उत्तराखंड में अनियोजित प्रबंधन और निहित स्वार्थों के चलते आज पहाड़ की पहचान और वजूद दोनों संकट में हैं। साल-दर-साल आग लगने की घटनाओं से यहां के जंगल और पहाड़ों के ऊपर मंडरा रहे खतरों की आहट को महसूस किया जा सकता है। अंग्रेज पहाड़ के जंगलों को ‘हरा सोना’ मानते थे। अंग्रेजी शासनकाल में पहाड़ के भीतर यातायात और संचार का विकास सामरिक जरूरतों और यहां की अकूत वन संपदा के दोहन के नजरिए से ही हुआ। पर यह भी सच्चाई है कि अंग्रेजों ने एकतरफा दोहन की नीति नहीं अपनाई। अंग्रेज वनों के दोहन के साथ संरक्षण पर भी उतना ही ध्यान देते थे। अंग्रेजी शासनकाल में वनों की निगरानी और हिफाजत के लिए सुविचारित और पुख्ता व्यवस्था थी। ब्रिटिश शासनकाल में कुमाऊं के घने जंगलों में छह फीट चौड़ी कच्ची सड़कों का जाल बिछाया गया था। ये वन मार्ग अग्निरोधी पंक्ति का काम करते थे। गरमी शुरू होने से पहले इन मार्गों की अनिवार्य रूप से सफाई करा ली जाती थी। मार्च के महीने तक संपूर्ण जंगल में ‘फायर लाइन’ काट ली जाती थी। नियमित फुंकान होता था। गरमी के मौसम में चार महीनों के लिए फायर वाचरों की नियुक्ति की जाती थी। जंगलों में जगह- जगह वन विश्राम गृह बनाए गए थे। तब वनाधिकारी वनों की निगरानी के वास्ते इन बंगलों में नियमित शिविर किया करते थे। वन कर्मचारियों के लिए वनों के नजदीक ही वन चौकियां बनाई गई थीं। वन विभाग का पूरा अमला आज की तरह शहरों में नहीं, बल्कि हमेशा जंगलों या उनके आसपास ही रहा करता था।

आजादी के बाद 1949 में पहाड़ के सभी जंगल उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन आ गए। 1952 में पहली वन प्रबंध नीति बनी। आजाद भारत में भी अंग्रेजों की वन नीति को ही आगे बढ़ाया गया। सरकार हर साल पहाड़ के जंगलों की सार्वजनिक नीलामी करती थी। उत्तर प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ के वनों की नीलामी से आता था। जंगल सरकार और ठेकेदारों की जागीर बन कर रह गए थे। इसी बीच 26 मार्च, 1974 को जोशीमठ के रैणी गांव की गौरा देवी और दूसरी महिलाओं ने अपनी जान की बाजी लगा कर पेड़ों को कटने से बचाने का बीड़ा उठाया। पेड़ों की रक्षा के लिए ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों को अपने आंचल में ले लिया। पेड़ों से चिपक गर्इं। पेड़, जंगल और पर्यावरण के संरक्षण का यह अनोखा अंदाज ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में विख्यात हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार 1977 तक पहाड़ों के वनों की खुलेआम नीलामी करती रही। 1977 में पहाड़ के लोग वनों की सार्वजनिक नीलामी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। जनता के विरोध को नजरअंदाज कर सरकार वनों की नीलामी पर आमादा थी। 27 नवंबर, 1977 को जब नैनीताल के शैलेहॉल में पहाड़ों के जंगलों की सार्वजनिक बोली लग रही थी, इसी दरम्यान ऐतिहासिक नैनीताल क्लब में आग लग गई। इसके बाद वनों की नीलामी का सिलसिला रुक गया। नतीजतन 1980 में नया वन संरक्षण अधिनियम बना। 1981 में एक हजार मीटर की ऊंचाई पर व्यावसायिक रूप से पेड़ काटने पर पाबंदी लगा दी गई। 1996 के गोंडावर्मन बनाम भारत सरकार जनहित याचिका के तहत गठित विशेषज्ञ समिति ने वनों का पातन- चक्र दस वर्षीय कर दिया, जिससे दावानल की मारक क्षमता बढ़ने की आशंका जताई गई। उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53,483 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें करीब 71 फीसद वन क्षेत्र है। इसमें विभिन्न वर्गों में वगीकृत सभी प्रकार के वन शामिल हैं। इसमें से 24,496 वर्ग किलोमीटर इलाका वनाच्छादित है। राज्य में वन विभाग के अधीन 24,418 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। 7,350 वर्ग किलोमीटर जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। राजस्व विभाग के अधीन 4,768 वर्ग किलोमीटर में सिविल सोयम वन हैं। जबकि नगर पालिका और छावनी क्षेत्र में 156.44 वर्ग किलोमीटर निजी वन हैं। जंगलात महकमे के नियंत्रण वाले वनों में से 31,3054.20 हेक्टेअर में साल का जंगल है। 38,3088 हेक्टेअर में बांज के वन हैं। 39,4383 हेक्टेअर में चीड़ के जंगल हैं। 61,4361 हेक्टेअर में मिश्रित जंगल हैं। जबकि तकरीबन 22.17 फीसद क्षेत्र वन बंजर या खाली है। चीड़ के जंगल आग के मामले में अत्यंत संवेदनशील होते हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां वनाग्नि के लिए आग में घी का काम करती हैं।
अलग राज्य गठन से पहले यहां राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के सापेक्ष 64.79 फीसद वन क्षेत्र था। उत्तराखंड वन सांख्यिकी 2012 .13 के आकड़ों के मुताबिक अलग राज्य बनने के बाद यहां के भौगोलिक क्षेत्रफल और वनाच्छादित क्षेत्र दोनों में बढ़ोत्तरी हुई है। वन क्षेत्र 64.79 से बढ़ कर करीब 71.05 फीसद हो गया है। वन विभाग का दावा है कि राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में करीब 1,141 वर्ग किलोमीटर वनाच्छादित क्षेत्र बढ़ा है।

पहाड़ के जंगलों में हर साल आग लगती है। हर साल हजारों हेक्टेअर जंगल दावानल की भेंट चढ़े जा रहे हैं। लेकिन, जंगल की आग को आर्थिक और पारिस्थितिकी के नजरिए से नहीं देखा जाता। अलग राज्य बनने से 2016 तक उत्तराखंड में दावानल की अनगिनत घटनाएं हुर्इं, जिनमें करीब 44,000 हेक्टेअर जंगल प्रभावित हुए हैं। इसमें बेहिसाब पेड़-पौधे,वनस्पतियां,जड़ी-बूटी और जंगली जीव-जंतुओं को भारी नुकसान पहुंचा है। कुमाऊं मंडल में जंगलों में आग लगने की चार हजार से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें करीब 6,670 हेक्टेअर जंगल जल कर स्वाहा हो गए। जबकि सिविल पंचायतों के वनों में हुई 1,333 घटनाओं में चार हजार हेक्टेअर से ज्यादा वन क्षेत्र दावानल के हवाले हो गया।
दरअसल, उत्तराखंड के वन महकमे के पास वनाग्नि के प्रबंध के लिए तकनीकी प्रशिक्षण की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। 1985 में कुमाऊं मंडल में विदेशी आर्थिक सहायता से ‘मॉडर्न फायर प्रोजेक्ट’ शुरू हुआ था। करोड़ों रुपए की इस वन अग्निशमन परियोजना में वन विभाग के रामनगर, नैनीताल, हल्द्वानी आदि सात डिवीजन शामिल किए गए थे। परियोजना के तहत एक हेलीकॉप्टर, दर्जनों अग्नि शमन गाड़ियां, टैंकर आदि तमाम उपकरण खरीदे गए। वॉच टॉवर बने। जंगलात विभाग के वन संरक्षक को परियोजना का निदेशक बनाया गया। डिवीजनल फारेस्ट अफसर को अग्नि शमन अधिकारी बनाया गया था। कई अधिकारी जंगल की आग बुझाने का प्रशिक्षण लेने अमेरिका भेजे गए। छप्पन लोगों का ‘अग्नि संगठित दल’ बनाया गया। इन्हें वनाग्नि से निपटने के लिए बाकायदा छह महीने का प्रशिक्षण दिया गया। इस दौरान अधिकरियों ने हेलीकॉप्टर से जम कर हवाई उड़ानें भरीं। खूब सेमिनार हुए। यह योजना करीब दस साल चली, फिर अचानक बंद हो गई। वन विभाग के अधिकारीगण वापस विभाग में लौट गए। परियोजना के दूसरे कर्मचारियों को भी वन विभाग में समायोजित कर लिया गया। जंगलों को आग से बचाने के लिए प्रशिक्षित इन परियोजना कर्मचारियों को आज वन विभाग में दोयम दर्जे की हैसियत हासिल है।

अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सियासी नजरिए से यहां के वनों का खूब प्रचार हुआ। राजनेता वनों के एवज में ‘ग्रीन बोनस’ की मांग करते रहे हैं। पहाड़ की सियासत में जल,जंगल और जमीन सर्वदलीय और सार्वभौमिक नारा है। पर इनकी असल हालत से सभी नावाकिफ हैं। अलग राज्य बनने के बाद जल, जंगल और जमीन को संरक्षित रखने की दिशा में कोई ईमानदार पहल कहीं से नहीं हुई। नतीजतन यह एक राजनीतिक मुद्दे से आगे नहीं बढ़ पाया। उत्तराखंड में वन अधिकारियों की सख्या में तो इजाफा हुआ है, लेकिन वनों की स्थिति पहले के मुकाबले और बदतर हो गई है। उत्तर प्रदेश में जहां एक प्रमुख वन संरक्षक पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी संभालते थे, अलग राज्य बनने के बाद इस छोटे से प्रदेश में प्रमुख और मुख्य वन संरक्षक स्तर के करीब ढाई दर्जन आला अफसर हैं। इस छोटे से राज्य में भारतीय वन सेवा के तकरीबन एक सौ अधिकारी तैनात हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर कर्मचारियों की कमी है। फील्ड-स्टाफ में कई दशकों से कोई इजाफा नहीं हुआ है। नतीजतन वन संपदा की चोरी भी खूब होती है। गर्मियों की आग अवैध दोहन और चोरी के सारे सबूत मिटा देती है। उत्तराखंड का वन विभाग वनीकरण के नाम पर सालाना करोड़ों रुपए खर्च करता है।

दिलचस्प तथ्य यह है कि रोपे गए पौधों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। दावानल के बाद कथित वृक्षारोपण की पुष्टि नहीं की जा सकती है। कुलमिलाकर पहाड़ के जंगलों का बुरा हाल है। जंगलों का क्षेत्रफल और वनावरण कागजों में भले ही बढ़ा हो, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। बेशक वन भूमि बढ़ी है, पर जंगल सिमट रहे हैं। पहाड़ के ज्यादातर इलाकों में ब्रिटिश राज में बने वन मार्ग और वन सीमा स्तंभों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। पहाड़ में राजस्व गांवों और जंगलों की सीमा पर लगे ज्यादातर वन सीमा स्तंभ गायब हैं। जंगलों को अवैध दोहन और आग से बचाना वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है। इस रिश्ते को बहाल करने के लिए सरकार और खुद वन महकमे को जंगलों के प्रति संवेदनशील होने और दिखने की जरूरत है। फिलहाल दूर-दूर तक इसके आसार नजर नहीं आ रहे हैं। ०