हरियाली से प्यार का मामला मोटे तौर पर तीन चीजों से जुड़ा रहता है। एक तो मन बहल जाए, दूसरा इस मन को ऊर्जा मिले और तीसरा, हमारे मन को यह बात महसूस होती रहे कि पंचतत्त्व का हमारा चोला इसी प्रकृति का अंश है। यों इन तीनों के बीच हमारे अपने रुझान भी साथ-साथ चलते रहते हैं। मसलन, हरियाली पर बैठ कर गहन ध्यान लगा कर सुकून पा लिया या कैमरे में तस्वीरें कैद कर लीं या वहां नियमित भ्रमण करने लगे।

हम तकनीक के कुछ ज्यादा ही गुलाम बन रहे हैं

यानी इसमें हमारा अपना जीवन दर्शन, हमारी सामाजिक दशा, दैनिक कार्यकलाप आदि के कुछ बिंदु अहम भूमिका निभाते हैं। हम हरियाली के साथ कुछ समय बिता रहे हैं, यानी हम अपने सकारात्मक पक्ष को पुष्पित-पल्लवित कर रहे हैं। हम सबके जीवन में कभी न कभी वह पल तो जरूर आता है, जो यह बताता है कि अब बस, बहुत हुआ… हम तकनीक के कुछ ज्यादा ही गुलाम बन रहे हैं। तकनीक वगैरह के हल्केपन से अब उबरने की जरूरत है। ठीक है कि यह मनोरंजन करता है, पर इससे मनोबल भी गिरता है।

लोभ की कुसंगति में फंसने से दैनिक जीवन से रस और रंग गायब

दरअसल, आधुनिकता और भोगवाद का मकड़जाल है ही ऐसा कि जो इसमें अटका, वह इंसानियत से भटका। यह माहौल की मजबूरी हो गई है कि हम सब ऐसी दिनचर्या अपना बना चुके हैं, जहां अपने सिवा किसी के बारे में कभी सोच ही नहीं पाते या फिर सोचने का मन ही नहीं करता। संभ्रांत कालोनी, आलीशान घर, मुलायम बिस्तर और नाना प्रकार की सुख-सुविधाओं के बीच रहकर भी जाने क्यों हमें चैन और आनंद की नींद नहीं आ पाती और अजीब-सी जद्दोजहद में समा चुके हम उस नींद को बुलाते हैं, खोजते हैं, करवट बदल कर उसका अता-पता ढूंढ़ते हैं। आज यह सबके चिंतन करने का समय है कि हम लोभ की कैसी कुसंगति में फंस गए कि दैनिक जीवन से रस और रंग गायब हैं और हमें इसकी कमी से उपजने वाली स्थितियों का भान तक नहीं।

मानव प्रगति की अंधी दौड़ में बस मशीन बनने लगा

जब औद्योगिक क्रांति के साथ एक दौर ऐसा आया, जब मानव प्रगति की अंधी दौड़ में बस मशीन बनने लगा, तो इससे पूरे सामाजिक चक्र को बेहद तकलीफ झेलनी पड़ी। जिस तरह प्रकृति को तहस-नहस किया गया, वह एक भयानक क्रूरता थी। तब किसी को उस प्रकृति की परवाह ही नहीं थी, जिसके हम अंश हैं। वह एक अभियान चल पड़ा था विकास के नाम पर सिर्फ दौलत कमाना और तरक्की करना। तब शायद प्रकृति खुद भी आहत होकर यह सोचने लगी होगी कि स्वार्थ की कठपुतली इंसान से भावुकता और संवेदनशीलता की उम्मीद करना बेमानी है। पर आज ये मानदंड बदल रहे हैं जब एक के बाद एक अजीबोगरीब बीमारियों का प्रकोप बढ़ने लगा है।

अब इंसान में कुछ सकारात्मक बदलाव हुआ है और वह थोड़ा-बहुत प्रकृति से जुड़ने की कोशिश करने लगा है। कानूनी मजबूरी में ही सही, रसोई से लेकर दफ्तर तक प्लास्टिक पर पाबंदी लगी है। अब कुछ पढ़े-लिखे युवक खेती में रुचि दिखाने लगे हैं, पौधों को उगा कर प्रकृति को धानी रंग दे रहे हैं। जीवन और प्रकृति के संबंध को समझना वक्त की जरूरत भी है।

आज तो हर रिहाइशी कालोनी के लोग चाहते हैं कि शहर में सबसे हरा-भरा क्षेत्र उनका ही हो। लालच, लोभ और स्वार्थ से भरे इस समय में यह अनिवार्य होने लगा है कि हम सबका जीवन मानवीयता, सहयोग और सहृदयता की अनूठी बगिया जैसा महक जाए। सादगी भरा मन खोजने पर नहीं मिले तो येन-केन-प्रकारेण हरियाली संगति का लाभ जरूर लेना चाहिए। इसलिए कि अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी वह अपने जैसा बना देती है। हरियाली अकेली नहीं होती। उसके साथ हम तितली, भंवरे, गौरैया, गिलहरी, चींटी, जुगनू आदि की संगति से होकर भी गुजरते हैं।
हरियाली यानी मौसम के चक्र के साथ नए-नए रूप दिखाना।

जब हम यह रूप गहराई से देखते हैं तो सीखते हैं कि अनुशासन, सामंजस्य, व्यवस्थित होना, नियमित रहना कितना फायदेमंद होता है। जैसी होगी संगति, वैसी बनेगी मति, तो हम भी बिल्कुल वैसे ही सुगठित होने लगेंगे। एक दूसरे को सहारा देने और अपना सर्वस्व अर्पित करने की तमन्ना हरीतिमा के सिवा कहीं किसी पूंजी बाजार वगैरह में शायद ही देखने को मिले। आत्मीयता क्या होती है, यह हरियाली ही हमें बताती है जब किसी दूब पर चींटियों का दल रेंग रहा होता है और किसी बेल पर गौरैया झूला खाती है… किसी टहनी पर कबूतर गुटरगूं कर रहे होते हैं और किसी अमरूद से लदी डाली पर तोतों का झुंड जुटा होता है।

आज यह अनेक लोगों के इलाज की एक पद्धति बन गई है। किसी पार्क में जाना और कुछ समय वहां रहना इतना काव्यात्मक है कि उदासी, अकेलापन, थकान, तनाव, घबराहट गायब हो जाते हैं। हरियाली जब बाहर से भीतर आने लगती है, तो हृदय द्वारा प्रकृति के सातों रंग आत्मसात कर लिए जाते हैं। इसमें सराबोर होकर जो खुशी मिलती है, उसकी तुलना नहीं हो सकती।