इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है कि अपने देश के मूल निवासियों को बेदखल कर दिया गया हो और एक बार नहीं दो बार। भारत में ऐसी दुखद और तकलीफदेह घटना हुई और इसे एक उपन्यास के तौर पर पेश किया गया है जिसका नाम है “बंटवारा और विस्थापन”। इस उपन्यास में उन किस्मत के मारों की व्यथा कथा है जिन्होंने अपने जीवन काल में एक नहीं दो-दो विभाजनों, भयंकर रक्तपात और अपनों के मारे जाने का दंश सहा। निर्मम हत्यारों द्वारा अपने प्रियजनों को मारा जाता देखा और महिलाओं के साथ बलात्कार तथा असहनीय अत्याचार भी उन्होंने एक बार नहीं दो बार झेला। जब देश आज़ाद हो रहा था तो मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं ने पंजाब-बंगाल में भयंकर लूटमार मचाई और लाखों बेगुनाहों को मार डाला ताकि एक इस्लामी देश बनाने का रास्ता साफ हो।
लाहौर जो आधुनिक भारत का सेक्युलर चेहरा था उसे बदरंग कर दिया गया। हिन्दू-सिख बाहुल्य वाला खूबसूरत शहर लीगियों की बर्बरता की भेंट चढ़ गया। लेखक विजय गुप्ता बन्टी ने काल्पनिक चरित्रों के माध्यम से उस त्रासदी को बहुत मार्मिक तरीके से प्रस्तुत किया है। उसने लिखा है कि लाहौर शहर में एक ऐसा परिवार भी था जो सुखी जीवन व्यतीत
कर रहा था। लेकिन मुस्लिम लीग की दहशत और खूनखराबे के कारण उसे अपना प्यारा शहर, अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। लीगियों ने चालाकी से लाहौर में वहां के हिन्दू गवर्नर तक को अपनी मुट्ठी में कर लिया। इतना ही नहीं उनकी पत्नी तथा बेटी का भी अपहरण कर लिया जिसे राजवीर नाम के जाबांज युवा ने बाद में खोज निकाला और वहां से भारत ले आया।
यह उपन्यास उसी युवा के इर्द-गिर्द घूमती है जिसने लीगियों के इरादे उस समय ही भांप लिये थे जब वे खूनी हमलों की तैयारी कर रहे थे। वह राष्ट्रीय संवयसेवक संघ का कार्यकर्ता बन गया था लेकिन उस परिवार में कुछ लोग ऐसे भी थे जो कांग्रेसी थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और मुस्लिम लीग के मक्कार नेताओं पर यकीन करते थे क्योंकि वे महात्मा गांधी की बातों पर विश्वास करते थे। काफी समय़ तक वे उनकी चालों को नहीं समझ पाए और न ही लाहौर छोड़ने को तैयार हो रहे थे। लेकिन लीगी बहुत चालाकी से अपने पत्ते बिछा रहे थे और हत्यारों की टोली तैयार कर रहे थे उन्होंने लाहौर में प्रशासन के मज़हबी लोगों की मदद से आतंक का साम्राज्य कायम किया ताकि हिन्दुओं को न केवल शहर से भगाया जाए बल्कि उनकी घर की महिलाओं को उठाया जाए और उनकी दौलत लूट ली जाए।
नायक राजबीर का परिवार किसी तरह से तमाम खून-खराबे के बावजूद वहां से भागने में सफल हो जाता है और कुछ लोग लुधियाना चले जाते हैं तो कुछ कश्मीर के गांव सलामतपुर जहां उन्होंने एक नई जिंदगी शुरू कर दी। लेकिन उन्हें क्या पता था कि एक दिन फिर वही त्रासदी वे झेलेंगे जो उन्होंने 1947 में झेली थी। वही धार्मिक उन्माद, वही वहशीपना और वही लूटमार। पाकिस्तान के एजेंटों ने 1990 में घाटी में कहर बरपा दिया। केन्द्र सरकार सोती रही और कश्मीर में हिन्दू मरने-तड़पने के लिए छोड़ दिए गए। लोग किसी तरह से पलायन करने को विवश हो गए। एक बार फिर अपने ही देश में उन्हें देशनिकाला दे दिया गया।
यह कहानी शुरू होती है कश्मीर से जहां एक हिन्दू नौजवान विजय की प्रेम गाथा से जो एक मुस्लिम लड़की शब्बो के प्यार में पड़ जाता है और उसके लिए अपनी जान पर खेलने को भी तैयार हो जाता है। लेकिन 1990 आते-आते उसकी और उसके परिवार वालों की जान पर बन आती है। परिवार के समझदार लोग हत्या और आगजनी के ठीक पहले भागकर जम्मू आ जाते हैं और अपने ही देश में विस्थापितों की तरह रहने लग जाते हैं। बाद में लेखक हमें अतीत में यानी 1947 में ले जाता है जहां देश का विभाजन कहर बनकर लाखों लोगों पर बरपा।
यह कहानी भले ही कल्पना जैसी दिख रही हो लेकिन लेखक विजय गुप्ता बंटी ने अपनी कलम का सटीक इस्तेमाल किया है और उन्होंने उस दर्द को बखूबी सबके सामने रखा है। पुस्तक की भाषा सरल है और उसमें प्रवाह भी है। यह विषय थोड़ा राजनीतिक भी है लेकिन विजय गुप्ता बन्टी ने इसमें इसका ओवरडोज नहीं होने दिया है। इसमें दोनों समय के कुछ चित्र भी डाले हैं। कुल मिलाकर यह एक दिलचस्प पुस्तक है और इसमें रोमांस भी है तो दुख भी।
पुस्तक-बंटवारा और विस्थापन
लेखक-विजय गुप्ता बन्टी, प्रकाशक-कनिष्क पब्लिशर्स, डिस्ट्रीब्यूटर्स, अंसारी रोड, दरियागंज
दिल्ली, मूल्य 400 रुपए।