जनसत्ता- दुनिया मेरे आगे
दुनिया मेरे आगे: डिजिटल भंवर के दायरे; ऑनलाइन तो हैं, लेकिन रिश्तों में ऑफलाइन हो चुके हैं हम

यह चिंताजनक है कि धीरे-धीरे हम संवेदनाओं को खोते जा रहे हैं। अगर कोई पास बैठा हो और उदास हो,…

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दुनिया मेरे आगे: दुख के बाद भी जीवन है, छोटी-छोटी खुशियों में छिपा है जीवन का सार

पीड़ा का सामना करने के लिए अपनों से निकटता बनाए रखना चाहिए। जिन लोगों के साथ हम अपने जीवन का…

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दुनिया मेरे आगे: महंगी होती शिक्षा, बचपन पर बोझ और सरकार की चुप्पी शिक्षा का बढ़ता बाजारीकरण और सरकारी खामोशी

जिस प्रकार वस्तुओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार सरकार ने अपने पास नहीं रखा, ठीक उसी प्रकार शिक्षा तंत्र की…

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दुनिया मेरे आगे: सिर्फ 15% फैक्ट्स, 85% सोच, हार्वर्ड की रिसर्च और सफल लोगों की ज़िंदगी से जानिए असली सफलता का गणित

अपने मस्तिष्क को सकारात्मकता के लिए अधिक सक्षम बनाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए निरंतर सकारात्मक…

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दुनिया मेरे आगे: पितृसत्ता के साये में स्त्री का वजूद, क्या कोख से आगे कुछ नहीं, कब टूटेंगे बेड़ियों के ये बंधन?

हर मनुष्य को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है। हालांकि ऐसे अधिकार पुरुषों को तो जन्म से ही मिल…

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दुनिया मेरे आगे: किशोरावस्था अपने आप में उम्र का सबसे कठिन मोड़, नाजुक मन की उलझनों को समझना जरूरी

किशोरावस्था की उलझनों को समझना इतना भी आसान नहीं होता है। प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चे की प्रतिभा और अभिरुचि…

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दुनिया मेरे आगे: खेलिए, कूदिए, हंसिए… ‘किडल्टिंग’ से लौट रही मासूम खुशियां

वर्तमान जिंदगी में तमाम सुविधाओं के बीच रहने वाले लोग भी अब ऐसी परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं, जिसमें…

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दुनिया मेरे आगे: अतीत का बोझ क्यों ढो रहे हैं हम? जीवन को हल्का बनाने के 3 आसान उपाय

मनुष्य को यह स्वीकार करना होगा कि अतीत को बदला नहीं जा सकता। जो कुछ भी हुआ, अच्छा या बुरा,…

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दुनिया मेरे आगे: तकनीक और समाज; जब विज्ञान से आगे बढ़ती है नीतियों की जरूरत

समाजिक विज्ञान यह सुनिश्चित करता है कि तकनीकी नवाचार केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों तक सीमित न रहें, बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं और…

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दुनिया मेरे आगे: फागुन का रंग, वसंत का राग, जब प्रकृति गाती है और धरती सतरंगी हो जाती है

प्रकृति के चाहे कितने ही रंग हों, कितने ही उत्सव हों, लेकिन फागुन जैसा कोई नहीं भिगोता है। इस फुहार…

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दुनिया मेरे आगे: शिक्षा या बाजार? बढ़ती फीस, घटती गुणवत्ता और गिरता विश्वास

शिक्षा एक मानवाधिकार है। इस अधिकार की पूर्णता तभी हो सकती है, जब इसे सभी तक बराबर के साथ पहुंचाया…

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दुनिया मेरे आगे: मोबाइल फोन-इंटरनेट और सोशल मीडिया के बिना अधूरा सा शहरी जीवन, रिश्ते-दोस्ती और भावनाएं हो रहीं ‘डिजिटल’

हरी संस्कृति एक ऐसे दर्पण की तरह है, जो हमें हमारी उन्नति और प्रगति दिखाती है, लेकिन जब हम इसमें…

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