कमल किशोर गोयनका
प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठता है कि क्या वे इतने समयातीत और भारतीय समाज से इतने दूर हो गए हैं कि उनकी प्रासंगिकता का सवाल उठाया जाता है? क्या वे इतिहास की वस्तु हो गए हैं और आधुनिक भारत में उनकी कोई उपादेयता नहीं है? राजेंद्र यादव ने लिखा है कि मैं नहीं मानता कि किसी भी लेखक के विषय, क्षेत्र, पात्र या व्यक्तिगत रचना-संसार बादवालों के लिए अनुकरणीय होते हैं। वास्तव में, प्रश्न अनुकरण का नहीं, सार्थकता का है, अर्थवत्ता का है। प्रेमचंद के जीवन-काल में नंददुलारे वाजपेयी ने उन्हें समसामयिकता का कथाकार कहा था और लिखा था कि आज आप सामयिक पत्रों में जो चर्चा पढ़ चुके हैं, कल उसे ही प्रेमचंद की कहानियों में दुबारा पढ़िए।
स्वतंत्रता के बाद कुछ आलोचक प्रेमचंद की सार्थकता को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि स्वराज्य का उनका स्वप्न पूरा हो गया है, जमींदार-देशी राजा समाप्त हो गए हैं, दहेज-बाल-विवाह-सती प्रथा के विरुद्ध कानून बन गए हैं, दलितों-किसानों की समस्या सुलझ चुकी है, गांधी की अहिंसा भी निरर्थक हो गई है, इसलिए प्रेमचंद महत्त्वहीन और अनावश्यक हैं। प्रेमचंद पर ये आरोप मिथ्या हैं, क्योंकि प्रेमचंद की कल्पना का स्वराज्य देश में है ही नहीं। देश के सत्ताधारियों ने जॉन की जगह गोविंद बैठा दिया है, अंग्रेजों की तरह ठाट से बंगलों में रहते हैं, पहाडों की सैर करते हैं। ‘गबन’ का देवीदीन यहीं कहता है कि ऐसे सुराज से देश का क्या कल्याण होगा? तुम्हारे और तुम्हारे भाई-बंदों की जिंदगी भले आराम और ठाठ से गुजरे, पर देस का तो भला न होगा। ‘गोदान’ की धनिया भी कहती है कि जेल जाने से नहीं, धरम और न्याय से सुराज मिलेगा। भारत आज स्वतंत्र है, लेकिन पराधीन भारत की अनेक समस्याएं और बुराइयां कुछ भिन्न रूपों में आज भी विद्यमान हैं और यह सब हिंदुस्तानियों के हाथों ही हो रहा है। इसलिए पराधीन भारत में प्रेमचंद जितने प्रासंगिक और सार्थक थे, स्वतंत्र भारत में भी उनकी प्रासंगिकता कम नहीं हुई है। वैसे भी कालजयी साहित्य की सार्थकता हमेशा बनी रहती है। रामायण, महाभारत, रामचरितमानस आदि कालजयी ग्रंथ अपनी दिव्यता और अलौकिकता के बावजूद आज भी सार्थक और प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे मनुष्य, समाज, संस्कृति की श्रेष्ठता और सत्य, शिव, सुंदर की पहचान कराते हैं और मनुष्य को श्रेष्ठ और परिष्कृत मनुष्य बनाते हैं।
प्रेमचंद की कुछ रचनाएं कालजयी हैं और इन ग्रंथों के समान ही मनुष्य और समाज को श्रेष्ठ बना कर उत्कर्ष की ओर ले जाती हैं। साहित्य की ऐसी प्रासंगिकता जो मनुष्य को ऊर्जा दे, उसे गतिशील और संकल्पशील बनाए, जो उसके मन का संस्कार और कायाकल्प करे, वह हर काल में अर्थवान और प्रासंगिक बनी रहेगी। प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर विचार करते समय यह देखना आवश्यक है कि उनके साहित्य का वैशिष्टय क्या है, उनकी मौलिक उद्भावनाएं क्या हैं, जो व्यक्ति और समाज के लिए उपयोगी हो सकती हैं। अगर प्रगतिशील चिंतकों के निष्कर्षों को लेते हैं, तो उनका स्पष्ट मत है कि प्रेमचंद साहित्य में जो मार्क्सवाद और साम्यवाद और रूसी कांति से अनुप्रेरित है, वही प्रासंगिक है, शेष सब भावुकतापूर्ण आदर्शवादी साहित्य है, जो अवास्तविक और निरर्थक है। ये प्रगतिशील आलोचक मानते हैं कि प्रेमचंद को मार्क्सवाद का पूरा ज्ञान नहीं था और उन्होंने सामाजिक क्रांति में मजदूरों की भागीदारी और योगदान को समझा नहीं था, लेकिन फिर भी प्रेमचंद की प्रगतिशीलता में ही उनकी प्रासंगिकता देखते हैं। इसी के समान कुछ आलोचक प्रेमचंद के गांधीवाद, उनके असहयोग, सत्य-धर्म-न्याय, हृदय-परिवर्तन, ट्रस्टीशिप, रामराज्य आदि को ही उनकी मुख्य साहित्य-भूमि मानते हैं, पर प्रेमचंद को इन दो धाराओं तक सीमित कर पाना कठिन है। उनका साहित्य बड़ा व्यापक है। उसमें अनेक ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जो वहीं जन्म लेती हैं। प्रेमचंद साहित्य अपने युग का प्रतिबिंब है। वे युग के साथ चले हैं और उन्होंने अपने युग, अपने समाज का कायाकल्प भी किया है। वे समाज की धर्म, अर्थ, राजनीति, रूढ़ि, अंधविश्वास आदि सभी प्रकार की परतंत्रताओं से मुक्ति के लेखक हैं। वे स्वाधीनता और स्वराज्य के महागाथाकार हैं और इसमें उनकी महाकाव्यीय चेतना के दर्शन होते हैं। देश, समाज, संस्कृति और व्यक्ति तक की उन्हें चिंता है। उनका राष्ट्र-भाव, संस्कृति-भाव, शोषण-दमन से मुक्ति-भाव, विषमता और भेदभाव से मुक्ति-भाव, संप्रदायों में एकता-भाव और कृषि-संस्कृति की रक्षा का भाव तथा भास्तीयता की रक्षा का भाव आदि उन्हें अपने समय का तो महान कथाकार बनाता ही है, उन्हें काल की दीवारों को तोड़ कर आने वाले समय के लिए भी प्रासंगिक बनाता है।
उनके भारतीय आत्मा की रक्षा का संकल्प और उसके बहुरंगी और बहुरूपी चित्रों को अंकित करने के कथा-कौशल का आने वाली पीढ़ियां अक्सर साक्षात्कार करना चाहेंगी। प्रेमचंद के पास गहरी सांस्कृतिक दृष्टि है, इसलिए वे भारतीय समाज में पश्चिमी सभ्यता के प्रदूषण और विसंस्कृतीकरण के घातक आक्रमण का विरोध करते हैं। वे धर्म, धन, सामंत, सत्ता, शिक्षित, उच्च वर्ग, राज कर्मचारी, पंडित-महंत और मुल्ला आदि सभी की धूर्तता, पाखंड, शोषण, दुराचार का पर्दाफाश करते हैं और निर्बल-निर्धन-अशिक्षित, दरिद्र यानी समाज के सबसे लघुतम मनुष्य को साहित्य में स्थापित करते हैं, उसे ‘रंगभूमि’ जैसे महाकाव्यात्मक उपन्यास का महानायक बनाते हैं, उनमें परिवर्तन की आकांक्षा और विद्रोह की शक्ति भरते हैं और उनमें छिपे सेवा-भाव, सच्चाई, मनुष्यता और दिव्य गुणों को प्रकट करते हैं।
प्रेमचंद की साधारण-जन के प्रति घनीभूत संवेदना और करुणा मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का काम करती है, क्योंकि करुणा में सभी भेदभाव समाप्त हो जाते हैं और दूसरे की सेवा और उत्थान का भाव रहता है। इसलिए प्रेमचंद किसान, मजदूर, स्त्री, दलित आदि सभी पीड़ितों-दुर्बलों के उत्थान के प्रति इतने सक्रिय और सावधान हैं। प्रेमचंद की करुणा मनुष्य जाति के प्रति तो है ही, पशु-पक्षी भी उनकी करुणा के पात्र हैं। वे गाय (गोदान एवं मुक्तिधन), घोड़ा (स्वत्व-रक्षा), तोता (आत्माराम), बैल (दो बैलों की कथा), कुत्ता (पूस की रात), चिड़िया (नादान दोस्त) आदि को कहानी का अंग बना कर मानवेतर प्राणियों के प्रति अपना अपनापन, सम्मान और मनोभावों का वर्णन करके अपनी महान करुणा प्रकट की है। अज्ञेय ने इसे ‘महाकरुणा’ कहा है, परंतु प्रेमचंद की महाकरुणा अग्निधर्मा है। उसमें परिवर्तन का, विद्रोह का और अस्वीकार की चेतना का अंश है। प्रेमचंद की यह लोकोन्मुखता और लोकशक्ति पर आस्था उन्हें एक नए समाज की संरचना का विश्वास उत्पन्न करती है और वे साहित्य-कला-सौंदर्य के प्रतिमान बदलते हैं, उन्हें जीवन से जोड़ते हैं और लोकोन्मुखी साहित्य-दर्शन की स्थापना करते हैं। प्रेमचंद की यह नई उद्भावना उन्हें प्रासंगिक बनाए रखने की सामर्थ्य रखती है।
मुक्तिबोध ने लिखा है कि प्रेमचंद आत्मा के शिल्पी हैं। इसमें प्रेमचंद की प्रासंगिकता का मर्म छिपा है। प्रेमचंद व्यक्ति, समाज और देश सभी को संस्कारित और उनकी आत्मा का विकास करना चाहते हैं, क्योंकि श्रेष्ठ जीवन के लिए इनकी आत्मिक उन्नति परमावश्यक है। यह कार्य व्यक्ति-व्यक्ति की उन्नति से ही संभव है। प्रेमचंद एक पत्र में (इंद्रनाथ मदान को लिखे 26 दिसंबर, 1934 के पत्र में) लिखते हैं, ‘‘कोई समाज-व्यवस्था नहीं पनप सकती, जब तक कि हम व्यक्तिश: उन्नत न हों।’’ उनका अभिप्राय है कि विषमता-रहित समाज-व्यवस्था की रचना में व्यक्ति-व्यक्ति का उन्नयन, उसके मनोविकारों का संस्कार और संबंधित लक्ष्य के पति समर्पित होना आवश्यक है, अन्यथा एक-दो क्रांतिकारी नेताओं द्वारा निर्मित कोई भी व्यवस्था चल नहीं सकती है। प्रेमचंद का यह उच्च कोटि का आदर्श है और आदर्श के बिना कोई भी नई व्यवस्था निर्मित नहीं हो सकती। प्रेमचंद इसलिए स्वयं को आदर्शवादी कहते हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, प्रेमचंद वाल्मीकि, वेदव्यास, तुलसीदास की परंपरा में आते हैं, इसलिए उनका साहित्य भी इन महाकवियों के समान युग-युगों तक सार्थक बना रहेगा और अपने समय के मनुष्य, समाज और देश की आत्मा का उन्नयन करता रहेगा, उसे अंधकार से प्रकाश की ओर लाता रहेगा और अपनी प्रासंगिकता को अखंड रूप में बनाए रखेगा, क्योंकि मानवीय उत्कर्ष के अतिरिक्त साहित्य की कोई सार्थकता नहीं हो सकती। ०