आज मन में विचार आ रहा है। बार-बार विचार आ रहा है कि जनतंत्र में जनमत के मूल्य के बारे में कुछ कहूं। मगर बड़ा कठिन है। कुछ भी कह पाना बेहद मुश्किल है। जब-जब कुछ कहने की कोशिश करता हूं, कुछ भी कह पाने में लाचार हो जाता हूं। अपनी लाचारी पर मन में बड़ी मरोड़ उठती है। सोचता हूं, क्यों लाचार हो जाता हूं? क्या भाषा पर मेरी पकड़ ढीली पड़ गई है? शायद नहीं। क्या अपने आसपास जो घटित हो रहा है, उसकी सच्चाई को नहीं देख पा रहा हूं? नहीं ऐसा नहीं है। फिर क्या है? क्या बात है? जब परेशानी पसीने-पसीने कर देती है, तुलसीदास याद आते हैं। तुलसीदास कहते हैं कि- वह मुझसे कहा नहीं जाता है। कहना चाहता हूं, कोशिश करता हूं, मगर कहना हो नहीं पाता। ‘सो मो पहं कहि जात न कइसे/ साम बनिक कहं भनि गुन जइसे।’ मैं ठहरा साग-भाजी का रोजगारी खटिक, कुजड़ा, गरीब, दरिद्र, भुखमरा। चार पैसे को लाख समझने वाला। मैं भला मणि-मानिक की कीमत का अंदाजा क्या लगाऊं? कैसे लगाऊं? नहीं, नहीं, नहीं हो पाएगा। मुझसे इसका मूल्य नहीं कहा जा सकेगा। बिल्कुल वही हालत अपनी भी है। मैं ठहरा, जनतंत्र का एक अदना-सा जन। जन, जिसके लिए भर पेट भोजन ही वैभव की परिसीमा है। सिर पर छत की छाजन ही महत्त्व है। हमारे जनतंत्र का जन कुजड़ा है, खटिक है। वह जनमत की कीमत नहीं जानता। उसके लिए जनमत साग-भाजी है। सबसे सस्ती चीज। मगर नहीं। जनमत साग-भाजी नहीं है। सचमुच में वह मणि-माणिक है। उसकी कीमत वे जानते हैं, जो रत्नपारखी हैं। जनमत की कीमत वे जानते हैं, जिनकी आंखों में सत्ता के सिंहासन पर बैठने का सपना सजता है। जनमत का मूल्य वे जानते है, जिनको हुकूमत की विरासत का बुलावा उनकी ड्योढ़ी पर दिन-रात दस्तक देता है। ऐसे लोग बहुत थोड़े-से हैं। असल भाग्यवान आदमी होते ही बहुत थोड़े-से हैं।

भारतीय जनतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहां जनमत की कीमत जन को नहीं मालूम है। मत उसके पास है, उसके हाथ में है, मगर जो चीज उसके हाथ में है, उसकी कीमत का उसे पता नहीं है। जिसको मत देना है उसे मत का मूल्य मालूम नहीं। मत का मूल्य उसे मालूम है, जिसे मत लेना है। कैसा एकतरफा व्यापार है। सारा का सारा लाभ लेने वाले के हिस्से में। लेने वाला साग-भाजी के मोल मणि-माणिक ले लेता है। देने वाला साग-भाजी के भाव माणिक दे देता है। लेने वाले लाखों में एक-दो हैं। देने वाले करोड़ों-करोड़ हैं। आज जो हमारा लोकतंत्र है यही है। जिस स्थिति में है, यही है। हीरा है, कुजड़ों के पास है। कुजड़ों को पता नहीं है कि उनके पास जो चीज है, बेशकीमती है। उनके लिए वह मामूली है। उनके लिए उनकी कोई अहमियत नहीं है। उनको तो दे ही देना है। उसको भला वे न दें तो रख कर क्या करेंगे। जन के लिए मत का कोई मूल्य नहीं है। कोई कीमत नहीं है। मगर नहीं, मत का मूल्य है। मत बहुमूल्य है। इतना बहुमूल्य है कि वह कुछ दे सकता है। सर्वोच्च पद, सर्वोच्च प्रतिष्ठा, सर्वोच्च अधिकार मत में देने की शक्ति है। इस मूल्य को वे जानते हैं, जिन्हे मत लेना है। जिनको मत लेना है, वे मत के मूल्य को लेकर गंभीर मंथन करते हैं। गोपनीय मंथन करते हैं। सस्ती से सस्ती कीमत पर मत को अपने हक में ले लेने की सारी जुगत वे जी-जान से करते हैं। फिर उस कीमत को भाषा की जालसाजी में बांध कर सार्वजनिक करते हैं। उनकी भाषा जीने-खाने के जुगाड़ में उलझे साग-भाजी उगाने वाले कुजड़ों की समझ के बाहर होती है। वे भाषा के जाल में फंस जाते हैं। फंसना ही उनकी नियति है। फिर क्या? फिर मत चला जाता है। मत जिनके पास चला जाता है, उन्हें मतवाला बना देता है। वे मतवाला बन जाते हैं। फिर उनका ही मत समूचे देश का मत मान लिया जाता है। वे देश के पर्याय बन जाते हैं।

हमारा लोकतंत्र बड़ा अजीब है। इसने साग-भाजी के व्यापारियों के हाथ में मणि-मानिक रख दिया है। मगर उन्हें तो इसका पता ही नहीं है। इनके लिए तो मणि-मानिक भी साग-भाजी जैसा ही है। अब मणि-मानिक के मोल का उन्हें क्या पता! पता तो कुछ गिने-चुने लोगों को है। जिनको पता है, वे हर तरह की जुगत लगाते हैं। किसी न किसी भांति वे उनके हाथों से उन्हें हड़प ही लेते हैं। कौड़ियों के मोल हथिया लेते हैं। फिर क्या? फिर तो पद, प्रतिष्ठा ही नहीं, सारे के सारे अधिकार उनकी मुट्ठी में आ जाते हैं। जो जी चाहे करें! कौन रोकता है? कौन रोक सकता है। हमारे जनतंत्र में तंत्र तो है, मगर इस विराट तंत्र में जन कहीं नहीं है। यह तंत्र जन के लिए तो कतई नहीं है। है तो जन के नाम पर ही, मगर जन उसमें नहीं है। वह जन का नहीं है। फिर भी कहा जाता है। कहने के लिए है।
कहने के लिए तो पता नहीं क्या-क्या कहा जाता है। जो कुछ भी कहा जाता है, कहा जा रहा है, सिर्फ कहने के लिए कहा जा रहा है। जो कहा जा रहा है, तनिक भी विश्वसनीय नहीं है। हमारे समय में हमारी पूरी की पूरी भाषा ही अविश्वसनीय हो गई है। शब्दों से उनके अर्थ पता नहीं कबसे उन्हें छोड़ कर जाने कहां चले गए हैं। शब्दों के पास फुर्सत नहीं है, अपने अर्थ को तलाशने की। अर्थ जहां भी हैं, शब्दों से बिछुड़े हुए पड़े हैं। अब मतदान को ही ले लीजिए। यह हमारे मौजूदा लोकतंत्र का सबसे बड़ा हास्यास्पद शब्द है। मगर फिर भी हम इसकी गरिमा के गान गाते हैं।

गला फाड़ कर गाते हैं। इसकी महिमा की पूजा करते हैं। आरती उतारते हैं। मत नाम की कोई चीज कायदे से भारतीय जन के पास है ही नहीं। उससे वह परिचित ही नहीं है। उसका सृजन तो चुनाव के समय हमारे राजनीतिक दल करते हैं। वह भी सिर्फ चुनाव के समय तक के लिए। इस सृजन कार्य में जो उपादान होता है, वह कोई ठोस चीज नहीं होती। वह केवल हथकंडा होता है। झूठे-सच्चे वादे होते हैं। छोटे-छोटे प्रलोभन होते हैं। जैसे छोटे-छोटे अबोध बच्चों को ललचा कर उनके हाथ में पड़ी हुई कोई काम की चीज सयाने लोग अपने कब्जे में कर लेते हैं, वैसे ही हमारे जन से मत हमारे राजनीतिक दल अपने पक्ष में हस्तगत कर लेते हैं। दान जैसी कोई बात तो है ही नहीं। दूर-दूर तक नहीं है। याचनाओं से भरा हुआ जन भला कौन-सा दान कर सकता है। कैसा दान कर सकता है। मगर फिर भी हमारी भाषा में मतदान का महिमामंडन वैसा ही है। सच है। बिल्कुल सच है। जनतंत्र में जन के मत की, दान की महिमा बड़ी ऊंची है। वंदनीय है। पूजनीय है। मगर मैं क्या करूं? कैसे महिमा का बखान करूं? अपनी तो शक्ति ही नहीं। सामर्थ्य ही नहीं। मैं तो ठहरा साधारण आदमी। साग-भाजी उगाने वाला। धान-गेहूं बोने-काटने वाला। संतोष सौहार्द और संघर्ष के गीत गाने वाला। मैं भला कीमती-बेशकीमती चीजों का मूल्य कैसे जान सकता हूं। मन तो ललचता है। खूब जोर मारता है। मैं भी जान पाता! मैं भी कह पाता! मगर नहीं। मुझसे वह कहने में नहीं आता- ‘सो मो पहं कहि जात न कइसे/ साग बनिक कहं मनि गुन जइसे।’ नहीं, नहीं मैं नहीं कह पाऊंगा। अपने जनतंत्र में जन को जनमत का मूल्य बता पाना बड़ा मुश्किल है। हमारे पास हमारे जन के पास मत है। वे जिस कीमत पर चाहेंगे, हम दे देंगे। उनको लेना है, वे लेंगे। फिर, उनकी मर्जी। वे जो चाहे करें। जैसा जी में आए, वैसा करें। उनकी खुशी। हमारी खुशी तो उनकी खुशी में ही है।