1990 में कश्मीर में जो कुछ हुआ उस पर आई फिल्म द कश्मीर फाइल्स इस समय चर्चा के केंद्र में है। इस फिल्म में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन का किरदार नहीं दिखाया गया है। फिल्म के आलोचक सवाल उठा रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि पंडितों के साथ जो कुछ हुआ, उसके लिए भाजपा के समर्थन से चल रही दिल्ली की सरकार और खासकर राज्यपाल जगमोहन दोषी थे। लेकिन वास्तव में कश्मीरी पंडितों के निर्वासन के लिए कौन जिम्मेदार था?
जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन से ये विस्तृत चर्चा फरवरी 2018 में नई दिल्ली स्थिति इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में अमित ने की थी। पेश हैं बातचीत के संपादित अंश…
सवाल: जनवरी 1990 में जम्मू कश्मीर के राज्यपाल का कार्यभार ग्रहण करने से पहले, सरकारी तंत्र इतना लाचार और प्रभावहीन क्यों था? क्या आपको लगता है कि कश्मीर में व्यापित भारत विरोधी तत्वों और अलगाववाद के किये, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस भी उतनी ही जिम्मेदार हैं जितने कि अलगाववादी?
जवाब: 19 जनवरी 1990 को अपने दूसरे कार्यकाल के लिए राज्य में पहुंचने से पहले, 6 माह के समय में फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन सरकार ने सारी हदें पार कर दीं थीं और अप्रत्यक्ष रूप से आतंकियों को घाटी में एकक्षत्र राज स्थापित करने के सभी अधिकार दे दिए थे। 19 जून 1989 से जनवरी 1990 के बीच घाटी में 319 हिंसक घटनाएं हुईं, जिनमें 21 सशस्त्र हमले, 114 बम ब्लास्ट, 112 आगजनी की घटनाएं, और भीड़ द्वारा हिंसा के 72 मामले थे। अकेले अक्टूबर महीने में बम बिस्फोट की 50 तथा उग्रवादियों द्वारा गोलीबारी की 15 घटनाएं हुईं थीं।
पूरी दुनिया को यह दिखाने के लिए, कि घाटी पर उनका पूरा अधिकार हो चुका है, उग्रवादियों ने 8 दिसंबर को केंद्रीय गृह मंत्री की बेटी, डॉ. रुबिया सईद का अपहरण कर लिया, और उन्हें तभी आज़ाद किया जब सरकार ने उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया तथा 5 प्रमुख आतंकवादियों को रिहा करने की उनकी शर्त को मान लिया। इसका परिणाम हुआ कि घाटी में विध्वंस और आतंकवाद की घटनाएं और ज्यादा बढ़ गईं। इंटेलिजेंस ब्यूरो के दो अधिकारियों की हत्या कर दी गई, क्योंकि स्थानीय पुलिस के अंदरूनी विध्वंसकारी तत्वों द्वारा उन अधिकारियों के क्रियाकलापों की जानकारी आतंकियों को लग गई थी।
आवश्यक क़दमों की अनदेखी की बात छोड़िए, सबसे ज्यादा बढ़ावा तो तुष्टिकरण को दिया गया।उस वक्त फारुक अब्दुल्ला सरकार ने उग्रवादियों के तुष्टिकरण को बढ़ावा देना वाला एक निर्णय लिया। उन्होंने 70 ऐसे ख़तरनाक़ उग्रवादियों को रिहा कर दिया, जिनकी गिरफ़्तारी को जम्मू कश्मीर उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली एक सलाहकार समिति ने जायज ठहराया था। उन उग्रवादियों की ट्रेनिंग पाक अधिकृत कश्मीर में हुयी थी और उनके आईएसआई से नजदीकी संबंध थे।
दूसरा, आईएसआई और इसके एजेंटों द्वारा विचारित और प्रायोजित एक योजना के तहत, घाटी में घृणा और हिंसा फ़ैलाने वाली एक बहुत बड़ी मशीनरी को काम पर लगाया गया। अनेकों मस्जिदों में तेज आवाज वाले लाउड स्पीकर लगाए गए, जिनसे लगातार आज़ादी परस्त, पाकिस्तान परस्त, और भारत विरोधी नारे लगाए जाते थे। फारुक अब्दुल्ला की गठबंधन सरकार ने हिंसा भड़कने से रोकने के लिए इन लाउड स्पीकरों को हटवाने के लिए कोई एक्शन नहीं लिया।
सवाल: आरोप लगते हैं कि आपने पंडितों को पलायन के लिए प्रोत्साहित किया था?
जवाब: आप देखिए कि मेरे वहां दोबारा राज्यपाल बनने से पहले माहौल कितना डरावना था कि भयाक्रांत पंडित समुदाय ने 16 जनवरी, 1990 को राज्यपाल को दिए एक ज्ञापन में कहा था: “उग्रवादी अब घाटी के वास्तविक शासक बन गए हैं। पलायन की गति अब और ज्यादा बढ़ गयी है। पुलिस द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय का एक भी आक्रमणकारी नहीं पकड़ा गया”। रही बात इन आरोपों की कि मैंने पंडितों को पलायन के लिए प्रोत्साहित किया तो ध्यान रखिए कि मैंने 19 जनवरी को ही जम्मू में चार्ज संभाला था, राज्य की उससे पहले 6 महीने की स्थिति क्या थी वह भी बता चुका हूं।
जम्मू में चार्ज संभालने के बाद उसी दिन मैं कश्मीर नहीं जा पाया क्योंकि खराब मौसम के कारण हेलीकॉप्टर नहीं उड़ सका। उसी रात पंडितों का पलायन शुरू हुआ, जम्मू में पूरी रात मेरे पास रोते-बिलखते, चीखते कश्मीरी पंडितों के फोन आते रहे। क्या ये स्थिति एक दिन में बनी थी? इससे ज्यादा कुछ न कहते हुए यहां श्रीनगर टाइम्स के मुख्य संपादक गुलाम मोहम्मद सोफ़ी की बात रख रहा हूं जो उन्होंने इन आरोपों पर कही थी… “यह बिलकुल सफ़ेद झूठ है। ये सब एक चरणबद्ध दुष्प्रचार का हिस्सा था। पंडितों का पलायन पूर्व योजना का परिणाम था। जगमोहन का इससे कोई लेना देना नहीं है। जब उन्होंने 19 जनवरी, 1990 को अपने दूसरे कार्यकाल का कार्यभार संभाला, तब परिस्थितियां अत्यंत भयावह थीं”
सवाल: आप कह रहे हैं कि 19 जनवरी 1990 से पहले चीजें बिगड़ चुकी थीं। तो क्या साल 1984 में राज्यपाल के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान आपने राज्य में आतंकवाद के निशान देखे थे?
जवाब: वास्तव में, तमाम दुःखद बुराइयों की आधारशिला काफी पहले रखी दी गयी थी। उदाहरण स्वरूप अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35A के प्रावधान इन्हीं गलतियों में से दो हैं। ये प्रावधान ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ की दूषित विरासत को जीवित रखते हैं, और ‘एक भारत’ के विचार से बिल्कुल इतर थे।दुर्भाग्यवश, वो लोग जिनके हाथों में देश की तक़दीर थी, उन्होंने जरूरी सुधार लागू करने में कोताही बरती। वे अपनी अदूरदर्शी और स्वार्थपरक राजनीति के कैदी बने रहे।
सवाल: क्या आपको लगता है कि कश्मीरी आतंकवाद न केवल ‘एंटी-इण्डिया’ है, बल्कि ‘एंटी-हिन्दू’ भी है? यदि हां, तो क्यों?
जवाब: ये न केवल ‘एंटी-इण्डिया’ और ‘एंटी-हिंदू’ है, बल्कि ये ‘एंटी-इस्लाम’ भी है। यदि घाटी में कश्मीरी पंडितों के सितंबर 1989 से अब तक के पलायन की बात करें, तो ये सब पाकिस्तान की आईएसआई और कट्टर स्थानीय उग्रवादियों की एक शैतानी योजना के अंतर्गत हुआ। कश्मीरी पंडित समुदाय के प्रमुख सदस्यों को एक एक कर पकड़ा गया और उन्हें मार डाला गया। उदाहरण स्वरूप, भारतीय जनता पार्टी के नेता टिक्का लाल टिप्लू की 14 सितंबर, (आंतकी मक़बूल भट्ट को सजा सुनाने वाले) जज एन. के. गंजू की 4 नवंबर, और पत्रकार पी. एन. भट्ट की 28 दिसंबर को गोली मारकर हत्या कर दी गई थी।
