मानव सभ्यता के इतिहास में मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान है। पश्चिमी चिकित्सा विज्ञानियों ने अगर घर के सारे काम छोड़ कर शोध और अनुसंधान न किया होता, नए-नए आधुनिक चिकित्सीय उपकरण, जांच प्रणालियां, दवाइयां ईजाद न की होती तो हजारों अनोखी बीमारियों से ग्रस्त हमारे देश के लाखों ‘समर्पित’ मरीज, हमारे ईश्वर तुल्य डॉक्टरों, पैथोलॉजी मालिकों और दवा कंपनियों के सालाना टर्नओवर में बिना कोई आर्थिक योगदान दिए ही मर जाते।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की बदौलत आज डॉक्टरों के पास मर्ज और मरीज की जांच और विश्लेषण के लिए लघुतम से लेकर दैत्याकार इतने उपकरण और मशीनें हैं कि उन्हें अब केवल मरीजों की फीस और दवाइयों पर मिले चुटकी भर कमीशन पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। नाना प्रकार के पैथोलॉजी टेस्ट, एक्सरे, सीटी स्कैन, एमआरआइ, कलर डाप्लर आदि एक से एक महंगी जांचों के कमीशन से घर बहुत अच्छे से चल जाता है। कमाई की ज्यादा ‘हाय-हाय’ होने पर डाकसाब लोग खुद अपनी निजी पैथोलॉजी लैब, स्कैन सेंटर, दवा की दुकान आदि खोल कर बैठने के लिए स्वतंत्र हैं और मरीजों को दुनिया भर की जांचें, दवाइयां लिख कर अपना वित्तीय घाटा पूरा करने के ईश्वर प्रदत्त अधिकार का सजगतापूर्वक लाभ उठाने के लिए भी प्रतिबद्ध हैं।
बड़े-बड़े निजी अस्पतालों के मालिक रोज सुबह उठ कर दुनिया के हर कोने की ओर सरपट नजर दौड़ाते हैं, ताकि अगर कहीं कोई नया चिकित्सीय उपकरण विकसित हुआ हो तो तुरंत बैंक से लोन लेकर उसे अपने अस्पताल में लगवा लें और जल्दी से जल्दी जाल में आ फंसे मरीजों की जेब से बैंक की किश्तें वसूलें। यों अपने देश में कभी भूले से भी कोई चिकित्सा उपकरण विकसित नहीं होता, अगर हो भी जाए तो उसे कोई खरीदेगा यह कतई संभव नहीं। क्योंकि देशी उपकरणों पर न कोई मरीज भरोसा करता है और न उससे ज्यादा पैसे झाड़े जा सकते हैं। अस्पताल में नाहक जगह घेरने का क्या फायदा। उससे अच्छा एक डीलक्स दड़बा बना कर कोई पैसे वाला मरीज अटका कर रखना ज्यादा फायदेमंद होगा!
‘एड्स’ आदि रोगों से संबंधित महंगी जांच मशीनें ईजाद करके तो चिकित्सा विज्ञान ने जैसे अर्थक्रांति ही ला दी है। एक ही झटके में मरीज को हजारों-लाखों रुपए का फटका लगा कर पौ-बारह हो जाते हैं। पीड़ित मानवता की सेवा की नौटंकी में दिन भर सौ-पचास मरीज देख कर टाइम खोटा करने के बजाए दो-चार मरीजों को भारी-भरकम टेस्ट लिख दो, काम खत्म। दिन भर का कोटा एक घंटे में पूरा हो जाएगा। बाकी समय में अपने दूसरे धंधों पर ध्यान दो, जिससे एक के चार अस्पताल बनाने का रास्ता खुले और अच्छे दिन आएं।
इधर, आधुनिक चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से निपट अनपढ़ और गंवार मरीजों की जेब से पैसा उलीचने की अन्य आधुनिक विधियां भी हमारे चतुर डॉक्टर अविष्कारकों ने ईजाद कर रखी हैं। जैसे पेट दर्द के मरीज को फौरन सोनोग्राफी की सलाह देना, भले वह दर्द ‘अफारे’ के कारण हो और आयोडेक्स स्तर की मोच खाए पैर के लिए बिना बात डिजिटल एक्सरे, सीटी स्केन या एमआरआइ कराने के लिए दौड़ाना। सिर दर्द के मामले में दिमाग में क्लॉटिंग का डर दिखा कर जबर्दस्ती अस्पताल में भरती करवा लेना! अगर मरीज कहीं और से टेस्ट-परीक्षण करवा कर कमीशन डुबा आया हो तो उसे बाप के हक से डांट कर उसकी लू उतारना भी डॉक्टरी पेशे का एक महत्त्वपूर्ण नुस्खा है, जिसे अपना कर डाकसाब मरीज को अंटे में ले लेते हैं, ताकि फिर अपनी पसंदीदा ‘दुकान’ से दोबारा जांचें करवा लाने का हुक्म देकर मरीज के अपने अस्पताल में घुस आने का टैक्स वसूला जा सके।
हमारी चिकित्सा व्यवस्था में ऐसे और भी सैकड़ों तौर-तरीके, ‘समांतर’ चिकित्सा पद्धतियों के रूप में प्रचलित हैं, जिनके निरंतर प्रयोग से हमारा चिकित्सा विज्ञान दिनों-दिन उन्नत होता जा रहा है। हमारे डॉक्टर लोग पता नहीं किस अज्ञात यूनीवर्सिटी से इन अद्भुत चिकित्सा पद्धतियों की सघन ट्रेनिंग लेकर मरीजों का सांगोपांग उत्थान करने के लिए आते ही चले जा रहे हैं। इन युगपुरुषों के उजले सौभाग्य से देश में मरीज भी दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं।
चिकित्सा विज्ञान ने अगर ये तमाम आधुनिक मशीनें-उपकरण, जांच-परीक्षण और ठगने की अत्याधुनिक विधियां ईजाद न की होतीं, तो बेचारे भारतीय डॉक्टरों को तो बड़े संकट का सामना करना पड़ता। केवल फीस से बड़ी-बड़ी कोठियां बनाना असंभव होता और बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने का सपना भी कंबख्त साकार नहीं हो पाता।
‘समांतर’ चिकित्सा पद्धति में दवा-गोलियों का भी बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। पारखी डॉक्टर साहब मरीज के चेंबर में घुसते ही तय कर लेते हैं कि इसे पाव भर दवा खिलाना है या आधा किलो। फिर मरीज के चेक-अप का नाटक करते-करते वे बड़ी सफाई से मरीज की जेब का भी चेक-अप कर लेते हैं कि उसमें कुछ है भी या यों ही छंूछा चला आया! और फिर अपने इस सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के हिसाब से उसे कभी-कभी किलो-दो किलो वजन की महंगी दवाएं भी लिख मारते हैं, ताकि फिर उसी हिसाब से कमीशन बन सके। दवाइयां महंगी हों और दो-चार पत्तों में ही मकसद अच्छे से सध जाए, डॉक्टर साहब का यही सद्प्रयास होता है। दवा कंपनियां भी इस मामले में किसी डॉक्टर को निराश होने का कोई मौका नहीं देतीं।
कीमतों को हमेशा ऊपर की दिशा में ही रखती हैं, ताकि डॉक्टरों को सम्मानपूर्ण कमीशन दिए जा सकें। कोई दवा दिन में तीन बार, कोई चार बार, कोई खाने के पहले कोई खाने के बाद, कोई सोने के पहले कोई सोने के बाद, कोई दवा गरम पानी से तो कोई ठंडे पानी से कोई दूध से तो कोई जूस से, आदि-आदि चकरघिन्नी कर देने वाले दवा सेवन के गूढ़ उपक्रम को याद रखने की कोशिश में मरीज अपना मर्ज ही भूल जाता है। बीमारियों से त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे मानव जीवन में चिकित्सा विज्ञान का इससे बड़ा योगदान और क्या हो सकता है।
बहरहाल, ठग विद्या हमारे देश की एक लोकप्रिय प्राचीन विद्या है, पर इसका विकास लंबे समय से अवरुद्ध पड़ा था। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की तमाम खोजें और उपलब्धियां, दवा-दारू आदि सब इस विद्या के पुनर्जीवन और विकास के लिए किसी वरदान से कम नहीं। सात समंदर पार करके यह सब आधुनिक ज्ञान-विज्ञान अगर हम तक न पहुंचता, तो हम पुरानी बाबा आदम के जमाने की विधियों से ही मरीजों को ठगते रहते। ठगने की नई-नई आधुनिक विधियां तो कभी जान ही न पाते। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने हमारी प्राचीन ठग विद्या में नए प्राण फूंक दिए हैं और इसने आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया है। समझ में नहीं आता कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को सलाम करें या प्राचीन ठग विद्या को।