संस्कृति में बहुत-सी परंपराएं ऐसी हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि इन्हें स्त्रियों ने बनाया होगा। इनकी मूल चेतना कृषि सभ्यता और सामंती व्यवस्था से जुड़ी हुई है, इसके स्पष्ट चिह्न इन परंपराओं में दिखाई देते हैं। कृषि सभ्यता में शारीरिक ताकत के प्रतीक वृषभ और पुरुष संतान की अहमियत है। युद्ध और खेती के लिए पुरुष शक्ति की प्रधानता स्थापित हुई। स्त्रियां खेती-किसानी का प्रमुख आधार रही हैं, लेकिन कठोर श्रम के काम के लिए तुलनात्मक रूप से बलिष्ठ ज्यादा मुफीद होते हैं।
राजाओं, सामंतों, जमींदारों और धनी किसानों में बहु-पत्नी प्रथा थी
दूसरा बड़ा कारण वैयक्तिक संपत्ति का उदय रहा है। वैयक्तिक संपत्ति के उदय ने संचित संपत्ति के वारिस का सवाल भी खड़ा किया। संतानोत्पत्ति के लिए स्त्रियों की उपयोगितामूलक भूमिका और बहु-पत्नी प्रथा को वैधता प्रदान की। अपने-अपने क्षेत्रों के लिए निरंतर होने वाले युद्धों ने बहुविवाह और एक से अधिक स्त्रियों से संबंध को सामान्य जीवन का अंग बना दिया। राजाओं से लेकर स्थानीय सामंतों, जमींदारों और धनी किसानों में बहु-पत्नी प्रथा विद्यमान थी। साधारण लोगों में भी बहु-पत्नी प्रथा स्वीकार्य थी।
छठ पर्व का स्वरूप स्थानीय से राष्ट्रीय और अब वैश्विक हो गया
ऐसे में राजा और धनी-मानी परिवारों में उसी स्त्री का सम्मान हो सकता था जो संपत्ति का वारिस यानी पुत्र पैदा करे। बहुत सारे पर्वों में इसी आग्रह का उदाहरण मिलता है। बिहार और कुछ अन्य हिंदीभाषी राज्यों में धूमधाम से मनाया जानेवाला हाल ही में बीता छठ भी एक ऐसा ही पर्व है। अब इसका स्वरूप स्थानीय से राष्ट्रीय और वैश्विक हो गया है। जहां-जहां पूर्वांचली पहुंचे हैं, अपने साथ इस व्रत को भी ले गए हैं।
इसकी परिकल्पना किसी स्त्री या स्त्री समुदाय की ही होगी
यों तो यह व्रत स्त्री-पुरुष सभी करते हैं, कई अन्य धर्मों के लोगों को भी विधि-विधान से छठ करते देखा जा सकता है, लेकिन इसकी परिकल्पना किसी स्त्री या स्त्री समुदाय की ही होगी। ऐसा इसके संपूर्ण कलेवर को देखकर कहा जा सकता है। इसके अधिकतर गीतों में प्रतापी पुत्र पैदा होने की प्रार्थना की गई है। इस पूरी प्रक्रिया पर गौर करें तो संयुक्त परिवार और भाई-भतीजियों से भरे-पूरे मायके की कामना भी होती है।
आज न पुराने रूप में संयुक्त परिवार हैं, न ही नगरों में वह सामुदायिक जीवन और न कृषि सभ्यता के मजबूत आधार। लेकिन ज्यादातर त्योहारों का शहरीकरण हो गया है। यह गांवों से चलकर छोटे कस्बों, शहरों और महानगरों में अपना विस्तार कर चुका है। जाहिर है कि पर्व का स्वरूप भी बदला है। गांवों में बड़े घरों और विस्तृत परिवेश में ज्यादा लोगों के जुटान की सहजता थी।
मसलन, पर्व में इस्तेमाल में आने वाला गेहूं सुखाने, महीनों से अन्य सामान जुटाने से लेकर प्रसाद बनाने तक जितनी जगह, साधन और सुविधा थी, जिस सहजता से प्रकृति प्रदत्त मौसमी फल-फूलों से नदी या तालाब के किनारे घाट बनाकर पूजा की जा सकती थी, वह शहरों में संभव नहीं। प्रदूषित नदियों और मिलावटी सामानों, छोटे घरों, कैसेट पर बजते गीतों ने इस सामुदायिक पूजा का स्वरूप ही बदल दिया है। लेकिन भारतीय मानस ने इन सबके साथ सामंजस्य बैठा लिया है। सब उपादानों के साथ कुछ फेर-बदल करके पूजा का स्वरूप उसी अनुसार बदल लिया है। कुछ नई चीजें भी शामिल हुईं हैं, जैसे मेंहदी, महंगे वस्त्र, अलंकार, आधुनिक सौंदर्य। कहीं-कहीं कथा कहते पंडित जी!
यह अपने आप से पूछा जानेवाला सवाल है कि भारतीय परिवेश में रहकर क्या हम तीज-त्योहारों से दूर रह सकते हैं? होली, दिवाली, दुर्गापूजा, कालीपूजा, गणेश पूजा, ईद, क्रिसमस, नया साल सबका है। इनसे जुड़े आयोजन आनंदोत्सव का रूप हैं। समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण के पुराने अस्त्र हैं। जीवन की एकरसता को तोड़ते हैं और आपस में घुलने-मिलने का अवसर देते हैं। ऐसे में पढ़ा-लिखा, वैज्ञानिक चेतना से संपन्न स्त्री या पुरुष तबका विभिन्न कारणों से इनसे अलगाव का भाव प्रकट करता है तो उसके जायज कारण होने के बावजूद स्वीकार्य नहीं होगा।
इसे ऐसे समझा जा सकता है कि हम दहेज हत्या के खिलाफ चेतना पैदा करने के लिए शहर के सात सितारा होटल में मुट्ठी भर नामचीन लोगों की गोष्ठी करें। जरूरत है कि जब तक हम समाज को एकदम आधुनिक, वैज्ञानिक और शिक्षित नहीं बना लेते, तब तक समाज के भीतर रह रहे साधारण लोगों की चेतना, विश्वासों, सांस्कृतिक रूपों और लोक-शिक्षा को जानने का प्रयास किया जाए।
इस लिहाज से देखें तो पारंपरिक पर्वों के गीत लिखने वाले नए गीतकार पैदा होने चाहिए, जिनकी कलम से नई बदली सामाजिक चेतना को स्वर मिल सके। बेटा-बेटी बराबर हैं, विवाह के भीतर स्त्रियों के अधिकार बराबर हैं, पितृसत्तात्मक विचारों और प्रथाओं में स्त्री का दमन होता है- यह चेतना काफी लोगों में है, लेकिन अमल में फर्क आ जाता है। इसे दूर करने की जरूरत है। इससे लोकपर्व भी बचेगा और समाज को भी उनसे गति और उत्साह मिलता रहेगा। लोक-आनंद के रूपों को सचमुच बचाना है तो त्योहार के स्वरूप में बदलाव लाना होगा।