Lachhu Maharaj Google Doodle, लच्छू महाराज: भारत के प्रसिद्ध तबला वादक लच्छू महाराज के 74वें जन्मदिवस के अवसर पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें बधाई दी। गूगल ब्लॉग के मुताबिक, इस डूडल में लच्छू महाराज की तस्वीर को नीले, पीले, लाल और हरे रंगों से तैयार किया गया है। वह तबला बजाते नजर आ रहे हैं। उनके मुख पर मुस्कान और आंखों में संतुष्टि के भाव हैं। इसे गेस्ट आर्टिस्ट साजिद शेख ने तैयार किया है। लच्छू महाराज का जन्म उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर वाराणसी में 16 अक्टूबर 1944 को हुअा था। उनके पिता का नाम वासुदेव महाराज था। उनका नाम रखा गया लक्ष्मी नारायण सिंह। वे बनारस में ही पले बढ़े और तबला वादन की शिक्षा ली। उन्होंने फ्रांस की एक महिला टीना से विवाह किया और दोनों की एक बेटी नारायणी है। लच्छू महाराज ने तबला वादन में न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में ख्याति अर्जित की।
लच्छू महाराज ने बनारस घराने की तबला वादन की परंपरा को एक नई ऊंचाई तक पहुंचाया। जब उन्होंने मात्र आठ साल की उम्र में मुंबई में अपना पहला प्रदर्शन किया था, उस समय तबला के महारथी अहमद जान थिरकवा उनके प्रदर्शन से मंत्रमुग्ध हो गए थे। उन्होंने कहा था, “काश लच्छू मेरा बेटा होता।” लच्छू महाराज ने हिंदी सिनेमा मुगल-ए-आजम और पाकीजा में भी काम किया था। लच्छू महाराज को 1957 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
महाराज को पद्मश्री अवार्ड के लिए भी नामित किया गया था, लेकिन उन्होंने यह सम्मान लेने से इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि मेरे लिए दर्शकों की तालियां ही सम्मान है। लंबे समय तक बीमारी के बाद 72 वर्ष की आयु में 27 जुलाई 2016 को वाराणसी में लच्छू महाराज का निधन हो गया।


लच्छू महाराज ने अपने पिता वासुदेव महाराज से संगीत की शिक्षा हासिल की और बचपन से ही मंच पर प्रदर्शन करने लगे थे। वह दुनिया भर में मंच पर एकल तबला वादन कर अपना लोहा मनवाया था। कई बार मंच पर लच्छू महाराज के साथ प्रस्तुति देने वाली प्रख्यात ठुमरी गायिका गिरिजा देवी ने दावा किया था कि लच्छू महाराज घंटों तक नयी गत और टुकड़ा लगाते थे।
लच्छू महाराज अपने मन के मालिक थे। उन्होंने जीवनपर्यंत कभी किसी के दबाव में काम नहीं किया। उन्होंने बॉलीवुड में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। लच्छू महाराज ने कई प्रसिद्ध फिल्मों के लिए कोरियोग्राफी भी की है। इनमें से 'महल (1949)', 'मुगल-ए-आजम (1960)', 'छोटी छोटी बातें (1965)' और 'पाकीजा (1972)' जैसी कालजयी फिल्में हैं।
लच्छू महाराज ने अपना पहला परफॉर्मेंस महज 8 साल की उम्र में मुंबई में दी थी। आपातकाल के दौरान उन्होंने जेल के अंदर विरोध के लिए तबला बजाया था। उन्होंने पद्मश्री सहित कई सम्मान को ग्रहण करने से इनकार कर दिया था। लच्छू महाराज पूर्वी राग के अलावा 4 तबला घरानों की तबला शैली में भी निपुण थे। देश ही नहीं दुनिया के कई बड़े मंच पर उन्होंने तबला वादन से लोगों का दिल जीता। लच्छू महाराज ने कभी किसी की फरमाइश पर तबला नहीं बजाया।
करीब चार वर्ष से लच्छू महाराज के साथ छाया की तरह रहने वाले उनके चहेते नेपाली शिष्य दीपक ने कई बार अस्पताल जाने के लिए कहा, मगर उन्होंने उसे चुप करा दिया। 27 जुलाई को उन्होंने भोगाबीर वाले आवास से दाल मंडी जाने के लिए तैयारी की। घर से निकले तो सीने में तेज चुभन होने लगी। पीठ में भी तेज दर्द उठ गया। चिकित्सक से कहकर किसी तरह उन्हें एक इंजेक्शन लगवाया गया, लेकिन अपनी जिद के धनी लच्छू महाराज अस्पताल तब भी नहीं गए। आखिर 28 जुलाई को हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
19 जुलाई को गुरु पूर्णिमा पर उनके आवास पर शिष्यों का जमावड़ा लगा। उन्होंने शिष्यों को आशीर्वाद दिया और ईमानदारी से अभ्यास करने की सीख दी। सासाराम, बिहार के कुछ शिष्यों के आग्रह पर 21 जुलाई को वे गुरु पूर्णिमा के कार्यक्रम में वहां गए। 22 जुलाई की शाम को बनारस लौटे तो बुखार आ गया। 23 जुलाई को दिन भर वह बुखार में तपते रहे, लेकिन अस्पताल नहीं गए। बुखार उतरा, तो उनकी पुरानी दिनचर्या फिर शुरू हो गई। 26 जुलाई को उनकी सांस अचानक तेज चलने लगी।
तबले पर लच्छू महाराज की उंगलियों से निकलते ‘ धिर...धिर...तिटकत’ और ‘ताक...धिन...धिन्ना’ के बोलों को आज तक कोई तबला वादक कॉपी नहीं कर पाया। ‘ना धिं धिं ना...’ के बादशाह अनोखेलाल मिश्र के बाद खड़ी उंगली के बोल का जादू सिर्फ लच्छू महाराज के ही पास था। ठुमरी गायक छन्नूलाल मिश्र कहते हैं, ‘उनकी उठान में जो जान थी, वह किसी दूसरे कलाकार में नहीं थी।’
एक बार एक बड़े संगीतकार अपने बेटे को लेकर उनके पास आए। बोले, बस इतना सिखा दीजिए कि अपनी आजीविका चला सके। इतना सुनते ही लच्छू महाराज खफा हो गए। बोले, संगीत साधना है और संगीतकार को लौटा दिया।
नारियल स्वभाव की-सी अड़ियल शख्सियत लच्छू महाराज की तुनक-मिजाजी के किस्से मशहूर हैं। एक बार उन्हें आकाशवाणी में तबला वादन के लिए बुलाया गया। उन्हें बुलाने वाले केंद्र निदेशक सिर्फ पांच मिनट विलंब से पहुंचे तो देखा कि लच्छू महाराज कार्यक्रम में शिरकत किए बिना ही वापस जा चुके थे। विश्वविख्यात संकट मोचन संगीत समारोह में लच्छू महाराज को तबला वादन के लिए बुलाया गया। वहां तबला बजाते-बजाते अचानक फट गया। दूसरा तबला लाने में देरी हुई तो लच्छू महाराज बीच में ही उठकर चले गए।
फक्कड़ मिजाजी का चोला पहनने वाले लच्छू महाराज ने पद्मश्री सम्मान तक ठुकरा दिया। 1992 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व वाली सरकार आई, तब उनको पद्मश्री के लिए नामित किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के अधिकारी को इस सिलसिले में दिन के 11 बजे दाल मंडी स्थित आवास पर आना था, लेकिन जब वह पहुंचे तो दोपहर के दो बज चुके थे। उस समय महाराज अपने शिष्यों को तबले की तालीम दे रहे थे। जब अफसर के आने की बात उनको बताई गई तो उन्होंने उसे हवेली की सीढ़ी चढ़ने से मना कर दिया। अधिकारी को नीचे से ही बैरंग लौटा दिया गया। चंद्रशेखर से उन्होंने इसकी चर्चा तक कभी नहीं की, जबकि वे उनके करीबियों में थे। अलबत्ता, उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था।
तबले के चार घरानों- अजराड़ा, बनारस, फर्रूखाबाद और लखनऊ घराने के बाज (बोल और विशेषता) पर लच्छू महाराज का अधिकार था। 71 वर्ष की उम्र में भी उनके पास रियाज था और तैयारी भी। वे बनारस घराने के प्रसिद्ध तबला वादकों- अनोखे लाल, पद्मभूषण सामता प्रसाद गोदई महाराज, पद्मविभूषण किशन महाराज की परंपरा के अंतिम कलाकार थे, जिनकी उंगलियों में जादू-सा असर था और संगीत की दुनिया में दबदबा भी।
ताल गुरु लच्छू महाराज के पास पांच हजार से अधिक गत-फर्द का संग्रह था। आखिर उनके पिता वासुदेव सिंह ने विभिन्न घरानों के तबला वादकों की देखभाल करते हुए उनके घरानों की बंदिशों को इकट्ठा कर लच्छू महाराज को दिया था। वे गत-फर्द और उठान के श्रेष्ठ कलाकार थे। बढ़ैया की उठान के अलावा गत, फर्द के बोल जब उनकी उंगलियों से तबले पर निकलते थे तो पूरी महफिल झूम जाती थी और ताल के शास्त्री उसको याद करने लग जाते थे।
एकल तबला वादन में तो लच्छू महाराज को महारत हासिल थी ही, गायन और नृत्य में भी वे निपुण थे। शास्त्रीय गायक राजन-साजन मिश्र बताते हैं, ‘उनकी थाप जब तबले पर पड़ती तो तबला मानो बोल उठता था। हमें याद है करीब चार दशक पहले बिहार के सासाराम का वह आयोजन। वहां हम दोनों भाइयों के साथ लच्छू महाराज भी मंच पर थे। स्वर के साथ मानो तबला भी बोल रहा था। कई बार तबले की ठनक पर खूब तालियां बजीं।’
लच्छू महाराज के करीबी शिष्य और प्रसिद्ध तबला वादक अशोक पांडेय कहते हैं, ‘ताल की अनूठी बारीकियां न तो संरक्षित की जा सकीं और न ही कोई सीख सका। लच्छू
महाराज जैसी थाप देने वाला फक्कड़ मिजाज न कोई था और न कोई होगा।’
जीवन के अंतिम दो दशकों में उन्होंने अपनी शर्तों की छांव तले अनजान ढंग से जिंदगी गुजारी और वैसा ही अपने शिष्यों को भी बताया-सिखाया। गिनती के कुछ संगीत मित्रों और समर्पित शिष्यों ने उन्हें कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वे अकेले हैं, तो उन्होंने भी यह भ्रम बनाए रखा कि उनके बीच वे बहुत खुश हैं और अकेले नहीं हैं। तभी तो जीवन के आखिरी दिनों में लगातार कष्ट सहने के बावजूद उन्होंने अपनी पीड़ा को न तो किसी शिष्य से साझा किया और न ही अस्पताल गए।
असहमति को शिल्प से सोचने का उनका अपना कलात्मक नजरिया था। वे जीवनपर्यंत संगीत में विपक्ष की भूमिका निभाते रहे। सत्ता के करीब तबला वादकों को खरी-खोटी सुनाते रहे। लच्छू महाराज ने उस्ताद बड़े गुलाम अली खां से लेकर सितार के शहंशाह भारत रत्न पंडित रविशंकर समेत देश-दुनिया के प्रख्यात कलाकारों के साथ संगत की और कई बॉलीवुड फिल्मों के लिए भी ताल बजाई, मगर कभी आत्मविज्ञापन नहीं किया।
पिता की ही तरह क्रांतिकारी विचार अपनाते हुए लच्छू महाराज ने फ्रांसीसी महिला टीना के साथ विवाह रचाया। उनकी बेटी चंद्रा नारायणी अपनी मां के साथ स्विट्जरलैंड में रहती हैं। 1975 में आपातकाल के दौरान जॉर्ज फर्नांडिस और देवव्रत मजूमदार जैसे दिग्गज समाजवादी नेताओं को लच्छू महाराज ने जेल में तबला बजाकर सुनाया। वास्तव में, उन्होंने ऐसा करके आपातकाल का अपने ढंग से विरोध किया था। उन्होंने अपनी ताल में कभी किसी प्रभुत्वकारी शिल्प को स्वीकार नहीं किया।
16 अक्तूबर, 1944 को जनमे लच्छू महाराज के जीवन की उठान तो अच्छी रही, लेकिन 1970 से 80 के दशक में विलंबित एकताल ही बजी। पहले पिता और फिर मां की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया, तिस पर स्थानीय संगीत बिरादरी की बेरुखी ने उन्हें अज्ञातवास पर जाने को विवश कर दिया। 1998 में स्पीक मैके के कार्यक्रम में सोलो तबला वादन से उन्होंने वापसी की और शाहिद परवेज के साथ संगत करके संगीत के शास्त्रियों की दुनिया में फिर छा गए। सिद्ध किया कि उनके पिता वासुदेव सिंह ने उनके और बनारस के केदार भौमिक के हाथों में अपनी विरासत को यों ही नहीं थमाया।
लच्छू महाराज गत-फर्द और उठान के श्रेष्ठ कलाकार थे। बढ़ैया की उठान के अलावा गत, फर्द के बोल जब उनकी उंगलियों से तबले पर निकलते थे तो पूरी महफिल झूम जाती थी और ताल के शास्त्री उसको याद करने लग जाते थे। एकल तबला वादन में तो लच्छू महाराज को महारत हासिल थी ही, गायन और नृत्य में भी वे निपुण थे।
बनारस घराना तबला वादन परंपरा की छह सबसे आम शैली में से एक है, जिसमें लच्छू महाराज को महारत हासिल थी। इस शैली को करीब 200 साल पहले विकसित किया गया था। तबला वादक के रूप में ख्याति प्राप्त करने की वजह से ही बाद में उनका नाम लच्छू महाराज पड़ा। वे पूर्वी राग के अलावा चार तबला घरानों की तबला शैली में भी निपुण थे।