प्रभाशंकर उपाध्याय
आपदा से टूटना, आम आदमी के लिए त्रासदी है, तो सियासी शख्स के लिए सुनहरा अवसर। सामान्य जन विपदाओं, विश्वासघातों और वादा खिलाफियों से टूटता है, जबकि सियासत का व्यक्ति इन्हीं मौकों को भुनाकर अपनी पांचों अंगुलियां घी में सराबोर कर लेता है। उसे चाहे भितरघात, बगावत या फिर अपने जमीर को गहरे तक दफ्न करना पड़े, वह करता है। साधारण आदमी जब टूटता है तो उसकी किरचें इस कदर बिखर जाती हैं कि उन्हें सहेज कर उसका फिर से सृजन कर पाना बेहद कठिन हो जाता है, जबकि राजनीतिक हस्ती तो टूटकर और निखरती है। टूटना और तोड़ना मानवेतर जंतुओं में नहीं पाई जाती। वे ऐसे सुख या दुख से सर्वथा अपरिचित होते हैं।
फल पेड़ से टूटता है तो वह पेड़ के हित में न होकर विश्वहित में होता है
बहरहाल, पेड़ से जब कोई फल टूटकर गिरता है, फल या फूल तोड़ा जाता है, तो वे पेड़ के हित में न होकर विश्व के हित में होते हैं। चांद-सितारे तोड़कर किसी की झोली में भर देने की आभासी प्रतीति भी आमतौर पर सुकूनदेह होती है। अब यह अलग बात है कि चांद-सितारे तो कभी तोड़े नहीं जा पाते, मगर उन्हें तोड़ कर लाने का भरोसा कोई करता है और कोई उस भरोसे को अपने लिए मान कर थोड़ी खुशी हासिल कर लेता है। दरअसल, चांद-सितारे में छिपी कल्पनाओं से जो खुशी मिलती है, वह शायद इसलिए प्रिय लगती है कि वह हमसे दूर है। जबकि धरती हमारे पास है, मगर हम उससे मिले सुख से खुशी महसूस नहीं करते।
तोड़ना भी एक कला है, कुशल तोड़क वह है जो पपीते की तरह आदमी तोड़ ले
बहरहाल, तोड़ने की क्रिया को युक्तियुक्त बनाना एक कला है। राजनीति के चतुर सुजान इसमें निष्णात होते हैं। कुशल ‘तोड़क’ वह होता है, जो दूसरे के पेड़ पर पके पपीते की तरह आदमी को तोड़ ले और उसका पोषक या रक्षक सिर धुनता रह जाए। तोड़ना चने की झाड़ की भांति भी हो सकता है, लेकिन उसमें कच्चे-पके, छोटे-बड़े सभी किस्म के बूटे आ जाते हैं। पता नहीं कि उनमें से कौन-सा नुगरा निकल आए? चने की झाड़ तोड़ने वाला लाख मगन होकर गाए कि ‘मेरे चने की आंख गुलाबी…’ मगर उस चने की आंखों में जब लाली उतर जाए तो वह चना बिना गुरेज चना जोर गरम भी हो जाता है।
पकने के बाद टूटे पपीते का उपयोग तुरंत किया जाना जरूरी है, अन्यथा वह किसी काम का नहीं रहता। मगर पके चने के साथ एक बड़ा जोखिम भी है कि वह तोड़ने वाले की नाक में घुसकर नाकों चने चबवा सकता है और छींक के साथ बाहर आकर, उछलता-कूदता अपनी ढेरी को छोड़कर दूसरे की ढेरी में भी जा सकता है। पुलिस अलग प्रकार से तोड़ती है। इस मामले में उसकी दोतरफा भूमिका होती है। कभी वह बाघ तो कभी बकरी बन जाती है। आम आदमी के सामने बब्बर शेर बनकर उससे वह जुर्म भी कबूल करवा लेती है, जिसे करने का वह स्वप्न में भी सोच नहीं सकता। आमजन के लिए बाघ बहादुर बनी पुलिस बाहुबलियों के सम्मुख बकरी की भांति मिमियाने लगती है!
नीति कहती है कि युद्ध और प्यार में जोड़ना-तोड़ना सब जायज है, लेकिन इसमें राजनीति भी जोड़ी जा सकती है, क्योंकि वह सिर्फ नीति के आधार पर नहीं चलती। उसमें राज भी छिपा हुआ है। राज जानने के लिए किसी को भरोसे में लेना होता है। भगवान राम ने भी विभीषण को भरोसे में लिया था। अनेक हमलावर राजाओं और नवाबों ने बैरियों के राजदारों को तोड़ा और निर्द्वंद्व हो दुर्भेद्य दुर्गों पर अख्तियार किया। अलाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर के खाद्य भंडार के प्रहरी को तोड़ा और अन्न तथा जल को जहरीला बनाकर अभेद्य किला जीत लिया। टीपू सुल्तान के खौफ से दक्षिण से भागे ब्रितानियों ने टीपू के अंगरक्षक को तोड़ कर उसकी पीठ पर वार करवा कर, दक्षिण में वापसी की।
लब्बोलुआब यह कि इंसान की जिंदगी में टूटने और तोड़ने का क्रम ताउम्र चलता ही रहता है, लेकिन जब उसके प्रियजन तोड़ते हैं तो रेशा-रेशा बिखर जाता है। परिवार का मुखिया, जो जिंदगी भर अपने सिद्धांतों पर चला हो, उसने अपने जमीर के आगे किसी की न सुनी। सेवाकाल में ईमानदारी और कर्मठता को तवज्जो देने वाले और काजल की कोठरी में रह कर भी बेदाग सेवानिवृत्त हुए उस बुजुर्ग को उसके बालिग हो चुके बच्चे असंतुष्टि के भाव से उसके जिंदगी भर के सिद्धांतों को पलीता लगाकर उसके व्यक्तित्व को सिरे से खारिज करते हुए उलाहना देते कि आपने जिंदगी भर अपनी नैतिकता का ढोल पीटने के सिवा हमारे लिए क्या किया?
कभी उसकी सहधर्मिणी भी कहती है कि बच्चो, मैंने भी कोई कम दुख नहीं पाए। ऐसे नश्तर उसके अंतस की किरचें बिखेर देते और वे बुरी तरह टूट जाते हैं। ऐसी ही स्थिति के लिए किसी टूटे व्यक्ति को बेकल उत्साही की यह पंक्ति अवश्य याद आती होगी- ‘बेच देता जो तू अपनी जुबां, अपनी अना, अपना जमीर/ फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होते।’