विचारक कहलवाने के लिए विचार गोष्ठी में जाना अनिवार्य होता है, इसलिए गया था मैं। सोचा था हाल खचाखच भर गया होगा-बैठने की तो जगह नहीं मिलेगी, लेकिन मैं सपरिवार भी जाता तो भी कोरम पूरा नहीं होता। लेकिन विचार गोष्ठियों के संभागी इस बात से बेखबर होते हैं और वे अनवरत साधना में रत रहते हैं। बहुत ही तनावग्रस्त
गंभीर चेहरे। जैसे किसी हादसे से निकलकर आए हों। इतना गंभीर होने की जरूरत नहीं थी, लेकिन लोग जबरन गंभीरता को ओढ़ विषय की गूढ़ता को खोजने में व्यस्त थे। पास बैठे बुद्धिजीवी से मैंने धीरे से पूछा-‘क्यों साहब क्या तीये की बैठक हो रही है?’
बुद्धिजीवी ने हिकारत से मुझे देखा और अपना मुंह फेर लिया। शायद यह सोचकर कि यह असाहित्यिक गंवार व्यक्ति कहां से आ गया। इस बीच मैंने कुल जनसंख्या की गणना शुरू की तो दरी वाले सहित सात थे। अध्यक्ष और मुख्य अतिथि तो लगभग सो चुके थे। सोने का इतना अद्भुत अभ्यास पहली बार देखा था। वक्ता बार-बार जोर से बोल कर उन्हें जगाने का असफल प्रयास कर रहा था लेकिन, वे दूसरे लोक में जा चुके थे। मैंने फिर पास बैठे साथ वाले बुद्धिजीवी से कहा-‘देखिए, मुख्य अतिथिजी शायद सो गए हैं, उन्हें चेतना में लाइए।’
इस बार वे सामान्य नजर आए, बोले-‘वे चिंतन कर रहे हैं। उन्हें, गोष्ठी को ‘सम अप’ करना है, इसलिए डूबकर सुन रहे हैं।’
‘क्या मैं भी डूब जाऊं?’ मैंने पूछा।
नाक फुलाकर बोले-‘क्यों नहीं, लेकिन चुल्लू भर पानी में।’
मैंने कहा-‘देखिए, मैं जरा गोष्ठियों की परंपरा से थोड़ा अनभिज्ञ हूं। इसलिए मुझे रास्ता दिखाइए।’
क्रोधित होकर हाल का दरवाजा दिखाते हुए बोले-‘वह रहा आपका रास्ता।’
सामने देखा तो वक्ता महाशय बाकी लोगों को अज्ञानी समझकर बहुत ही सामान्य बात का खुलासा कर रहे थे। वे इतने विभोर थे कि उनके आनंद का आकलन वे ही ज्यादा कर सकते हैं। हाथों को नचाना, आंखों को अजीब तरह से ऊपर नीचे करना और चेहरे को विभिन्न भावों से भरना, ये उनके अंदाज थे।
जिससे वे विचार गोष्ठी की गंभीरता को द्विगुणित कर रहे थे। गोष्ठी में सभी वक्ता थे और सभी श्रोता थे। हर बात पर जिज्ञासा और सवाल-जवाब। बात का बतंगड़ और बेसिर-पैर की अनर्गल बातें। घर-परिवार की चिंता से परे वे साहित्य के व्यर्थ सवालों पर चिंतित थे।
तभी चायवाला आया। सबकी तंद्रा टूट गई। मुख्य अतिथि भी जाग पड़े। वक्ता की हालत बड़ी विचित्र थी। वह बार-बार चाय के प्यालों व प्लेट में रखे समोसे देखकर अपने व्याख्यान को समेटने के प्रयास में लगे थे। श्रोताओं ने खाना-पीना प्रारंभ कर दिया था और वक्ता से लगभग अपना नाता तोड़ कर खाद्यों से सीधा सम्पर्क कर बैठे थे। वक्ता को मन ही मन बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसे चायवाले पर भी क्रोध था कि वह जब व्याख्यान देने खड़े हुये तब ही जलपान लेकर क्यों आया। उन्हें यह भी लगा कि संयोजक उन्हें बौद्धिकता में पीटने के लिए यह षड़यंत्र कर बैठा है। वे भी प्रतिशोध की अग्नि में भभक रहे थे। मैंने एक समोसा समाप्त कर दूसरा उठाया तो पास वाले बुद्धिजीवी जी बोले-‘समोसा रख दीजिये, वह वक्ता का है।’
मैंने समोसा रख दिया और उनसे बोला-‘क्यों साहब, अभी कितनी देर चलेगी यह विचार गोष्ठी।’
‘करीब दो घंटे और, क्यों आपको जल्दी क्या है? घर जाकर क्या कर लेंगे?’
‘दरअसल सायंकाल कई कार्यक्रम रहते हैं, इसलिए इतना वक्त जायां नहीं किया जाना चाहिए कि लोग अगली विचार गोष्ठी में आने से कतराने लगें।’ मैंने कहा।
‘कोई नहीं कतराता। हम लोग आपके भरोसे गोष्ठियां नहीं करते। हम बाकायदा घरों में ‘असमाजिक’ घोषित हैं। घरवाले हमारे भरोसे नहीं रहते। ‘जो घर फूंको आपनो तो चले हमारे साथ’ वाली विचारधारा के धनी हैं। घरों की परवाह करते तो आज साहित्य का क्या होता ?’ वे बोले!
‘क्या मैं जा सकता हूं?’ मैंने पूछा।
‘आप जलपान कर चुके हैं, इसलिए पूरे समय बाद ही जाने को मजबूर हैं। आगे से मत आना।
‘वह तो सवाल ही नहीं है, लेकिन अभी तो जाने दीजिए।’
‘शांत रहिए।’ वे बोले।
मैंने कहा-‘आप तो समझकर हैं, आपका नंबर आए तो थोड़ा संक्षिप्त में ही अपने विचार प्रकट करना।’
बोले-‘इतना ही डरते हो तो विचारगोष्ठियों में आते ही क्यों हो?’
मैं बोला-‘दरअसल संयोजक से तीन सौ रुपए उधार लिए थे बिना ब्याज से। इसलिए उनकी कोई बात टालना नैतिकता से मुकरना मानता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि अब मैं कैसे भी करके उनके तीन सौ रुपए चुका ही दूं, वरना पता नहीं अभी कितना और खून पिलाना पड़े। ईश्वर ने चाहा तो अगले माह तक चुकारा कर दूंगा।’
‘तुम्हें संयोजक ने तीन सौ दिए हैं। मुझे तो वे तीन रुपए के लिए भी मना कर देते हैं। मैं भी अगर वे भेदभाव रखेंगे तो गोष्ठियों में आने से रहा।’ वे बोले।
मैंने कहा-‘देखिए साहब, गोष्ठी में आने की मनाही नहीं है, लेकिन इस नई सदी की ओर दौड़ते हुए युग में व्यक्ति इतना निकम्मा-निठल्ला नहीं रहा है कि चार घंटे तक ऊल-जलूल उबाऊ भाषणों को सुनकर वक्त जायां कर दें। जीवन संघर्ष इतना जटिल हो गया है कि आदमी को दम भरने की फुरसत नहीं है और आपके ये बुद्धिजीवी लोग अभी भी पच्चीस वर्ष पहले का वातावरण बनाए हुए है। अब काम करने का जमाना है। बातों से न पेट भरता और न ही काम आता है।’
वे बोले-‘आपने मेरी आंखें खोल दी हैं। मैं घर से सब्जी लेने निकला था और अब रात के आठ बज रहे हैं। गृहस्थी के मोर्चे पर हम इसीलिए तो मात खा गए। समाज के दूसरे वर्ग अपनी चालाक चेतना से धनाढ़्य बन गए और हम समाज की चिंता में बिना मतलब दुख दुबले होते रहे। ऐसे चिंतन और साहित्य का क्या किया जाए, जो घर-परिवार में आदमी की कोई पहचान ही न बनने दे।’
तभी संयोजक बोले-‘देखिये आज की विचार गोष्ठी को मैं यहीं समाप्त करता हूं और इसके दूसरे पहलुओं पर अगली बैठक में चर्चा जारी रहेगी।’
सातों लोग खड़े हो गए। मैंने संयोजक को एक ओर ले जाकर कहा-‘उस्ताद, बीस रुपए पड़े हों तो दे न। बच्चे की दवा ले जानी है।’
संयोजक बोले-‘कमाल करते हो शर्मा। तीन सौ का हिसाब आज तक नहीं और नई राशि लेने चले आए।’
‘यह बकाया राशि तो मैं अगले माह चुका दूंगा क्योंकि अब मैं आपकी विचार गोष्ठी में आने की स्थिति में नहीं हूं। इससे बढ़िया कुछ लिखूं-पढ़ूं तो पच्चीस-पच्चास का धंधा हो। इससे तो जीवन ही चौपट होता जा रहा है।’
वे बोले-‘ऐसा है, ये लो बीस रुपए लेकिन, अगली विचार गोष्ठी में जरूर आना, ‘साहित्य और समाज के अंतसंबंध को लेकर रखी है।’
मैंने बीस का नोट लिया और हवा हो लिया।