अभिषेक अवस्थी

हेपथप्रदर्शक! मार्गदर्शक! मुझे क्षमा करें, मेरे संगरक्षक।’मैंने हाथ जोड़ कर अपने पूर्व गुरु से क्षमा याचना की। वे सब कुछ जानते हैं। फिर भी अनभिज्ञ रहे। पीछे मुड़े। मुस्कुराए। गंभीर मुद्रा बनाई। फिर मेरी ओर देखा। बोले, ‘अरे क्या हुआ? किस बात की क्षमा वत्स?’ ‘गुरुवर, मुझे क्षमा करें…’ मैंने कहा, ‘जबसे आपका साथ छोड़ा है, तबसे तरक्की ने मुझसे मुंह मोड़ा है। मैं दुबारा आपकी शरण में आना चाहता हूं। आपके दिखाए रास्ते पर न चल कर मैंने भूल कर दी। मैं सच्चाई के गलत रास्ते पर चल पड़ा। आज खाली हाथ हूं खड़ा।’ गुरुवर हें-हें-हें कर हंसे। बोले, ‘खराब कविता कहने की आदत गई नहीं तुम्हारी। खैर, मैं जानता था, तुम वापसी करोगे। सभी करते हैं। जो नहीं करता, वह गरीबी की चारपाई पर पड़ा रहता है। उसका जीवन चार दिन का ही रह जाता है। वही चारपाई उसकी मृत्युशैया में परिवर्तित हो जाती है। उसके चार पाए, चार कंधों के समान हो जाते हैं। ईमानदारी को इंसानी कंधे नसीब नहीं होते अब। मैंने तुम्हें कितना समझाया था। मगर तुम नहीं माने।’

मैंने कहा, ‘आप सही कह रहे हैं गुरुजी। नहीं मानने का बहुत ‘लॉस’ हुआ मुझे। परसों की ही बात है। कोई किताब न छपवाने पर, मुझे साहित्य में योगदान के लिए पुरस्कार मिलने वाला था। मगर आपके शिष्यों ने टांग अड़ा दी। पुरस्कार को ही अवैध घोषित करवा दिया। गुरुजी बोले, ‘हां जानता हूं। तुम्हें उठा कर पटका नहीं, यही गनीमत समझो।’ ‘क्षमा! क्षमा! क्षमा! गुरुवर। आप कहें तो पैरों पर लोट जाऊं। आप महान हैं। ऐसे साधु-संत हैं, जिनका शिष्य बने बिना आदमी का गुजारा नहीं। आपका साथ छोड़ कर मैंने अपराध किया है। अब आप ही कुछ रास्ता दिखाइए। सफलता के सूत्र बताइए। मैं आपको सफलता का ‘ट्वेंटी-परसेंट’ अर्पित कर दूंगा।’  गुरुजी दानवी हंसी हंसे- ही-हा-हा-हा। बोले- साधु की बात अच्छी कही। तुम्हें साधुवाद। अब तनिक भी परेशान न हो। अब मेरी संगत में हो। ‘तुलसी संगत साधु की, हरै कोटि अपराध।’ मैंने अपने आगलगाऊ शिष्यों को गुप्तचरी सिखाई थी। उन्होंने तुम्हारी जासूसी की। तुम्हारी विफलता से खुश हुए। मेरी सफलता को इसका श्रेय दिया। गुरु, गुरु होता है। चेला, चेला होता है। मानते तो हो न? तुमने कुछ ऐसे कृत्य किए हैं, जो अत्यंत असामाजिक हैं। भारतीय समाज में इन हरकतों का कोई स्थान नहीं। अब मैं तुम्हें कुछ सूत्र दे रहा हूं। गांठ बांध लोगे तो फायदे में रहोगे। फायदे का कुछ भाग मेरे नाम करोगे, तो सशरीर कायदे में रहोगे।’

मैंने लोटते हुए उन्हें प्रणाम किया। ज्ञानी के आगे लोटे की भांति लोटते रहना चाहिए। उसका अहं शांत रहता है। मैंने उनसे ज्ञान रूपी ‘एसिड-रेन’ बरसाते रहने का आग्रह किया।
वे स्वीकार करते हुए बोले, ‘सुनो प्यारे। सबसे पहले ईमानदारी का भूत उतार दो। भ्रष्टाचार का दामन थाम लो। रिश्वत नीचे से ऊपर की ओर बहती गंगा है। हाथ धोने के साथ-साथ लगातार नहाते रहो। पैसे को अपना यार बनाओ। प्यार बनाओ। रिश्तेदार बनाओ। बचपन से तुम्हें पढ़ाया ही है। न बाप, न भैया सबसे बड़ा रुपैया। बिना दाम के परोपकार भी न करो।’
गुरुजी के प्रवचन की धारा अनवरत बह रही थी। वे आगे बोले, ‘गुप्तचरों ने बताया कि तुम अपने बॉस के साथ भी पंगा लेते रहते हो। अन्याय टाइप कुछ सहन नहीं करते। यह बहुत गंदी आदत है। सुधार लो। वरना जल्द स्वर्ग सिधार जाओगे। बॉस जो कहे, उसे ही अंतिम सत्य माना करो। वह कहे कि तुम मूर्ख हो, तो स्वयं को महामूर्ख सिद्ध करो। बॉस प्रजाति खुद को नारायण समझती है। बॉस जब बुलाए, जहां बुलाए, किसी भी काम के लिए बुलाए, नारद की तरह उसके समक्ष हाजिर हो जाओ। जितना उसकी बात को काटोगे, उतना तुम्हारा वेतन कटेगा। शोषित होने के लिए सदैव तैयार, तत्पर और अग्रणी रहो। सुखी रहोगे।’

‘अब बात पुरस्कार की। पार्थ! पुरस्कार यों ही नहीं मिलते। इसके लिए ‘चाटुकारिता’ मे ‘डबल एमए’ करना पड़ता है। ‘चापलूसी-मैनेजमेंट’ में निष्णात होना होता है। ‘षड्यंत्र’ मे ‘पीएचडी’ करनी पड़ती है। तुम मेरे सबसे खराब शिष्य रहे। कह सकते हो कि शिष्य के नाम पर कलंक रहे। इनमें से कुछ भी नहीं कर पाए। मैंने बहुत प्रयास किया कि तुम्हारी ओर से मैं ही ‘षड्यंत्र की थीसिस’ जमा कर दूं, पर तुम नहीं माने। तुम पर उस समय भी सच्चाई, ईमानदारी आदि का भूत सवार था। भूतों ने आज तक किसी को नहीं बाक्शा है। उसी का परिणाम तुम आज भुगत रहे हो। पुरस्कार चाहिए तो कम से कम इतना तो करो- पुरस्कार दिलवाने या न दिलवाने में किसी षड्यंत्र का हिस्सा जरूर बनो। न दिलवाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाओ। जितना ज्यादा यह करोगे, उतना पुरुस्कृत होने के अवसर बढ़ जाएंगे।’  ‘गुरुवर! मैं नतमस्तक हूं। आपने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए। अब से ऐसा ही प्रयास रहेगा।’ मैंने कहा। गुरुजी पुन: पीछे मुड़े। मुस्कुराए। और देर तक, अनवरत बस मुस्कुराते रहे।