इंकलाबी शायर जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में न सिर्फ जवाहर लाल नेहरू, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसी शख्सियतों के बारे में अहम बातें लिखीं बल्कि अपने इश्क की दास्तान भी बताने से नहीं चूके। एक ऐसे दौर में जब उर्दू में आत्मकथा या अपनी निजी जिंदगी के पोशीदा रहस्यों को जाहिर करना समाज में सम्मान के घटने का कारण बन सकता था। ऐसे समय में इतनी बेबाकी से लिखना बड़े हौसले का काम था। जोश का व्यक्तित्व ऐसा था, जिनका दायरा महज उर्दू साहित्य तक ही सीमित नहीं था बल्कि उनका संबंध उस वक्त की सियासी शख्सियतों और आजादी के दौर के महान व्यक्तित्व से भी था। ऐसे में वे साहित्य, संगीत और कला के अदभुत संगम कहे जाने वाले व्यक्तित्व रवींद्रनाथ ठाकुर से दूर कैसे रह सकते थे।
‘यादों की बरात’ में जोश मलीहाबादी ने रवीनंद्रनाथ ठाकुर और अपनी मुलाकात के बारे में जिक्र किया है। घुमक्कड़ स्वभाव के जोश का आना-जाना किसी न किसी शहर में लगा ही रहता था। एक बार अजमेर से लखनऊ पहुंचे ही थे कि उन्हें सूचना मिली कि गुरुदेव लखनऊ आए हुए हैं। वे उनसे मिलने का मौका गवाना नहीं चाहते थे, सो उनसे मिलने चल दिए। दोनों एक-दूसरे से नावाकिफ थे, इसलिए ठाकुर ने उन्हें सिर से पांव तक देखने के बाद पूछा, ‘क्या यह बात सच है कि मैं एक नौजवान शायर के चेहरे को देख रहा हूं?’ जोश ने सिर झुका कर जवाब दिया ‘शायद।’ फिर उन्होंने नाम पूछा तो उन्होंने अपना तखल्लुस ‘जोश’ बताया। इतना सुनते ही ठाकुर ने आगे बढ़कर जोश से हाथ मिलाया और कहा, ‘अजीब संयोग है कि कल ही सरोजिनी नायडू ने आपकी एक नज्म ‘तुलू-ए- सहर’ का अनुवाद मुझे सुनाया था और आज आप से मुलाकात हो गई। आपकी नज्म लाजवाब है। इसके बाद काफी देर तक बातचीत का दायरा शेरो-शायरी तक सिमटा रहा।
इसके बाद ठाकुर ने जोश को बताया, ‘मेरे पिता फारसी के बड़े विद्वान थे और ‘दीवाने हाफिज’ उनके सिरहाने रखा रहता था। बातों में वक्त कब गुजर गया पता ही नहीं चला। जोश ने गुरुदेव से चलने की इजाजत मांगी तो गुरुदेव ने उन्हें कहा, ‘क्या यह मुमकिन है कि आप शांति निकेतन आकर कुछ रोज के लिए मेरे साथ रहें, और दीवाने-हाफिज की बारीकियों के बारे में मेरा भी ज्ञान बढ़ाने में मदद कर दें।’ जोश ने बड़ी खुशी के साथ ठाकुर की दावत कुबूल कर ली। कुछ ही अरसे बाद जोश अपने खिदमतगार जुगनू को लेकर आश्रम पहुंच गए और बहुत-सी किताबें भी साथ ले गए। जोश कहते हैं, ‘ठाकुर ने मेरी बड़ी आवभगत की और अपने एक तालिबे-इल्म बरनी साहब के कमरे में मुझको ठहरा दिया।’
वे लिखते हैं, ‘यों तो आश्रम की जिंदगी बेहद सादा थी, सुबह-शाम की टहल कदमी, दोनों वक्त का स्नान, रोज की मौसिकी और घने पेड़ों के साए में पढ़ना-पढ़ाना उस आश्रम की जिंदगी का जरूरी हिस्सा थे जिसे अलग नहीं किया जा सकता था। एक खासियत और थी कि वहां मांस वहां नहीं खाया जा सकता था।’
ठाकुर में एक बात और खास थी- वह यह कि उस दौर में कही उनकी बातें आज भी हालात के मुताबिक लगती हैं। फिर चाहें भारत की जर्जर शिक्षा व्यवस्था का सवाल हो जिसके बारे में उन्होंने कहा था, ‘इस देश में हम जिसे स्कूल कहते हैं, वह शिक्षा देने का एक कारखाना है। अध्यापक इस कारखाने का अंग हैं। साढ़े दस बजे घंटी बजती है और कारखाना खुल जाता है। कक्षाएं चलती रहती हैं और साथ ही अध्यापक का मुंह चलता रहता है। चार बजे कारखाना बंद हो जाता है और साथ ही अध्यापक रूपी मशीन भी अपना मुंह बंद कर देती है। उन्होंने विद्या के दो विभाग माने थे, एक ज्ञान का, दूसरा व्यवहार का। वहीं लड़के-लड़कियों के आपसी मेल-जोल के भी वे खिलाफ नहीं थे।’ ऐसे ही एक वाकए का जिक्र जोश मलीहाबादी ने किया है। जोश, शांति निकेतन में छह माह तक रहे और ठाकुर को करीब से जाना।
उन्होंने लिखा है, ‘उस समय भी मेल-जोल के बारे में ठाकुर किस कदर खुले दिल के थे इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है। एक रोज की बात है। एक वृद्ध प्रोफेसर ने आकर ठाकुर से कहा कि एक लड़का, लड़की बाग में गुपचुप बैठकर बातें कर रहे हैं। दरअसल, शांति निकेतन के दो छात्र जिनका आपस में पे्रम संबंध था, उन्हें उस प्रोफेसर ने बागीचे में पे्रम की मुद्रा में देख लिया था और उसी की शिकायत ठाकुर से की। जब यह बात ठाकुर ने सुना तो उन्होंने उस प्रोफेसर से पूछा, ‘यह सब दोनों की आपसी सहमति से है पैदा हुए हालात हैं या इसमें कोई जबरदस्ती तुमने देखी।’ उस प्रोफेसर ने बताया कि इस सूरते -हाल में जबरदस्ती का तो कोई दखल ही नहीं था’, तो ठाकुर ने कह-कहा मार कर कहा, ‘तो फिर इसमें एतराज की बात ही क्या है। कुदरती तकाजों के धारों पर बंद बांधना फितरते इंसानी के खिलाफ नाइंसाफी ही नहीं, बगावत भी है। आप शायद भूल गए, लेकिन मुझको अब तक याद है कि मैं भी एक जमाने में नवयुवक था।’ इस वाकए के बाद जोश ने ठाकुर की शख्सियत का एक अलग ही पहलू देखा था।
जोश कहते हैं, ‘हरचंद मैं अध्यात्म के दायरे से निकल कर चिंतन की ओर धीरे से मुड़ रहा था, लेकिन ठाकुर की कविताएं इसके बावजूद मुझको बेहद प्रभावित किया करती थीं। मैं उनके अनुवाद पढ़-पढ़ कर सिर धुना करता था, क्योंकि मैं बंगाली जबान नहीं जानता था। अगर मैं बंगाली भाषा से वाकिफ होता तो ठाकुर की कविताओं को समझने की तरह समझ सकता लेकिन मुझको इसका बेहद अफसोस है कि मैं उनकी कविताओं को अंग्रेजी अनुवाद से समझ रहा हूं, बंगालियों की तरह समझ नहीं सकता।’
मैं ठाकुर के साथ रहा ही कितना, सिर्फ छह महीना, इसलिए उनके बारे में अर्ज ही क्या कर सकता हूं। हां, इतना जरूर कह सकता हूं कि वह धर्म के मामले में बड़े ही खुले दिल के थे। निहायत जिंदादिल, बेहद शरीफ, हद से ज्यादा बेतकल्लुफ और खुशमिजाज तबियत केइंसान थे। इसके बावजूद एक आदत उनमें मैंने ऐसी देखी जो मेरे दिल में खटका करती थी और वह थी उनकी दिखावे की आदत। मैंने हमेशा इस बात को बुरी नजर से देखा कि जब कभी विदेशी पत्रकार साक्षात्कार के लिए उनसे मिलने आते थे तो उसके आने से पहले वह बन-संवर कर एक निश्चित स्थान पर बैठ जाते थे। एक तरह की खुशबूदार लकड़ी उनकी पीठ के पीछे सुलगा दी जाती थी और वह खूबसूरत लड़कियों को अपने आस-पास खड़ा करके यों साक्षात्कार दिया करते थे कि देखने वाले को अहसास हो जैसे कोई देवता अप्सराओं से घिरा बैठा है।’
जोश ने नि:संकोच रवींद्रनाथ ठाकुर के बारे में अपनी राय आत्मकथा में लिखी है। वे ठाकुर की शख्सियत से पूरी तरह प्रभावित थे, इस एक बात को छोड़ दिया जाए तो। यही वजह थी कि वह उनकी सोहबत में कुछ दिन और ठहरना चाहते थे, लेकिन ठहर नहीं सके। वे कहते हैं, ‘पत्नी के एक तार के कारण मुझे मलीहाबाद जाना पड़ा और फिर मेरी पत्नी ने मुझे इस बुरी तरह घेरा कि मैं वापस शांति निकेतन जा ही नहीं सका और मेरी सारी किताबें वहीं रह गर्इं, जो मुझे फिर कभी मिल नहीं सकीं।’
