एक टुकड़ा आसमान तो सभी को चाहिए। अपना कहने के लिए। आज मेरी आंखों में आसमान का टुकड़ा उतरा हुआ है, उस पर छितरे हुए बादलों के टुकड़ों के अलावा कुछ भी नहीं है। वह निर्मल और स्वच्छ दिखाई दे रहा है। कहीं कोई धुंध या धुआं नहीं है, जो उसे ढक ले। कुछ समय पहले तो ऐसा नहीं था। उस आकाश के टुकड़े को भी मैं अपना नहीं मान पाई। कह नहीं सकती कि मैं द्वंद्व और तनाव से मुक्त हूं। आज भी सारी खुशी के बाद आंतरिक रूप से खुश नहीं हूं। वो मेरा आकाश नहीं था, मुझे जिसे निगाहों में रखना था।

हर व्यक्ति अपनी कमियों और खूबियों के साथ पैदा होता है। मुझे मां बनना था। उसके लिए कोई व्यक्ति चुनना था। जो मुझे संतति बीज दान कर सके, जिसमें वे सारी खूबियां हों जो एक व्यक्ति में होनी चाहिए। महीने भर उसे बुलाया जाता रहा, ताकि मैं उसे अच्छी तरह जान लूं।

अधिक जानना भी क्या था। उसके साथ जीवन तो बिताना नहीं था। बस एक अनुबंध के तहत उसका अंश चाहिए था। मैंने उससे पूछा था, ‘यह तुम्हारी इच्छा है या तुम्हारी विवशता है? उसने कहा था, ‘मेरी पत्नी जिसे मैं बहुत प्यार करता हूं, उसका जीवन बचाने के जितना रुपया चाहिए वो मेरे पास नहीं है।’

अब मैं एक बच्ची की मां हूं। स्त्री की पूर्णता का एक रूप! मां बनने के बाद मेरा मान और महत्त्व बढ़ गया है। घर के लोगों का व्यवहार बदल गया है। जो खुशियां दूर खड़ी दिखाई देती थीं, अब घर के अंदर चहलकदमी करती नजर आती हैं। मेरे पति की आंखों में वीरानगी की जगह संतुष्टि नजर आती है।

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पहले एक-दूसरे की नजरों से बचते थे। अब चेहरे पर चेहरा लगाकर मुस्कुरा रहे हैं। सारे सवालों का जवाब मेरी कोख भरने केसाथ मिल गया था। आखिर किसमें कमी है? अक्सर संतानहीनता की कमी अनजाने ही औरत के नाम लिख दी जाती है।

परीक्षणों के बाद मुझे ऐसे आरोपों से मुक्ति मिल गई थी। मैंने सुमित से कहा, ‘तुमने सारा समय अपने कामों के नाम लिख दिया है। किसी और रास्ते पर विचार क्यों नहीं करते? तुम तो बार-बार यही कह कर छुट्टी पा लेते हो कि यह तुम्हारी समस्या है। यह सिर्फ मेरी समस्या कैसे हो सकती है? क्या तुम्हें पिता होने का सुख नहीं चाहिए? तुम कहो न कहो, मैंने तुम्हारी आंखों में रेगिस्तान फैला हुआ देखा है।’

इस तरह या उस तरह, मेरी तरफ से आजादी है। मगर वो चीज कहां से लाऊं जो मेरे पास नहीं है? नैतिकता भी मौका पाकर जरूरत की सीढ़ियां चढ़ जाती है। ईमानदारी अपने प्रति होनी चाहिए। बातों और निगाहों का सामना तो मुझे करना पड़ता है। कभी तुमने मेरी पीड़ा का अहसास किया है? बस कह कर छुट्टी पाते रहे, बच्चा चाहिए तो इस बारे में सोचो और निर्णय लो। मैंने कभी तुम्हें रोका-टोका नहीं है।’

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मैंने कहा था, सोच समझ कर बात किया करो। तुम्हारी बातों से मैं क्या अर्थ निकालूं? सुमित का पुराना जवाब था, ‘जब मेरी कोई भूमिका ही नहीं है तो इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि संतति किस जरिए आई है। जो संबंध पैसे से बनते हैं, उसमें क्या बचा रह जाता है। सिर्फ सोचने का अंतर है। बच्चा जैविक रूप से तुम्हारा ही होगा। पालनकर्ता तो मैं भी रहूंगा। आइवीएफ के रास्ते से तुम दो बार गुजर चुकी हो। फिर कौन सा रास्ता बचता है। इतिहास में खोजो तो नियोग का रास्ता भी है। पुरुष किराए की कोख ले लेता है। स्त्री को बच्चा पाने के लिए स्वतंत्रता नहीं है।’

मैंने कहा, ‘ये तुम्हारे सोच की उदारता नहीं है। सोचना अलग बात है, स्वीकार करना अलग है। पितृत्व आहत नहीं होगा? अपनी जगह किसी और को स्वीकार कर पाओगे? मैं अपनी जिंदगी के बारे में क्या कहूं? मैंने हर तरह की आजादी से अपना जीवन जिया है।

शादी के बाद शुरुआत के साल मौज-मस्ती में गुजारे। मेरे पास इंटीरियर डिजाइनिंग का काम था जो मेरी आमदनी का जरिया था। यह काम मेरी पहचान थी। मैंने अपनी कमाई से दुबई में घर खरीदा था। मैं नई मंजिल की तरफ देख रही थी। मैं मां बनना चाहती थी। नि:संतान होना दुर्भाग्य नहीं है। मुझे खूब सुनने को मिलता रहा, ‘तुम लोगों ने क्या सोच रखा है प्रियांशी! उमर निकली जा रही है, अब अगर नहीं करोगी तो क्या बुढ़ापे में बच्चे पैदा करोगी?’

हम दोनों हंसकर टालते रहे। मैंने अपनी संतानहीनता को संताप में नहीं बदलने दिया। किसी की कमी का ढिंढोरा नहीं पीटा। मैं जैसे पहले रहा करती थी, वैसे ही अब रहती हूं। बस इतना ही फर्क पड़ा है कि दूसरी औरतों की तरह नि:संतान होने की कमी को ढोती नहीं हूं। डिजाइनर के काम ने मुझे कुछ और सोचने ही नहीं दिया। सब की खुशी के लिए मैने खुद को आइवीएफ यानी कृत्रिमगर्भधारण के लिए तैयार किया था। पर उसी रास्ते पर चलने से पहले मुझे दूसरे रास्ते पर उतार दिया गया।’

मै पूछना चाहती हूं, ‘औरत का वजूद क्या केवल मातृत्व धारण करना ही है? उसकी कोई और अपनी व्यक्तिगत इच्छा या आकांक्षा नहीं होती? वह भी चाहती है कि पंख खोल कर खुली इच्छाओं के आकाश में उड़े। मैंने अपने मन के आजाद पंछी को अब परिवार की अपेक्षाओं के पिंजरे में डाल दिया है। मां बनना किसी भी औरत के जीने का पूरा अध्याय नहीं है।

आंचल में दूध आंखों में पानी…आज उसकी जिंदगी की कहानी नहीं है। वह अपनी दिशाएं खुद तय कर रही है। पंछी को उड़ान चाहिए। चाहे वह किसी रूप में हो। अपने मन के कोरे कागज पर क्या लिखूं? पहले जो लिखा था वह किसने पढ़ा? किसने सुनी मेरी आवाज? अब यही सोचती हूं कि बेटी को अपने विचारों का पालना दूं। मैंने पति और परिवार की जरूरत तो समझी, पर निजता की लड़ाई नहीं लड़ पाई। मेरी बेटी का नाम अपराजिता होगा और वो मेरी नहीं अपनी ही आवाज बनेगी। आखिर इस घर की और सुमित की खुशी मेरे वजूद से बड़ी हो गई, जिसमें मेरी खुशी शामिल नहीं थी।

मां बनकर मां बनने का सुख जाना, जो कभी एक सपना भर था। इसके साथ एक प्रश्न जैसे मेरे मन को कुरेदता रहा है। क्या मैंने कुछ अनुचित और अनिच्छित पलों को जिया है। मेरे होशो-हवास पर जैसे पर्दा गिरा हुआ था। सिर्फ एक आभास मेरे पास से गुजर, किसी के नजदीक होने का। मुझे लगा था, मेरे तन-मन के सभी तटबंद खुल गए हैं और मुझे ‘आइवीएफ’ में सफलता की सूचना मिली थी।

मेरे अंदर सहमी हुई सी आवाजों का शोर था। आखिर उसका क्या हुआ जो मेरे पास खुले विचारों की जमीन थी। क्या कोई नया रास्ता सुमित की इच्छा और इरादों से बना था। जाने क्यों कभी-कभी मुझे लगता है, पर वह दानदाता झूठ नहीं बोलेगा। मैंने उसकी आंखों में सच्चाई देखी है। उसने इस बात से साफ इनकार किया है। उसका झूठ या सच बोलना किसी से जुदा नहीं है। फिर भी मेरे सामने जो आसमान का टुकड़ा है, वही मेरा आसमान है।