इच्छा या दयामृत्यु पर एकमत होकर कोई एक राय बनाना और उस पर कानून तय करना आसान नहीं है। इस पर पिछले कई वर्षों से कवायद चल रही है, लेकिन संबंधित कानून पर कोई ठोस राय सामने नहीं आ सकी है। करीब एक दशक पहले 2006 में विधि अयोग ने ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से विशेषज्ञों की राय लेकर इस मुद्दे को सुलझाने को कहा था। लंबे विचार-विमर्श के बाद तय किया गया कि अभी हमारा समाज इसे लेकर एकमत नहीं है, लिहाजा इस पर कानून बनाने से बचा जाए।
2011 में यह मामला तब ज्यादा चर्चा में आया जब कोमा में बिस्तर पर पड़ी नर्स अरुणा शानबाग के मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथनेशिया ( दयामृत्यु) को कानूनन जायज बताते हुए केंद्र सरकार से इसके लिए कानून बनाने और उसकी निगरानी की व्यवस्था करने को कहा था। अदालत ने कहा था कि यूथनेशिया के संबंध में राज्य सरकारें और मेडिकल बोर्ड स्थिति स्पष्ट करें और उच्च न्यायालय इस बारे में एक घोषणापत्र तैयार करें।
2011 में देश के विधि आयोग ने इस बारे में एक मसविदा तैयार किया था। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु को कानूनी जामा पहनाने की मांग के मुद्दे को संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया था। अदालत ने कहा था कि जो मरीज मरणासन्न अवस्था में हैं, उनके ‘मेडिकल सपोर्ट’ को वापस लेने के बारे में अदालतें अलग-अलग राय देती रहे हैं, इसलिए इस बारे में एक राय होना जरूरी है।