स्वामी विवेकानंद की मेधा और उनके व्यक्तिव का आकर्षण काफी पहले से जाहिर होने लगा था। जब वे छात्र थे तब भी सब लोग उनके व्यक्तित्व और वाणी से प्रभावित रहते थे। यह वह दौर था जब उन्हें लोग उनके शुरुआती नाम ‘नरेंद्र’ के नाम से जानते थे। नरेंद्र की बात करने की शैली और उनकी जानकारी का आलम यह था कि जब वे अपने साथी छात्रों के बीच होते तो सभी मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे।
एक दिन कक्षा में नरेंद्र मित्रों को कहानी सुना रहे थे। सभी उनकी बातें सुनने में इतने मशगूल थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब शिक्षक कक्षा में आए और पढ़ाना शुरू कर दिया। शिक्षक ने अभी पढ़ाना शुरू ही किया था कि उन्हें कुछ आवाज सुनाई दी। कौन बात कर रहा है? शिक्षक ने तेज आवाज में पूछा। सभी छात्रों ने नरेंद्र और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ इशारा किया। यह सब देखकर शिक्षक काफी क्रोधित हो गए।
उन्होंने तुरंत उन छात्रों को अपने पास बुलाया और पाठ से संबधित प्रश्न पूछने लगे। जब कोई भी उत्तर नहीं दे पाया तो आखिर में उन्होंने नरेंद्र को भी बुलाकर उनसे भी सवाल किया। पर नरेंद्र तो मानो सब कुछ पहले से ही जानते हों, उन्होंने आसानी से प्रश्न का उत्तर दे दिया। यह देख शिक्षक को यकीन हो गया कि वे तो पाठ पर ध्यान दे रहे थे पर बाकी छात्र बातचीत में लगे हुए थे। फिर क्या था। उन्होंने नरेंद्र को छोड़ सभी को कक्षा से बाहर जाने की सजा सुना दी।
सभी छात्र एक-एक कर कक्षा से बाहर जाने लगे। नरेंद्र ने भी यही किया। यह देखकर शिक्षक बोले- ‘नरेंद्र तुम बैठ जाओ!’ इस पर नरेंद्र ने कहा, ‘नहीं सर, मुझे भी बाहर जाना होगा क्योंकि वो मैं ही था जो इन छात्रों से बात कर रहा था।’ नरेंद्र का उत्तर सबको चकित कर देने वाला था। उनकी बातें सुनकर शिक्षक तो प्रसन्न हुए ही, कक्षा में बैठे उनके साथी भी सच बोलने की उनकी हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए।