सुशील सिद्धार्थ
हमें कभी भी व्यक्ति पर बात नहीं करनी चाहिए। प्रवृत्ति पर बात करनी चाहिए। संज्ञा तो वर्जित ही है। आज की जरूरत है कि हम संज्ञाशून्य हो जाएं। हम हो ही रहे हैं। हम सर्वनाम में जिएं। इससे आराम रहेगा।
मुझे कुछ भूमिगत लोगों ने खबर दी है कि समाज बहुत व्यक्तिगत होता जा रहा है। लोग अपराधी को अपराधी कह कर पुकारने लगे हैं। किसी का लिहाज नहीं किया जा रहा। बरसों पहले पता नहीं किसने यह अफवाह उड़ा दी थी कि चीजों को उनके सही नाम से पुकारो। अब लोग पुकार रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तंत्र में गड़बड़ी है। वे लोकतंत्र का नाम ले रहे हैं। वे कुछ बड़े-बड़े लोगों का नाम ले रहे हैं। फूल-मालाओं से घिरे रहने वाले नामों पर अदना-अदना आदमी दनादन बातें करे, यह सहन नहीं किया जाना चाहिए। हैसियत देख कर बात करनी चाहिए। बताइए, लोग नाम लेकर कहते हैं कि दिन-रात हवा में उड़ते हैं, हवा से बातें करते हैं। साहब जनता से बातें कब करेंगे। साहब दिन-रात सफर में रहते हैं, मंजिल पर कब पहुंचेंगे!
मैंने यह सब ‘ऊपर’ बताया, तो जाहिर है ऊपर चिंतित होने लगा। ऊपर की व्यवस्था चिंतित होती है तो सभागार प्रभावित होते हैं। बुके, बैनर, फाइल, एजेंडा, मीटिंग आदि शब्द अस्तबल से निकाले जाते हैं। घुड़सवार जाग जाते हैं। ऐसा ही हुआ। फोन पर घुड़दौड़ मची। तय पाया गया कि एक उच्चस्तरीय मीटिंग आयोजित की जाए। उसमें जनता की निम्नस्तरीय सोच को दुरुस्त किया जाए। इसमें कुछ लोगों को व्यक्तिगत तौर पर प्रशिक्षित किया जाए कि वे अन्य लोगों को समझाएं।
ऐसे मौकों पर मुझे हमेशा याद किया जाता है। इस मौके पर मुझे भी कुछ कहना है। जो कुछ कहना है उसका एक हिस्सा यहां पेश कर रहा हूं।
‘‘मेरे प्रिय व्यक्तिगत साथियो, व्यक्तिगत नमस्कार। हमें कभी भी व्यक्ति पर बात नहीं करनी चाहिए। प्रवृत्ति पर बात करनी चाहिए। संज्ञा तो वर्जित ही है। आज की जरूरत है कि हम संज्ञाशून्य हो जाएं। हम हो ही रहे हैं। हम सर्वनाम में जिएं। इससे आराम रहेगा। एक उदाहरण देता हूं। कल की एक घटना इन शब्दों में- ‘मैं किसी समय यहां से वहां जा रहा था कि उस चौराहे पर वे दिख गए। वे वहां से आ रहे थे। मुझसे कहने लगे कि कल एक सज्जन आपके बारे में ये ये कह रहे थे। मुझे यह सुन कर जो-जो आना चाहिए आ गया। फिर उनको वो-वो सुनाया कि सुना न जाए। अगले ने वहां पर अपने वो रख लिए।’
अब देखो, किसी के बप्पा भी पकड़ नहीं सकते। जब कवि लोग ऐसी निरपेक्ष भाषा में लिख सकते हैं, तो तुम बोल नहीं सकते क्या! या फिर एक अत्यंत उपयोगी शब्द ‘तथाकथित’ का इस्तेमाल करो। एक उदाहरण देता हूं। मान लो तुम शातिर सेकुलर हो। किसी देश में हुए आतंकवादी हादसे पर कुछ कहना भी चाहते हो। नहीं भी कहना चाहते हो। जानते हो, कहोगे तो ‘जान है तो जहान है’ की याद आ सकती है। नहीं कहोगे तो लोग धिक्कारेंगे कि अब इनको क्या कहें। तो कैसे कहोगे कि व्यक्तिगत न हो। तुम कहोगे- ‘यह जो एक तथाकथित देश के तथाकथित नागरिकों पर तथाकथित ट्रक चढ़ा दिया गया, मैं उसकी तथाकथित रूप से निंदा करता हूं।’ हो गया बयान। धांय-धांय करने वाले खुश। सांय-सांय करने वाले भी मगन। यही हमारा कर्तव्य है। आजादी के बाद ऐसे शब्दों का खूब विकास हुआ है। हमको लाभ उठाना चाहिए। किसी पर व्यक्तिगत हमला न हो ऐसा ध्यान रखो।
देखो, महात्मा गांधी ने कहा है, अब कहा पता नहीं किसने है, पर मशहूर गांधी के नाम से है, कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। मैं गांधीजी की इस बात का खंडन करूंगा। पर कैसे, यह सुनो। मैं कहूंगा- ‘ऐसा सुना जाता है कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। मैं ऐसा कहने वाले से थोड़ा-सा असहमत हूं। भैया मेरे, जब आपने पापी मान ही लिया तो घृणा होगी ही। समाधान यही है कि पाप करने वाले को पापी न मानो, बलात्कार करने वाले को बलात्कारी न मानो, भ्रष्टाचार करने वाले को भ्रष्टाचारी न मानो। बस नफरत खत्म।’ ऊपर कहे एक वाक्य पर तुम सबका ध्यान नहीं गया होगा। जब कोई अनुभवी आदमी अपना दिल खोल रहा हो, तो ध्यान देना चाहिए। मैंने कहा कि ‘थोड़ा-सा असहमत’ हूं। मतलब, मौका हो और दबाव पड़े तो थोड़ा-सा सहमत भी हो सकता हूं। बीच में खड़े रहो। ऐसा है, व्यक्तिगत नहीं होना है, लेकिन अपने व्यक्तियों का खयाल भी रखना है।
साथियो, नाम में क्या रखा है? क्यों किसी का नाम लेना। नाम-वाम सब धोखा है। इसलिए प्रवृत्तियों पर फोकस करो। मैं सरकार को एक सलाह देने वाला हूं कि कुछ क्रांतिकारी सुधार करे। मेरे कुछ सुझाव सुन लीजिए। सुझाव नंबर एक, जेलों से सारे व्यक्तियों को छोड़ दिया जाए। उनकी जगह प्रवृत्तियों के पुतले बना कर कैद किए जाएं। हमें व्यक्तिगत नहीं होना है। हत्या, चोरी, लूट, अपहरण आदि के पुतले जेलों में रहें। लोग देखने आएंगे। जेलें पर्यटन स्थल बन जाएंगी। जेल को एक अर्थ में ससुराल बहुत पहले से कहा जाता रहा है। कारागार की जगह पुतलागार कहा जाए, तो ठीक रहेगा। वैसे भी समाज में हम रहते भी पुतलों की तरह ही हैं। थानाध्यक्ष को प्रवृत्याध्यक्ष कहा जाए।
सुझाव नंबर दो, काम सब वैसे ही चलेगा। बस नजरिया बदलने की जरूरत है। हत्यारे हत्या करते रहें। बस यह कहा जाए कि उन्होंने प्रवृत्ति को मारा है, व्यक्ति को नहीं। हम पहले से यह करते आए हैं। रावण वगैरह को जलाते हैं। कहते हैं बुराई की प्रवृत्ति का दहन है। बुराई क्या है, यह हमी तय करते रहे हैं। हम यह करते रहें।
सुझाव नंबर तीन, थानों में एफआइआर की भाषा बदली जाए। सबसे पहले हर थाने में ‘थानेदार भाषा सलाहकार’ की नियुक्ति की जाए। रिटायर्ड कवियों, अपठनीय गद्यकारों और अफसर लेखकों को वरीयता दी जाए। जो रचनाकार खुद को साहित्य का दारोगा मानते हैं वे सीधे इंटरव्यू में बुलाए जाएं। एफआइआर की भाषा तो खैर वही बनाएंगे, मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। जैसे हत्या की एफआइआर- ‘आना-जाना सृष्टि का नियम है। कल एक चला गया। रास्ते अनेक हैं, मंजिल एक है। कल जाने वाला पिस्तौल पथ से गया। हर कार्य के लिए कोई न कोई बहाना बन जाता है। कल भी बना। दोषी कोई नहीं। करमगति टारे नाहिं टरै। दो साल से टलती आ रही थी। कल अटल हो गई। मौसम भी अनुकूल था। उधर कोयल की कूक निकली, इधर अगले की फूंक निकली। जाने वाला चला गया। उसके लिए शोक क्या करना। जो करना ही चाहें वे अपना नाम-पता नोट करा दें। हर मुहल्ले में शोकभवन चल रहे हैं। नाम से धोखा न खाइएगा। हो सकता है, भवन पर किसी नेता, किसी व्यापारी, किसी धर्माधिकारी, किसी सरकारी का नाम लिखा हो। लोग वहां जाकर खुशी-खुशी शोक मनाएं। अब प्रार्थना करें, बूंद समाई समुंद में लीला कही न जाय।’ यह एक मॉडल है। बाकी योग्य लोग बना ही लेंगे।
तुमने देखा कि बिना व्यक्तिगत हुए प्रवृत्तियों पर कैसे शिकंजा कस दिया गया। अब अपनी बात को एक-दूसरे एंगल से बताना चाहूंगा। इसे समझेंगे तभी देश प्रगति करेगा, लोकतंत्र जीवित रहेगा। मेरी सलाह पर रेत के व्यापारी ने इसे आजमाया था। वे मेरे मित्र हैं। किसी ने उनको रेत खनन माफिया कह कर उन पर एक सरकारी अधिकारी की हत्या का आरोप लगा दिया। वे बहुत परेशान। मैंने कहा कि भाई, संकीर्णता से बाहर निकलो। हृदय को उदार बनाओ। तुम यह कहो कि मैं यह आरोप व्यक्तिगत नहीं लेता। मैं इस जाति विशेष का हूं, इसलिए मुझे आरोपित किया जा रहा। तुम अपने पर लगे आरोप को जाति, मजहब, भाषा, प्रांत आदि से जोड़ कर एक व्यापक रूप दो। इतनी जातियों, उपजाऊ उपजातियों का क्या फायदा, अगर हमने इस्तेमाल न किया। ऐसा ही रहा तो यह अनमोल विरासत नष्ट हो जाएगी। उन्होंने ऐसा ही किया। उनके साथ मुहल्ले लेवल से लेकर अखिल भारतीय स्तर तक के जाति-भाईबहन आ गए। धरना प्रदर्शन हुए। मीडिया सक्रिय हुआ। बमचक मची। कुछ दिन बाद लोग भूल गए कि कहीं एक रेत से भरा ट्रक किसी बाइक सवार पुलिस अधिकारी पर उलट गया था। हम बहुत पहले से कहते हैं कि बात पर मिट्टी डालो। इस बार रेत डाल दी गई। सोचो अगर मेरे दोस्त ने व्यक्तिगत ले लिया होता, तो आज कहां होता। इसलिए कभी कोई बात आए ईश्वर या परवरदिगार की शरण में जाओ। सारे मसले को हिंदू या मुसलिम होने से जोड़ दो। कोई दिक्कत नहीं। अगले की बुद्धि ऐसी चकरघिन्नी हो जाएगी कि बस।… जितना कहा उतना समझना।’’
उम्मीद है इन बातों से लोग समझ जाएंगे कि व्यक्तिगत न होने के दोतरफा फायदे क्या हैं। जो नहीं समझेंगे उनका नाम नोट करता जाऊंगा। फिर उन्हें व्यक्तिगत रूप से समझाऊंगा। ०