भूकम्प में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकम्प जापान में आते हैं। इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित की है जो भूकम्प के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है। सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य और व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करे। 

म्यांमार के प्राचीन शहर बागान से उठे शक्तिशाली भूकम्प भले ही कुछ ज्यादा क्षति नहीं हुई है, फिर भी इसने पूर्वोत्तर के राज्यों समेत देश के सभी हिस्सों को भयाक्रांत कर दिया है। रिक्टर स्केल पर इस भूकम्प की तीव्रता 6.8 मापी गई है, जो बेहद खतरनाक साबित हो सकता था। पिछले साल जनवरी माह में पूर्वोत्तर में आए भीषण भूकम्प की तीव्रता भी रिक्टर पैमाने पर 6.8 ही थी, जिसमें डेढ़ दर्जन से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों लोग बुरी तरह घायल हुए। भूकम्प को लेकर दो बातें जरूर ध्यान देने वाली हैं। एक यह कि पूर्वोत्तर समेत समूचा भारत भूकम्प की जद में है और कभी भी तबाही का भयानक मंजर उपस्थित हो सकता है। दूसरा यह कि भूकम्प से निपटने की चुनौती भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण दुनिया में अच्छी नहीं कही जा सकती। इसका ताजा उदाहरण गत दिनों देखने को मिला जब इटली के पर्वतीय इलाके में आए भूकम्प से जानमाल का भारी नुकसान हुआ। रिक्टर पैमाने पर इसकी तीव्रता 6.2 मापी गई और इसने इटली के एमट्रिस शहर को पूरी तरह तबाह कर दिया।

पिछले वर्ष इटली के एमट्रिस शहर को दुनिया का सबसे खूबसूरत शहर का तमगा मिला था। यह निराशाजनक है कि दुनिया के किसी न किसी हिस्से में आए दिन भूकम्प का झटका लगता है, इसके बावजूद भूकम्प के पूवार्नुमान लगाने का भरोसेमंद उपरकण विकसित नहीं किया जा सका है। हालांकि इस दिशा में वैज्ञानिक सक्रिय हैं और अच्छी बात यह है कि रूस और जापान में आए अनेक भूकम्पों के पर्यवेक्षणों से पूवार्नुमान के संकेत सामने आने लगे हैं। भूकम्प के लिए कुछ क्षेत्र बेहद ही संवेदनशील हैं और यहां जीवन पर खतरा हमेशा मंडराता रहता है। ये वे क्षेत्र हैं जहां वलन (फोल्डिंग) और भ्रंश (फाल्टिंग) जैसी हिलने की घटनाएं सर्वाधिक होती हैं। विश्व के भूकम्प क्षेत्र मुख्यत: दो तरह के भागों में हैं एक-परिप्रशांत (सर्कम पैसिफिक) क्षेत्र जहां 90 फीसद भूकम्प आते हैं और दूसरे-हिमालय और आल्पस क्षेत्र। भारत के भूकम्प क्षेत्रों का देश के प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है। विशेषकर हिमालयी क्षेत्र भूसंतुलन की दृष्टि से एक अस्थिर क्षेत्र है। यह अभी भी अपने निर्माण की अवस्था में है। यही वजह है कि इस क्षेत्र में सबसे अधिक भूकम्प आते हैं। वैसे तो भूकम्प के कई कारण है लेकिन भारत और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव हिमालय क्षेत्रों में भूकम्प का प्रमुख कारण है। ये प्लेटें 40 से 50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान है। इस प्लेट की सीमा विस्तृत है।

यह भारत में उत्तर में सिंधु-सांगपो सुतुर जोन से दक्षिण में हिमालय तक फैली है। यूरेशिया प्लेट के नीचे उत्तर की ओर स्थित भारत प्लेटों की वजह से पृथ्वी पर यह भूकम्प के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। वैज्ञानिकों की मानें तो कश्मीर से नार्थ ईस्ट तक का इलाका भूकम्प की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। इसमें हिमाचल, असम, अरुणाचल प्रदेश, कुमाऊं और गढ़वाल समेत पूरा हिमालयी क्षेत्र शामिल है। निश्चितरूप से उत्तरी मैदान क्षेत्र भयावह भूकम्प के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय संपीडन के फलस्वरूप इस मैदान में कई दरारें बन गई हैं।

यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीध्र ही कंपित हो जाता है। अगर इस क्षेत्र में भूकम्प आता है तो भीषण तबाही मच सकती है। भीषण भूकम्पों से भारत में अनगिनत बार जनधन की भारी तबाही मच चुकी है। 11 दिसंबर 1967 में कोयना के भूकम्प से सड़कें और बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबड़-खाबड़ भू-भागों में तब्दील हो गए। हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुई। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में उस्मानाबाद और लातूर के भूकम्पों में हजारों व्यक्तियों की जानें गर्इं और अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकम्प में लगभग पांच हजार लोग कालकवलित हुए। 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज कस्बे में आए भूकम्प से 30 हजार से अधिक लोगों की जानें गर्इं। गौर करें तो हर वर्ष देश को भूकम्प का सामना करना पड़ता है।

लेकिन विडंबना है कि भूकम्प से बचाव का कारगर तरीका ढूंढ़ा नहीं जा सका है। उचित होगा कि वैज्ञानिक बिरादरी न सिर्फ भूकम्प के पूर्वानुमान का भरोसेमंद उपकरण विकसित करें बल्कि यह भी आवश्यक है कि भवन-निर्माण में ऐसी तकनीकी का विकास हो, जिससे कि इमारतें भूकम्प के भीषण झटके को सहन कर सकें।भूकम्प में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकम्प जापान में आते हैं। इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित की है जो भूकम्प के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है। सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य और व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करे। बेहतर तो यह होगा कि मानव जाति प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति से सामंजस्य बिठाए। पर विडंबना है कि विकास की अंधी दौड़ में मानव प्रकृति से कोसों दूर ही नहीं बल्कि उसके विनाश पर आमादा है। यह तथ्य है कि अंधाधुंध विकास के नाम पर मानव प्रति वर्ष सात करोड़ हेक्टेअर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों सालों में उसके हाथों प्रकृति की एक तिहाई से अधिक प्रजातियां नष्ट हुई हैं। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसद कमी आई है।

जैव विविधता पर संकट है। वनों के विनाश से प्रतिवर्ष दो अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआक्साइड वायुमंडल में घुल-मिल रहा है। बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है। भारत की गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियां सूखने के कगार पर हैं। वे प्रदूषण से कराह रही हैं। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारण क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से उनका पानी जहर बनता जा रहा है। हालांकि प्रकृति में हो रहे बदलाव से मानव जाति चिंतित है और इसके लिए 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन, 1992 में जेनेरियो, 2002 में जोहानिसबर्ग, 2006 में मांट्रियाल, 2007 में बैंकॉक और 2015 में पेरिस सम्मेलनों के जरिए चिंता जताई गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून भी बनाए गए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह कि उस पर अमल नहीं हो रहा है और मानव अपने दुराग्रहों के साथ है। लिहाजा प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गई है।

समझना होगा प्रकृति सार्वकालिक है। मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिंदु पर क्यों न पहुंच जाए उसकी एक छोटी-सी खिलवाड़ भी सभ्यता का सर्वनाश कर सकती है। लेकिन विडंबना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने को तैयार नहीं। वह अपनी समस्त ऊर्जा प्रकृति को ही अधीन करने में झोंक रहा है। लेकिन यह समझना होगा कि जब तक प्रकृति से एकरसता स्थापित नहीं होगी तब तक प्रकृति के गुस्से का कोपभाजन बनना होगा। गौर करना होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिश्र की नील नदी घाटी की सभ्यता या दजला-फरात हो सभी में प्रकृति के प्रति एकरसता थी। इन सभ्यताओं के लोग प्रकृति को ईश्वर का प्रतिरूप मानते थे। इन सभ्यताओं में वृक्ष पूजा और नागपूजा के स्पष्ट प्रमाण हैं। यह इस बात का संकेत है कि हजारों वर्ष पूर्व मानव जाति प्रकृति के निकट और सापेक्ष था। उसकी प्रकृति से समरसता और आत्मीयता थी। उसकी सोच व्यापक और उदार थी। मौजूदा समय में भी स्वयं को बचाने के लिए प्रकृति के निकट जाना होगा। यह समझना होगा कि अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का दुनिया लोहा मानती है, वे भी प्रकृति की कहर के आगे घुटने टेक चुके हैं।

अलास्का, चिली और कैरेबियाइ द्वीप के आइलैंड हैती में आए भीषण भूकम्प की बात हो या जापान में सुनामी के कहर की, बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए। लेकिन विडंबना है कि इस ज्ञान के बावजूद भी 21 वीं सदी का मानव प्रकृति की भाषा को समझने को तैयार नहीं। एकमात्र उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। अगर मानव जाति प्रकृति के प्रति अपने क्रूरता का परित्याग नहीं करती तो यह उसी के लिए खतरनाक होगा। ०