कृष्णा शर्मा

मां कहां हो? सारा घर ढूंढ़ लिया। पापा कबसे बुला रहे हैं। चलो नीचे।’
रत्ना की आवाज उसके कानों में कील-सी चुभ रही थी। पर क्या करें, कील को तो निकाल कर फेंक सकते हैं, पर ये तो अपने बच्चे हैं! उस पर प्यारी बेटी। बेटी कहते ही कैसा कैसा तो मन हो जाता है! कोमल-सा, नर्म-सा, मुलायम शब्द। खैर, मैं दौड़ती-सी नीचे भागी। पीछे-पीछे रत्ना बड़बड़ाती-सी, ‘पहले मुझे बताओ, क्या कर रही थीं? ऊपर मंदिर में नहीं, बाथरूम में नहीं।’ अब बोलने की बारी मेरी थी, ‘क्यों? मैं हर जगह बता कर बैठूं? घर में क्या दो ही जगहें हैं मेरी- बाथरूम और मंदिर? सब बना कर, मेज सजा कर गई थी, फिर भी इतना शोर!’
देखा, नीचे मेज के पास रजत खड़े हंस रहे हैं। ‘अच्छा, अभी मां-बेटी का विवाद खत्म नहीं हुआ।… और रत्ना तुमसे एक गिलास पानी मांगा था और दौड़ती ऊपर चली गर्इं। ये नहीं कि रसोई से पकड़ा देतीं।… अच्छा चलो, तुम दोनों अपनी लड़ाई कायम रखो, मैं चला आॅफिस। कहीं जाना हो तुम दोनो को, तो गाड़ी भेज दूंगा। फोन कर देना।’
ये अपना थैला उठा कर ऑफिस चले गए। ब्रीफकेस के स्थान पर आजकल ये जूट का थैला ले जाते हैं। उसमें फाइलें ज्यादा आ जाती हैं, ऐसा इनका कहना है। बाकी रत्ना बुरी तरह झेंप गई थी। उसे सामान्य करने में काफी समय लगा। मां ‘सॉरी’ कह कर वह अपने कमरे में चली गई। नाश्ता मेज से समेट कर मैं भी अपने कमरे में जाकर लेट गई।

घर के प्रति सुबह की ड्यूटी पूरी जो हो गई थी। सुबह उठना, घर की प्रत्येक वस्तु की साफ-सफाई, इनकी तीन-चार कप चाय बनाना। नहाना और फिर पूजा। पूजा में समय ज्यादा लग जाता है। कई बार नाश्ता देर से हो पाता है। वैसे नाश्ता सब बारी-बारी करते हैं। पहले रत्ना, फिर ये और मैं। कभी साथ, कभी अलग। इस बीच में मुझे दस मिनट निकालने का चस्का भी आजकल लग गया है।
अपनी दिनचर्या पर विचार कर रही थी कि फिर रत्ना आई, ‘मां मैं आज जरा अपूर्वा के पास हो आऊं! पापा से कहो न, गाड़ी भेज दें।’ ‘पर, बेटा अभी पिछले हफ्ते ही तो मिली थी उससे।’ मुझे थोड़ी खीझ भी हुई। ‘मैं जा रही हूं न बाहर, जाने कब मिलना हो। प्लीज, प्लीज!’ वह कुछ ज्यादा ही लाड़ में आ रही थी। मैंने हथियार डालते हुए कहा, ‘अच्छा, अच्छा फोन करती हूं, पर रात से पहले आ जाना। पापा गुस्सा करेंगे।’
वह ओके, ओके कह कर भाग गई। अब मुझे उठना ही था। खाना बनाने वाली आती होगी। जल्दी से सब्जी वगैरह निकाल कर रखनी होगी। नहीं तो दस बातें उसकी सुनो- ‘क्या मैडम, पहले से सोचा करो न, दो घर और भी जाना है। फिर अपने घर का काम।’ और न जाने क्या-क्या।
अभी छह बजने में तो देर है। इतने में मैं दोपहर के खाने के बाद सो लूंगी। सही में, आदमी अगर वक्त का सही ढंग से इस्तेमाल करे, तो क्या नहीं कर सकता।
आज तो निश्चित ही था कि रत्ना आठ बजे से पहले क्या ही आएगी। अपूर्वा उसकी बचपन की सहेली है। आसानी से कहां आने देती है। और रजत तो ऐसा टीवी के सामने बैठता है कि खाने के समय ही उसे होश आता है कि बीवी घर में है या नहीं। नहीं तो वह, उसका टीवी और उसका टीवी का रिमोट। बस ये मिल जाएं, बाकी घर में शांति रहे किसी भी कीमत पर।

मैंने आराम से शीशे के सामने बैठ कर चेहरे का मुआयना किया देखा स्किन थोड़ी डल लग रही है। फटाफट नीचे उतरी और टमाटर चीनी का पेस्ट बनाया। पिछले हफ्ते ही अखबार में पढ़ा था- हफ्ते में एक बार चेहरे पर लगाओ और फिर स्किन की रौनक देखो। कर के देखती हूं। नहीं, पहले रत्ना को जाने दूं, उसे किसी चीज की जरूरत न हो। अपना काम तो बाद में भी हो सकता है। अभी क्या जल्दी है। देखा, रत्ना लगभग तैयार है। हां कमरा, बाथरूम पूरा फैला पड़ा है। मैं जल्दी, जल्दी इधर-उधर फैली चीजों को यथास्थान रखती और उससे उसका प्रोग्राम भी पूछती जाती हूं। कब तक लौटोगी आदि। गाड़ी तक उसे छोड़ कर आने के बाद थक जाती हूं और फिर लेट जाती हूं। अगले बरस पचपन की हो जाऊंगी। पर लगता है जैसे कल ही कुछ समझदार हुई। हम जिंदा हैं यह एहसास भी हमें दूसरा ही करवाता है। जब कोई सराहता है, हम पर कोई ध्यान देता है तब लगता है कि हम जिंदा हैं। किसी की आंखों में अपने लिए तरलता देखना हमारे पूरे अस्तित्व का केंद्र बन जाता है।

सोचते-सोचते न जाने कब मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने जाकर बैठ गई। चेहरे पर रह-रह कर तमाम लोगों की आंखें आती गर्इं। चेहरा मेरा था, पर आंखें रजत की थीं। स्निग्ध आंखों में प्यार था, पर अजीब-सी लापरवाही भी थी। निहायत अपनापन था, अधिकार भाव भी था, लेकिन न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि आंखें देख कर भी मुझे देख नहीं रही हैं। मैंने बिलकुल नए ढंग की बिंदी लगाई थी, लेकिन आंखों में कोई हरकत ही नहीं हुई थी। मैं एकदम से उठी और साड़ी बदल कर आई, तो आंखें सिर्फ इतना कह पार्इं- कहीं जा रही हो क्या? मैं एकदम से सन्न रह गई- क्या साथ इतनी लापरवाही भी दे देता है। यह अपनापन है या अजनबीपन- मैं कुछ भी तय नहीं कर पाती। मेरी और बाहर की दुनिया के बीच है एक खिड़की। सड़क पर चलती गाड़ियां, आॅटो रिक्शा और इंसानों का हुजूम देखने में बहुत मजा आता है। जो मुझे नहीं जानते हैं, मैं जिन्हें नहीं जानती, पर वे भी मेरी तरह कुछ समय बिताने पृथ्वी पर आए हैं और मैं भी। इस नाते यह पृथ्वी साथी है हम सबकी। पर हमेशा के लिए किसी की नहीं। कोई तेज चल रहा है, कोई धीरे, तो कोई खुद को घसीटता सा, पर सब चल रहे हैं। कभी देखती हूं, कोई कार चार कारों के बीच में से रास्ता बनाती तेजी से गुजर गई। उस समय सांस मुंह को आ जाती है। थोड़ा-सा अंदाजा गलत हो जाए तो…। पर पता नहीं क्या इमरजेंसी हो या यों ही ‘एडवेंचर’ करने का मन।

कभी-कभी जीवन की एकरसता हमें ऐसा ‘एडवेंचर’ करने को मजबूर कर देती है। कुछ थ्रिल, कुछ नया। दस-पंद्रह मिनट मैं इस खिड़की पर समय जरूर बिताती हूं। ऐसे ही एक दिन बैठी, तो मुझे वह दिखा। दिखा क्या, उसे अपनी खिड़की पर देखते हुए देखा। एकटक। मुझसे कुछ छोटा ही होगा। बेतरतीब से बाल और घनी दाढ़ी। आंखें जैसे नींद से बोझिल, कुछ साहित्यकार, कवि टाइप। आनंद फिल्म के राजेश खन्ना जैसा। मैंने ध्यान नहीं दिया और हट गई। थोड़ी देर में भूल भी गई। पर अंतर्मन में कहीं वह समय, जब उसे देखा था, अंकित हो गया।  अगले दिन उसी समय आंखें खिड़की पर जम गर्इं, पैरों में खुद तेजी आ गई। देखूं, शायद आज भी। बाहर झांका, कोई नहीं था। वही अनजान लोगों का, गाड़ियों का हुजूम। भागते, दौड़ते, चलते, घिसटते। पर जैसे ही हटने लगी, वह दिखा। देखते हुए। वैसा ही लुक कुछ खोजता-सा, पर मुझे देख रहा हो ऐसा नहीं लगा। क्या पता इस जगह इसका कोई रहता हो, जिसे वह खोज रहा हो, पहचानने की कोशिश कर रहा हो। मैंने उसे कभी अपनी ओर देखते नहीं देखा, पर नजर हटाती, तो लगता कि उसकी आंखें मुझ पर ही हैं। एकदम निर्विकार, निर्लिप्त। मुझे उसके चेहरे का कुछ भी याद नहीं रहता, मिलने पर संभवत: कभी पहचान भी न पाती। याद रहतीं तो सिर्फ आंखें- सूनी-सी आंखें, जो कुछ ढूंढ़ रही हों, किसी को पहचानने की कोशिश कर रही हों। पर उसकी वह दृष्टि, मुझे उसी समय वहीं खींच लाती। मैं हैरान थी खुद पर। पर उत्साह था, जिसमें तन-मन सराबोर था। बेबात ही खुश रहने लगी थी।

उस दिन मुझे किसी पार्टी में जाना था रात में। इनकी अधिकतर पार्टियां रात में ही शुरू होती थीं, पर घर से हमें सात बजे निकलना था, तो मैंने इनके और रत्ना के कपड़े निकाल कर रख दिए और खुद जल्दी तैयार हो गई। अपनी छवि को आईने में देख कर खुद ही खुश भी हो ली। संतुष्ट होकर खिड़की के पास गई। मेरी भी निगाह अब अनजान भीड़ में उस अनजान चेहरे को ढूंढ़ रही थी, जो न जाने किस पहचानी खिड़की को तलाशता है। पर आज कुछ अलग हुआ। उसने हाथ से कुछ इशारा किया, खिड़की के थोड़ा और पास आया और अपने शरीर पर हाथ घुमा कर ‘लाइक’ वाला इशारा किया। मैं हैरान रह गई और कुछ डर भी गई। यह कुछ ज्यादा नहीं हो रहा! मैं जल्दी ही खिड़की से हट गई। पर फिर पूरी शाम बहुत खुश रही। रत्ना के शब्दों में ‘आज बहुत चहक रही हो’ पर मैं थोड़ी झेंप गई। मन फिर भी प्रसन्न था। बार-बार अपनी साड़ी को देखती, बालों को ठीक करती। किसी को मैं भी अच्छी लग सकती हूं।
अब मैं बालों को नियमित रूप से कलर करने लगी। खाने का ध्यान रखने लगी। चाल अपने आप थोड़ी तेज हो गई। रत्ना ने लक्ष्य किया और वह खुश भी हुई। वह यही मुझे समझाती रही थी कि आपको क्या हो गया है, अपना ध्यान रखा करो। अभी से खुद को दादी, नानी समझ लिया है। और भी न जाने क्या-क्या।
नियमित रूप से उसी समय खिड़की पर जा बैठती। किसी दिन किसी कपड़े पर उसका मुंह भी बनता, तो वह कपड़ा कामवाली के घर की शोभा बढ़ाता कभी-कभी अकेले में रोती भी। क्योंकि लगता, सबके कुछ न कुछ काम हैं। कुछ जरूरी, कुछ गैर-जरूरी। ऐसा लगता है, मैं ही निरर्थक हूं। करने को मेरे पास बहुत कुछ है, पर न भी करूं तो चल जाएगा। कोई शिकायत नहीं करेगा या ध्यान भी नहीं देगा। मुझसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण तो मुझे कामवाली लगती। अगर उसे कुछ हुआ, तो घर में हलचल आ जाएगी। या किसी का मोबाइल खराब हो जाए या कार… खैर, कार की जगह तो टैक्सी ले लेगी। मुझे पता था मेरी जगह कोई और नहीं ले सकता, पर मेरी जगह ही क्या थी?

मेरी अपनी ही दुनिया थी, जिसमें किसी का दखल नहीं था। मेरे अपने ही सुख-दुख थे, जिनका घर के सदस्यों से कोई लेना-देना नहीं था, पर हो सकता है औरों का भी कोई ऐसा कोना हो, जिसमें मेरी मनाही हो।
मेरी सुबह वीरान थी, सुनसान थी। रुटीन वर्क से थकी-सी। पर शाम हलचल से भरी। मुझे लगता, धीरे धीरे खिड़की के बाहर की सड़क मेरे अंदर समाती जा रही है। मैं भी चार गाड़ियों के बीच से अपनी गाड़ी बिना डरे, साहस से भगाती ले जा रही हूं। और इस थ्रिल से मेरा दिल हलचल में आ जाता। और वे खोजती आंखें मुझे खिड़की पर हर रोज टांग देतीं।
हमारा संबंध नि:शब्द था, पूरी तरह, एकदम नि:शब्द- न मेरी तरफ से न उसकी तरफ से कोई शब्द हमारे बीच कभी आया। शब्द तो दूर, मैंने उसकी आवाज तक कभी नहीं सुनी थी। एक निश्चित समय पर एक आकृति खिड़की पर उभरती थी और ओझल हो जाती थी। सन्नाटा छा जाता था, लेकिन तमाम दिन का सन्नाटा कुछ क्षणों के इंतजार में कुछ गुनगुनाता हुआ लगता।
वह न अपनी जगह से हिलता था, न दूर जाता था, न पास आता। उसी जगह टिका रहता था, उसी समय। कभी ज्यादा उदास लगता था, कभी कम, पर खुश कभी नही लगा। क्या है, कौन होगा, पर मुझे क्या! मेरे गतिहीन, बदरंग जीवन में इंद्रधनुष के रंगों-सा बिखर रहा है, नहीं तो प्रतीक्षा और घर के सदियों से चले आ रहे काम। जो जितने जरूरी हैं, उतने ही गैर-जरूरी। क्योंकि मालूम है, कल मैं नहीं भी करूंगी, तो हो ही जाएंगे। पर यह खिड़की और इसको तकती आंखें मेरे लिए हैं। कम से कम इस सड़क की ओर खुलती पचास खिड़कियां तो होंगी, पर मैंने उसे किसी और खिड़की की ओर ताकते नहीं देखा। नहीं, आज ध्यान से देखूंगी, क्या पता देखता हो। आज पांच मिनट देर से जाऊंगी। क्या वह भी मेरा इंतजार करता है?
मैंने ऐसा ही किया और उसे वहां खड़ा पाया। इशारे से उसने पूछा, कहां रही? मैं केवल हंस दी। वह थोड़ा खुश-सा लगा, पर तुरंत चला गया। कुछ चोरी से, कुछ सामने, इधर-उधर झांकने की, जानने की कोशिश की कि कहीं किसी और खिड़की में तो यह तांक झांक नहीं करता! पर फिर खुद पर ही बहुत देर हंसती भी रही।

महिलाओं के बारे में पुरुषों की राय सही है कि वे एकाधिकार चाहती हैं। मेरा है तो बस मेरा ही है, किसी और का नहीं। कहीं और ताक-झांक नहीं, पर मैं तो राह चलते पर भी। जो है ही सड़क पर, उस पर कैसा शक। और किसलिए? पर अपने तर्कों से सिद्ध भी कर लिया कि नहीं, वह बस मेरे लिए आता है। उसकी वे उदास आंखें, वे बेतरतीब बाल, खिचड़ी अधपकी दाढ़ी मेरे लिए है। वह जहां से भी चल कर आता है, मेरे लिए आता है।
यह खिड़की ही थी, जो मेरे दायरों को बेमानी कर देती थी। खिड़की के पार भी खिड़की ही थी, लेकिन दो खिड़कियों के बीच पूरी की पूरी दुनिया थी। इस दुनिया में मैं निर्द्वंद्व विचरना चाहती थी- एक-एक चीज देखना चाहती थी, उन्हें छूना चाहती थी। इस खिड़की को मैंने ही तो चुना था। खिड़की मेरे लिए कोई रोक नहीं थी। इस खिड़की को मैंने ही इस दीवार में बना लिया था, जिस दीवार पर मेरी छत टिकी थी। छत मुझे एक सुरक्षा का एहसास देती थी और खिड़की इस दुनिया में खुलती थी, जिसमें मैं विचरना चाहती थी। मुझे मालूम था, छत के बिना खिड़की का कोई अस्तित्व नहीं है। छत है तो खिड़की भी है। सिर पर छत न हो, तो खिड़की बाहर की तरफ नहीं, अंदर की तरफ खुलती है। बिना छत की दीवारें जेल की ऊंची दीवारों का एहसास कराती हैं। जो सुरक्षा का अहसास नहीं देतीं, बल्कि भयभीत करती हैं। खिड़की है, जो बिना सड़क पर आए बाहर की दुनिया दिखा देती है।

कभी-कभी खीझ भी होती है। वह नीचे आने का इशारा क्यों नहीं करता या कभी बिल्डिंग की खिड़की के पास क्यों नहीं आता। उसकी पसंदगी, नापसंदगी के इशारे मैं समझने लगी थी। कभी मेरे दो चार से ज्यादा बाल सफेद दिखने पर वह सिर पर हाथ फिराता और इशारा करता- बाल सफेद क्यों। फिर अगले दिन मैं बहुत ध्यान से काट-छांट कर बाल ढूंढ़ती और उन्हें कलर करती, केवल शाम को उसका लाइक वाला इशारा देखने के लिए।
अपने मन में तर्क भी करने लगी थी- अगर वह नीचे बुलाएगा तो क्या मैं जाऊंगी, जा पाऊंगी? घर में हूं, यह सबके लिए आवश्यक है। घर से बाहर क्यों, कहां और कब तक, हजारों का सामना क्या कर पाऊंगी? नहीं, नहीं जैसा चल रहा है अच्छा है। पर… फिर भी बुलाता क्यों नहीं!
मनुष्य के जीवन में ऐसा कब हुआ है कि समय एक ही गति से चले, वह चले भी पर हम ही कब तक उस जैसे चल पाए हैं। धीरे-धीरे उसका आना कम होने लगा। मैं इशारे करती नहीं थी, पर देखती थी। फिर दो दिन हुए, तीन दिन, हफ्ता और महीने भर वह नहीं आया। मैं रोज खिड़की पर बैठती।
खिड़की खुलती है रोज अब भी, लेकिन खिड़की से सटी कोई आकृति नहीं है। मुझे मालूम है कि उस खिड़की में कभी कोई आकृति नहीं आई। वह आकृति तो मेरी आंखों में थी, जिसे मैं खिड़की पर चस्पां करके देख रही थी। देख लेती थी। वह आकृति मेरी बनाई हुई थी। पता नहीं कब, किस क्षण वह आकृति सामने की खिड़की पर आकर जम गई। खिड़की के चौखटे में खड़ी वह आकृति ऐसी लगती थी, जैसे किसी फोटो फ्रेम में जड़ी हुई मेरे अपने ही घर में लगी हो, लेकिन जिसे केवल मैं ही देख सकती थी। शिकायत नहीं, कोई कमी नहीं- न भौतिक सुख सुविधाओं की न भावनात्मक स्तर पर कोई खिंचाव, लेकिन खिड़की पर उस सूरत की अनुपस्थिति न जाने क्यों किसी कमी का एहसास कराती ही रहती थी।