गरिमा सिंह
यह भूमंडलीकरण का दौर है, जहां बाजारवाद अपना परचम लहरा रहा है। मानवीय मूल्यों का व्याकरण लगातार बदल रहा है। बाजार वह जगह है, जहां वस्तुएं खरीदी और बेची जाती हैं। बाजार का अपना अर्थतंत्र है, अपना प्रबंधन है। व्यवसाय करने की अपनी नीति-रीति है। वह मनोवैज्ञानिक रूप से हमें प्रभावित करता है। बाजारवाद एक वृत्ति है, जो जीवन को मूल्यों से अलग करने का काम करती है। यह स्त्री मानस और उसके आत्मविश्वास को भी प्रभावित कर रहा है।
स्त्री छवि को पुरुष समाज ने गढ़ा है। हर युग में उसकी छवि अलग-अलग रही है। उसकी भूमिकाएं और स्थितियां भी भिन्न-भिन्न रही हैं। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते समाज की उच्च-मध्य और उच्च वर्ग की प्रगतिशील महिलाएं अपनी परंपरागत भूमिका से हट कर कुछ अपने लिए करना चाहती हैं। अपनी पहचान स्वत: अपने कार्य से बनाना चाहती हैं। एक नई स्त्री छवि और चेतना ने उसके व्यक्तित्व को बदल दिया है। इस नव-आर्थिक-उपनिवेशवाद और विज्ञापन के व्यवसाय ने महिलाओं को जीविकोपार्जन के अनेक विकल्प दिए। लेकिन स्त्री अस्मिता का प्रश्न जस का तस बना रहा। विज्ञापन ने स्त्री और उसके देह-सौंदर्य का व्यवसायीकरण किया है। आज विज्ञापनों में स्त्री की एक बहुत बड़ी भूमिका है। भूमंडलीकरण के दौर में बाजार सीधा महिलाओं के जरिए उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाता है। ऐसे में देखने वाली बात यह है कि इन विज्ञापनों में स्त्री की छवि को किस रूप में प्रसारित किया जा रहा है। क्या स्त्रियां इनके माध्यम से अपनी परंपरागत छवियों से बाहर आ रही हैं? या वास्तव में मां, पत्नी और गृहिणी की परंपरागत छवि इनके माध्यम से और पुख्ता हो रही है? एक तरफ जहां सामंती अवशेष बचे हुए हैं वहां वाकई आज भी स्त्री का शोषण हो रहा है, वहीं वैश्वीकरण के दौर में जो स्त्रियां घरों से बाहर निकल कर काम कर रही हैं, जिन्हें सशक्त माना जा रहा है, और दावे भी किए जा रहे हैं कि ‘वह बाजार को नचाने का सामर्थ्य रखती है, भले बाजार उसे नचा रहा हो। पर प्रश्न है कि क्या वाकई वह अपनी कीमत खुद तय कर पा रही है? ब्रांड का प्रचार कर अधिकाधिक मुनाफे का लक्ष्य रखने वाले विज्ञापनों में क्या स्त्री छवि केवल उप-उत्पाद है? आज भी हमारा समाज पुरुषों की अभिरुचियों को ही प्राथमिकता देता है, तो क्यों? ऐसे में विज्ञापन जो व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर सशक्त छाप छोड़ते हैं, क्या स्त्रियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं बनाते? हालांकि मीडिया पुरुष को भी नहीं बख्शता। जरूरत पड़ने पर यह उसके भी कपड़े उतरवाने में गुरेज नहीं करता। पर आखिर किसी पुरुष का मजबूत (स्ट्रांग) होना कहां तक जरूरी है? अगर वास्तव में इसके लिए उस पर दबाव है, तो क्या उसे भी इस ‘फेमिनिन’ खेमे में नहीं आ जाना चाहिए?
स्त्री की स्थिति को आज चर्चा का विषय बनाया गया है। वह बहस का मुद्दा भी बनी है। पर विज्ञापन में स्त्री सौंदर्य का जो पैमाना रखा गया है, वह भारतीय महिलाओं का आदर्श नहीं है। जीवनशैली और कार्यशैली दोनों की भौगोलिक विशेषताएं हैं, लेकिन यहां सवाल यह है कि ये विज्ञापन स्त्री मनोविज्ञान को किस तरह प्रभावित करते हैं? विज्ञापनों का मकसद सामान बेचना होता है। इसके लिए खरीदार को लक्ष्य किया जाता है। कभी महिलाएं खुद लक्ष्य होती हैं, तो कभी उनकी वजह से पुरुष कोई खास सामान खरीदने को प्रेरित होते हैं। विज्ञापन उसके आत्मविश्वास को कम करते हैं और तथाकथित कमियों की तरफ इशारा करते हैं। यह देखा गया है कि खास किस्म के विज्ञापनों में भी स्त्री-शरीर के जरिए विज्ञापनों को प्रचारित किया जाता है। मसलन, मोटापा कम करने या कहें ‘स्लिम-फिट’ होने के विज्ञापन मुख्यत: स्त्री-केंद्रित होते हैं। चाहे यह विज्ञापन मशीनों द्वारा वजन कम करने का हो या रस और फल-सेवन के उपाय सुझाने वाला, लेकिन हमेशा स्त्री-शरीर ही निशाने पर रहता है। इसमें एक तरफ ज्यादा वजन वाली अधनंगी (बिकिनी पहनी) स्त्री पेश की जाती है, तो दूसरी तरफ छरहरी-अधनंगी स्त्री। एक तरफ ज्यादा वजन वाली के खाने का चार्ट दिखाया जाता है, तो दूसरी तरफ कम वजन वाली का। फिर दोनों की तुलना की जाती है कि किस तरह कम वजन वाली स्त्री मशीन के उपयोग से या कम भोजन कर आकर्षक, कामुक और सुंदर लग रही है। दूसरी तरफ अधिक वजन वाली स्त्री वीभत्स, अकामुक और कुत्सित लग रही है। इसलिए फलां फलां चीज सेवन करें या फलां मशीन उपयोग में लाएं ताकि आप भी आकर्षक और कामुक दिख सकें।
सवाल है कि अधिकतर विज्ञापन स्त्री-शरीर केंद्रित ही क्यों होते हैं? क्या स्त्री के अधोवस्त्र या निर्वस्त्र शरीर के जरिए विज्ञापन प्रोमोट करने पर वस्तु की मार्केटिंग में इजाफा होता है? क्या इससे विज्ञापन कंपनी को फायदे होते हैं? ध्यान देने की बात है कि विज्ञापनों ने स्त्री के परंपरागत रूप को तवज्जो दिया है, लेकिन स्त्री का आधुनिक रूप विज्ञापनों में एक सिरे से गायब है। टीवी विज्ञापनों में स्त्री हमेशा अच्छी खरीदार के रूप में नजर आती है, लेकिन उसकी निर्णायक भूमिका शून्य के बराबर होती है। वह विज्ञापनों में धड़ल्ले से विभिन्न वस्तुओं को खरीदती, प्रयोग करती नजर आती है। पुरुष के फैसले पर अमल करती दिखाई जाती है, जो उसका परंपरागत रूप है। पर उसके आधुनिक रूप को सामने नहीं लाया जाता, जिसमें वह खुद फैसले लेती हो और उसे भी पुरुषों के समान अधिकार उपलब्ध हों। स्त्री के परंपरागत रूप को तवज्जो देने वाले विज्ञापन स्त्री को फिर से सामंती मानसिकता और सामंती विचारों से जोड़ने लगते हैं। यह उसे मुक्त सोच और कार्य की आजादी से वंचित करता है। स्त्री के दूसरे दर्जे की पुरानी छवि को कायम रखने में मददगार होता है। विज्ञापन स्त्रियों के उन्हीं रूपों को प्रधानता देता है, जो शरीर के प्रदर्शन से संबंध रखता है, उसकी बुद्धि और मेधा के विकास से नहीं, उसकी पढ़ाई से नहीं, उसकी सर्जनात्मकता से नहीं, उसकी अस्मिता से नहीं। विज्ञापनों में महिलाओं के दो रूप प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। एक, महिला का उत्तेजक और अश्लील रूप और दूसरा पूर्णत: पारंपरिक, सामंती मूल्यों को जारी रखने वाला, जिसमें घर और पितृसत्तात्मक संस्कृति को बनाए रखने का भाव पूर्ण रूप से दिखाई देता है। जितने भी घरेलू उत्पादों के विज्ञापन हैं उनमें महिलाओं का वही पारंपरिक सांस्कृतिक रूप दिखाया जाता है। ऐसे घरेलू उत्पादों के विज्ञापनों की पूरी विषय-वस्तु श्रम विभाजन को स्पष्ट समझाती है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते बाजार ने इस व्यवस्था के पितृसत्तात्मक-सामंती मूल्यों को कायम रखने का पूरा प्रयास किया है, तो दूसरी तरफ यह भी समझना होगा कि पूंजीवाद ने अपने फायदे के लिए स्त्री को, स्त्री स्वतंत्रता की एक झूठी चयनशीलता दी है। वास्तव में यह एक प्रकार का भयावह मतिभ्रम है, जहां महिला की वास्तविक मुक्ति नगण्य है, क्योंकि स्त्री-मुक्ति के रास्ते को भूमंडलीकरण ने बेहद भ्रामक मोड़ दिया है।
आज समाज में सभ्यता का स्तर इतना ऊंचा नहीं है, जिसमें सभी पुरुष संयम का निर्वाह कर सकें। इस समय प्रस्तर काल से लेकर आधुनिक सोच तक सभी प्रकार के लोग समाज में एक साथ रह रहे हैं। यह सही है कि सभ्यता किसी भी व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है, लेकिन सभ्यता स्वयं का विकास भी तो नहीं कर सकती। पर अगर आधुनिक संस्थाएं आज की त्रुटियों को ठीक करने का प्रयास करेंगी, अगर वे अपने दायित्वों पर खरा उतरेंगी और देखने वाला दर्शक अपनी प्रतिक्रिया खुद से आगे आकर दर्ज कराएगा, तो हो सकता है कि भविष्य में विज्ञापन के तहत स्त्री छवियों को लेकर कोई सीमारेखा बन सके, जिससे स्त्रियों की छवि निर्धारित हो सके। इससे स्त्रियां शायद यह तय कर सकें कि दूसरों के विचारों के अनुरूप जाने के बजाय उन्हें स्वयं अपनी छवि और भूमिका तय करने का अधिकार है। सही अर्थों में स्त्री की अस्मिता के सम्मान का यह एक नया दौर होगा। लेकिन प्रश्न है कि ऐसा हो भी पाएगा?