भारत में पानी को लेकर दोहरी समस्याएं हैं। कुछ क्षेत्र हैं जो सैलाब से परेशान रहते हैं तो कुछ सूखे से। यह सारी मुश्किल इसलिए है, क्योंकि जलप्रबंधन ठीक नहीं है। देश में जल की कमी नहीं है। यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। फिर भी देश के कई राज्यों में सूखे जैसे हालात हैं। देश में लगभग 32 करोड़ लोगों के लिए पीने का शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। देश में जल की समस्या प्राकृतिक देन नहीं बल्कि मनुष्य द्वारा निर्मित है।
भारत में समस्या जल के कुशल प्रबंधन की कमी की है। देश में संपूर्ण उपलब्ध जल का लगभग पचहत्तर प्रतिशत उपयोग सिंचाई में किया जाता है। इससे भी कुल कृषि भूमि का केवल पैंतालीस प्रतिशत क्षेत्र ही सिंचित हो पाता है, पाकी मानसून के भरोसे रहता है। आसमानता को पाटना और बर्बाद होते हुए जल को रोकना भारत के लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि कहीं-कहीं जल की अत्यधिक मात्रा उपलब्ध होने के कार।ा उस भूमि की उर्वरा शक्ति भी खत्म होती जा रही है।

गन्ने और चावल जैसी फसलों के लिए जल की आवश्यकता अधिक होती है। इसलिए जरूरी है कि इन फसलों का उत्पादन उन्हीं क्षेत्रों में किया जाए जहां जल की उपलब्धता हो। जैसे महाराष्ट्र का लातूर क्षेत्र, जो कि सूखे की चपेट से जकड़ा हुआ है। कहा जा रहा है कि लातूर में अगर गन्ने का उत्पादन न हो तो वहां सूखे की समस्या से निपटा जा सकता है। आज पानी की समस्या के चलते गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कारखाने बंद हो रहे हैं। कर्नाटक में इस वर्ष अब तक हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। जल की समस्या से कृषि उत्पादन, मत्स्य उत्पादन और बिजली के उत्पादन पर असर हो रहा है जो की सीधे तौर पर हमारे सकल घरेलू उत्पाद को प्रभावित कर रहा है। इससे रोजगार पर भी असर हो रहा है।

जिस प्रकार मनुष्य का जीवन जल के बिना संभव नहीं है, ठीक इसी प्रकार कई ऐसे रोजगार हैं जो जल के बिना सांस लेने में असमर्थ हैं। जल की जो मात्रा सिंचाई में उपयोग हो रही है उसे भी कम करना एक चुनौती है, जिससे की जल बर्बाद न हो। सिंचाई के लिए ड्रिप या स्प्रिंकलर की बात हो रही है। लेकिन यह अभी यह धरातल से दूर है क्योंकि इनके खर्चे को वहन कर पाना निर्धन किसानों के लिए संभव नहीं है। इस प्रकार की सिंचाई अभी तक पंजाब के ही कुछ क्षेत्रों तक सीमित है।

जल की समस्या से पूरे विश्व में उथल-पुथल मची है। विश्व भविष्य की इस बड़ी समस्या से डरा है जिनका असर विश्व शांति, न्याय एवं सुरक्षा पर भी पड़ने की आशंका है। आर्थिक मंच की वैश्विक जोखिम रिपोर्ट 2016 में जल संकट को सबसे अधिक प्रभाव डालने वाले दस खतरों में तीसरा बड़ा खतरा बताया गया है। यह भी चिंता की बात है की विश्व भर में प्रयोग में लाए जाने वाले कुल ताजे पानी का सत्तर प्रतिशत हिस्सा सिंचाई में चला जाता है जिससे पीने योग्य पानी में कमी हो जाती है। इसे कम करना एक चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2016 का नारा है- जल नहीं, तो काम नहीं। यह बताती है कि विश्व की कुल कार्यशक्ति का 42 प्रतिशत पूरी तरह से जल पर निर्भर है।

जल का स्रोत केवल प्रकृति ही है और इसके बिना मानव का जीवन संभव नहीं है। तालाब, झरनों का निर्माण और उन इलाकों को चिह्नित करके जहां जल को संग्रहीत किया जा सके, इसका प्रबंधन कर सकते हैं। पारंपरिक टैंकों और झीलों, जिसमें जल की मात्रा कम हो गई या सूख गए हैं, उनमें फिर से जल भरकर संचय किया जा सकता है। जल संपदाओं के विकास के लिए दीर्घावधि उपायों की आवश्यकता है। बारिश के जल को छत के माध्यम से एकत्र करके उन्हें कृत्रिम रूप से भूमि के अंदर प्रवेश कराके भूजल के स्तर को बढ़ाया जा सकता है। नदियों को आपस में जोड़कर भी इस समस्या से निपटा जा सकता है। यह सही है देश भर की नदियों को आपस में जोड़ने की लागत अत्यधिक आएगी और चुनौतियां भी कम नहीं हैं क्योंकि कई राज्य नदी के जल बंटवारे को लेकर पहले अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं।

इन सबके बाद भी इसका हल निकालना आवश्यक है। बाढ़ आने से और सूखा पड़ने से कितनी ही जन-धन की हानि होती है। अगर बाढ़ के जल को एक नदी के द्वारा दूसरे नदी में पहुंचा दिया जाए तो जन-धन की हानि को रोका जा सकता है। बाढ़ राहत में जिन हेलीकाप्टरों से खाने के पैकेट गिराए जाते हैं, उनकी भी लागत कुछ कम नहीं होती है। जल की समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार ने 1982 में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी बनाई थी जिसका उद्देश्य नदी परियोजनाओं का अध्ययन करना था। गंगा-ब्रह्मपुत्र-कावेरी को आपस में जोड़कर प्रायद्वीपीय नदियों यानी महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, कावेरी और वैगई नदी को आपस में जोड़कर और पश्चिम में केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र में बहने वाली नदियों को पूर्व में तमिलनाडु, कर्नाटक, आध्रप्रदेश और महाराष्ट्र की तरफ मोड़कर इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।

हालांकि, नदी परियोजना में चुनौतियां हैं लेकिन इन्हें दूर जा सकता है। ताकि समुद्र में व्यर्थ बहने वाले पैंसठ प्रतिशत जल को उपयोग में लाया जा सके और जिन स्थानों पर अतिरिक्त जल है, उसे उन स्थानों से संकटग्रस्त स्थानों में प्रयोग के लिए पहुंचाया जा सके। यह भी ध्यान देने योग्य है की भारतीय नदियों में अस्सी से नब्बे प्रवाह मानसून के चार महीने यानी जून से सितंबर में ही होता है। इन चार महीनों में इन क्षेत्रों में बाढ़ से जन-धन की काफी हानि होती है और अन्य महीनों में जल की किल्लत रहती है। इसलिए अतिरिक्त जल को जलाशयों में एकत्र करके या एक नदी को दूसरी नदी से जोड़कर बाढ़ के प्रवाह को अवशोषित और विनियमित करके बाढ़ और सूखे के बीच के अंतर को कम किया जा सकता है।
इसके साथ ही हमारी भी जिम्मेदारी है कि हम सब भी जल को बर्बाद न करें। उन्हें प्रदूषण मुक्तरखें। पृथ्वी की हरियाली, मानव जीवन का आधार और आर्थिक विकास का स्रोत जल ही है। अकेले गंगा घाटी का देश के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग चालीस प्रतिशत का योगदान होता है। ग्रेटर हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर से भागीरथी के नाम से निकलती हुई, संसाधनों से संपन्न यह नदी जब बांग्लादेश के सुंदरवन डेल्टा तक का 2500 किलोमीटर से अधिक दूरी तय करते हुए बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है तो अपने पीछे न जाने कितनों को जीवन देती चलती है। जल संसाधनों का दो-तिहाई भाग गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदियों से घिरा है जो देश के भौगोलिक क्षेत्र के दो-तिहाई भाग को आच्छादित करता है। ऐसे ही हमारे देश में सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियां हैं जिन्हें आपस में जोड़कर बाढ़ और सूखे, दोनों की समस्या का हल निकाला जा सकता है। ०