक तरह से सुरक्षा बनाए रखने के लिए पोशाक को अनुशासन के दायरे में निर्धारित किया गया। माना जा रहा है कि बढ़ती संपन्नता ने पहनावे का अंदाज बदला है।
अब बाजार के रुख पर निर्भर होता जा रहा है पसंद
फैशन की दुनिया के प्रबंध संचालक पहले बता देते हैं कि आने वाले दिनों में कौन-सा रंग ज्यादा पहना जाएगा। पहने जाने वाले वस्त्र बता देते हैं कि कपड़े की खपत कितनी कम होगी। रचनात्मकता और नवोन्मेषी शैली के नाम पर ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जिन्हें शालीनता के प्रतिकूल बताया जाता है। हालांकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के युग में बहुत सारे लोग अपनी पसंद से कपड़े पहन रहे हैं। लेकिन इस क्रम में हो यह रहा है कि सलीका जैसी चीज गायब होती जा रही है। नई तहजीब को उगा लिया गया है, जिसमें दिखावा लोगों के दिमाग पर काबिज हो गया है। इसलिए लोग वह पहन रहे हैं, जो बाजार उन्हें पहना रहा है। पसंद अब बाजार के रुख पर निर्भर होता जा रहा है।
स्व-अनुशासन को खत्म करते जा रहे हैं हम
मनोरंजन में खुलेपन के नाम पर कई बार फूहड़ता बढ़ती दिखती है। स्वाभाविक है, इसका असर आम लोगों के वस्त्रों पर भी होता है। इस मसले पर सोशल मीडिया पर लोग विषयों को उसके संदर्भ में विश्लेषित करने के बजाय उथले तर्कों के साथ उकसाने का ही काम ज्यादा करते हैं। इस क्रम में हम स्वानुशासन को खत्म कर रहे हैं। यह बेवजह नहीं है कि कई व्यावसायिक संस्थानों के प्रबंधनों की ओर से बाकायदा निर्देश जारी किए गए कि कार्यालयी कामकाज के दौरान सादा पोशाक पहन कर आएं। हाल ही में बिहार में भी कुछ कार्यालयों में कर्मचारियों से औपचारिक वस्त्र ही पहन कर आने के निर्देश जारी किए जाने की खबर आई थी।
दरअसल, रोजाना, घर पर पहने जाने वाले कपड़े सब जगह तो नहीं पहने जा सकते, मगर लोगों ने इन्हें कहीं भी पहना जाने वाला और हर अवसर के लिए उपयोगी बना डाला है। पहले घर में चाहे जैसे वस्त्र पहने जाते हों, लेकिन घर से निकलते हुए शालीन वस्त्र पहने जाते थे। इससे एक विशेष प्रभाव भी पैदा होता था और एक तरह से अनुशासन भी बना रहता था। लेकिन आजकल घर से बाहर कई बार सोते समय पहने जाने वाले परिधान भी सार्वजनिक स्थानों या बाजारों तक में पहने हुए लोग दिख जाते हैं। जो पतलून घर में आराम और सुविधा के लिए पहनी जाती रही हैं, वह अब कई औपचारिक अवसरों पर लोग पहन कर चले जाते हैं। कई बार यह समझना मुश्किल होता है कि लोग कपड़े मौके और जरूरत के मुताबिक पहन रहे हैं या लोगों को दिखाने के लिए। फिर यह भी समझ में नहीं आता कि आखिर वे क्या और क्यों दिखाना चाहते हैं!
किसी भी अवसर या माहौल के मुताबिक कपड़े पहनने का चलन हमेशा रहा है। हर समाज में शोक के अवसर पर खास रंगों के वस्त्र धारण किए जाते रहे हैं। ऐसे माहौल में भड़कीले रंग वाले वस्त्रों से परहेज किया जाता है। उत्सवी माहौल के रंग भी हैं। कई पूजा स्थलों में महिलाओं के सिर पर दुपट्टा और पुरुषों द्वारा सिर पर रूमाल आदि से सिर ढक कर जाने की रिवायत अभी जारी है। लेकिन व्यवसाय के हिसाब से ढीले या चुस्त वस्त्र उचित माने जाते हैं।
कुछ समय पहले एक परीक्षा केंद्र में एक छात्रा को उसके पहने कपड़ों की वजह से अंदर जाने से रोक दिया गया। किसी तरह यह मामला सुलझा। बाद में विश्वविद्यालय की तरफ से कहा गया कि उनके यहां परिधान को लेकर कोई नियम लागू नहीं है। लेकिन इस घटना के बाद ‘ड्रेस कोड’ और वक्त और जगह के मुताबिक कपड़े पहनने के विवेक पर एक बहस उठ गई। ऐसी और भी घटनाएं होती होंगी, जो यह बताती हैं कि किसी खास परिधान में कर्मचारियों या विद्यार्थियों का आना संस्थान या समूह का प्रबंधन निर्धारित करता है और वहां आने वालों को मानना पड़ता है।
हमारा सार्वजनिक जीवन भी फैशन की दुनिया और बाजार का हिस्सा है। कपड़े पहनने के सलीके का जिक्र यहीं आता है। देखा जाए तो इस बारे में पारिवारिक संस्कार अहम भूमिका अदा करते हैं, जहां परिधान को लेकर भी कुछ चीजें परंपरा के रूप में विकसित होती हैं। यह स्थिति माहौल और बदलते फैशन से प्रभावित होते हुए भी अपने पहनावे को शालीन बनाए रखते हैं। यह जरूरी समझ बनाए रखते हैं कि कौन-सा वस्त्र कहां पहना जाए, न कि फैशन और दिखावे की होड़ में अपना ही खयाल रखना भुला दिया जाए। आज के दौर में पोशाक के मामले में सामाजिक माहौल के मद्देनजर सामान्य बुद्धि और स्वानुशासन का बेहतर तालमेल बहुत जरूरी है, ताकि किसी को कुछ थोपा हुआ भी न लगे और उसकी गरिमा भी कायम रहे।