प्रियंका शाह

तुम्हें याद है कृष्णचूड़ा का वह पेड़, जिसके ठीक सामने बैठने की बेंचें बनी हुई थीं। हम अक्सर वहां बैठा करते थे। वह पार्क बहुत सुंदर था, पेड़-पौधों से हरा-भरा। मगर मुझे कृष्णचूड़ा के पेड़ के पास बैठना ज्यादा पसंद था। अक्सर कॉलेज से छूटने के बाद हम वहां बैठा करते थे। ठीक सामने गंगा बहती थी। ठंडी-ठंडी हवा चलती थी। बैठे-बैठे हम गंगा को निहारा करते, डूबते सूरज को देखते, अपने गंतव्य को जाते पंक्षियों को देखते। जब सांझ होती, मंद-मंद हवा बहती और गंगा के दूसरे किनारे से मंदिर में बजते शंख और घंटे की ध्वनि हमारे कानों में पड़ती, तब उस प्राकृतिक दृश्य के प्रति मैं अभिभूत हो उठती। शायद तेज हवाओं या तूफान के कारण कृष्णचूड़ा की एक डाल लटक गई थी। उसकी पत्तियां जब मेरी हथेलियों, गालों में लगती, तब मुझमें एक अजीब सरसराहट पैदा होती। ऐसा लगता जैसे कृष्णचूड़ा का वह पेड़ मुझे पहचान गया है और अपनी पत्तियों से मुझे दुलार रहा है। कभी-कभी जब मद्धिम बारिश होती और कृष्णचूड़ा की पत्तियों से टपकता पानी हमारे शरीर पर पड़ता, तब मैं कस कर तुम्हारा हाथ पकड़ लेती, तब ऐसा महसूस होता जैसे इस दुनिया में सबसे सुखी मैं ही हूं।

तुम तो अब शायद यहां नहीं आते होगे, लेकिन अब कई वर्षों बाद मैं नियमित रूप से आने लगी हूं। कृष्णचूड़ा की वह झुकी हुई डाल अब नहीं है, शायद काट दी गई है। मैं अब भी उसी स्थान पर बैठती हूं। उस प्राकृतिक दृश्य को निहारती हूं, लेकिन तुम्हारे बगैर यह प्रकृति भी मुझे उदास नजर आती है। जानते हो, मैं हर रोज तुम्हारे लिए तुम्हारा पसंदीदा पीला गुलाब लेकर आती हूं और उसी स्थान पर रख देती हूं, जहां तुम कभी बैठा करते थे। अगले दिन जब मैं आती हूं, तब वह गुलाब वहां नहीं होता। मैं जानती हूं, वह गुलाब हवाओं की दिशा में न जाने कहां गुम हो जाता होगा। मेरा मन कुछ और कहता है, यथार्थ की जगह यह भ्रम मुझे कहीं अधिक सुकून देता है कि मेरे जाने के बाद तुम वहां आए होगे और उस पीले गुलाब को अपने पॉकेट में रख लिया होगा। जैसा कि तुम हमेशा रखा करते थे। आजकल मैं रोज यहां क्यों आने लगी हूं, जानते हो? क्योंकि मुझे उम्मीद है, जब तुम अपनी कभी न समाप्त होने वाली रेस से थक जाओगे तब मुझे ढूंढ़ते हुए यहां इसी पार्क में, इसी कृष्णचूड़ा के पास मेरा इंतजार करोगे।

उस दिन जब दफ्तर से तुम घर लौटे थे, मेरे लिए नर्गिस के फूलों का गुच्छा ले आए थे। उस दिन तुम बहुत खुश थे। अपनी कंपनी का एक टारगेट तुमने पूरा किया था और तुम्हारा प्रोमोशन डायरेक्टर के पद पर हो गया था। तुम्हारे चेहरे पर जीत की खुशी देखी थी मैंने। खुश तो मैं भी थी। उस दिन तुम्हें हमारा यह बारह सौ वर्ग फुट का फ्लैट छोटा नजर आने लगा था। तुम इसे बदलने की बात कर रहे थे। मैंने तुमसे कहा भी था, ‘इतना बड़ा फ्लैट तो है…।’ और तुमने मेरी बात बीच में काटते हुए कहा था, ‘अब हमारा स्टेटस बड़ा हो गया है। वैसे भी इस कॉम्प्लेक्स में मिडिल क्लास के लोग ज्यादा रहते हैं।’ मैं तुम्हें अवाक होकर देख रही थी। मैं तुममें अपने उस पुराने विप्लव को ढूंढने लगी, जो कॉलेज के दिनों में एक संवेदनशील व्यक्ति हुआ करता था। कॉलेज की कैंटीन में चाय बेचने वाले उस दस-बारह साल के बच्चे को, जिसे तुम लोग ‘छोटू मास्टर’ कहते थे, तुमने जबरन स्कूल में उसका दाखिला कराया था। तुम और तुम्हारे दोस्तों ने मिल कर उसके लिए यूनिफार्म और किताबें खरीदी थीं और आज तुममें इतना बदलाव आ गया है कि मिडिल क्लास के लोग तुम्हें अपनी स्टेटस के नहीं लगते।
मेरे पिताजी भी तो उच्च पदाधिकारी थे।

हमारे घर की दीवार से ही लगे हुए लंबी कतार में कई छोटे-छोटे कमरे बने हुए थे, जिनमें मजदूर रहते थे, जो विभिन्न प्रदेशों से रोजी-रोटी की तलाश में यहां आकर बस गए थे। कुछ मजदूर अकेले रहते तो कुछ अपने परिवार के साथ, तो कुछ का परिवार बीच-बीच में एक-दो महीनों के लिए रुक कर फिर वापस गांव चला जाता। उनका हमारे घर के बिल्कुल नजदीक रहने से हमें तो कभी अपना स्टेटस गिरता हुआ नजर नहीं आया। बल्कि उनके रहने से हमें हमेशा एक चहल-पहल का अहसास होता। रोज सुबह चार-साढ़े चार बजे ही उनकी आवाज कानों में आने लगती। कोई सुबह स्नान करते हुए ‘ॐ नम: शिवाय’ का जाप करता तो कोई दिन में बार-बार ‘सीता राम-सीता राम’ करता रहता।

कभी-कभी हम उस घर में भी जाते थे। छोटे-छोटे कमरों में एक चौकी रहती, दीवार पर कपड़े टंगे होते ओर चौकी के पास ही चूल्हे या स्टोव में खाना बनता। उन विभिन्न कमरों के घर में शौचालय कॉमन था। हमारे मां-बाप ने हमें कभी उन घरों में जाने से रोका भी नहीं था। आज भी मेरे घर की दीवार से लगा वह मकान मौजूद है, हालांकि वहां रहने वाले लोग बदल गए हैं। मेरे भइया भी ऊंचे पद पर सरकारी दफ्तर में कार्यरत हैं। लेकिन भइया ने उस घर को छोड़ने की बात नहीं की, जिसमें हम बड़े हुए थे। उस घर से हमारी यादें जुड़ी हुई हैं। मेरे लिए यह समझना मुश्किल हो रहा था कि तुम इस दुनिया के हिसाब से चल रहे थे या इस चलने की रेस में मैं ही पिछड़ गई थी।

उस दिन रात में तुम स्पेशल परमिशन लेकर मुझसे मिलने अस्पताल आए थे। आते ही तुमने कहा था, ‘जब मिसकैरेज हो ही गया तब जल्दी आकर क्या करता। आज एक जरूरी मिटिंग थी।’ सुबह से ही मुझे थोड़ी-थोड़ी ब्लीडिंग हो रही थी। मैंने मां को फोन पर बताया था। मां के आते-आते ब्लीडिंग बढ़ने लगी। आनन-फानन में मां ने हॉस्पिटल में एडमिट करवाया। हॉस्पिटल तक पहुंचते-पहुंचते ही ‘मिसकैरेज’ हो चुका था। भइया ने दोपहर में ही तुम्हें इसकी सूचना दे दी थी और तुम रात को अपनी डयूटी और मीटिंग खत्म करके आए थे। तुम्हारे चेहरे पर पहले की तरह ही व्यस्तता थी। अपने बच्चे को खोने का गम मुझे तुम्हारी आंखों में दिखाई नहीं दिया था और मैं… मुझे तो ऐसा लग रहा था कि जैसे आज मैंने अपना बच्चा ही नहीं, अपना पति भी खो दिया था। दो व्यक्तियों को खोने का गम अपने हृदय में लिए हुए मैं अस्पताल के बिस्तर पर लेटी हुई थी। मुझे याद है वह दिन, जब तुम्हें कई शहरों से जॉब के लिए आॅफर आए थे, लेकिन तुमने उन तमाम शहरों को खारिज कर इस शहर को चुना था, क्योंकि तुम जानते थे कि यह शहर मुझे बेहद पसंद है।

मुझे भी कई कंपनियों से जॉब के आॅफर मिल रहे थे, लेकिन तुम नहीं चाहते थे कि मैं जॉब करूं और सच कहूं तो मैं भी जॉब करना नहीं चाहती थी। जिस दिन अस्पताल से मुझे छुट्टी मिलनी थी, उस दिन तुम सुबह-सुबह अस्पताल आ गए थे। अब तक मैं तुम्हारे इस नए चेहरे के हाव-भाव को समझने लगी थी। समझती भी कैसे नहीं। तुम्हारे चेहरे पर मुझे दो ही प्रकार के भाव तो दिखते थे। एक तुम्हारा व्यस्तता वाला और दूसरा टारगेट को पूरा करने की जीत की खुशी। आज तुम्हारे चेहरे की खुशी बता रही थी कि आज फिर तुमने एक जीत हासिल की है। उस दिन खुशी से उछलते हुए तुमने मुझसे कहा था: ‘आज तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है।’ अस्पताल से निकल कर तुम मुझे सीधा दो हजार वर्ग फुट के विशाल फ्लैट में ले गए। मेरा पुराना सजाया हुआ फ्लैट कहीं पीछे छूट गया था। सिर्फ फ्लैट ही क्यों, और भी बहुत कुछ।…

कॉलेज के दिनों में कृष्णचूड़ा के नीचे बैठ कर तुम्हारा हाथ पकड़ कर खुद को संसार की सबसे सुखी औरत महसूस करती थी और आज…। तुम्हारी यह हाई प्रोफाइल सोसायटी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आई थी। इस कॉम्प्लेक्स में ऊंचे-ऊंचे टावर शान से खड़े थे, लेकिन कभी मुझे न कोई व्यक्ति दिखता और न कभी किसी की आवाज सुनने को मिलती। चहल-पहल से दूर यह कॉम्प्लेक्स मुझे किसी श्मशान भूमि जैसा नजर आता। अस्पताल से लौटने के बाद मैं बेहद कमजोर हो गई थी, पर इस ओर तुम्हारा ध्यान ही नहीं था। तुम घर लेने की खुशी में एक विशाल पार्टी के आयोजन में जुटे हुए थे। प्रोमोशन के बाद तुम और व्यस्त रहने लगे थे। घर लौटते ही तुम लैपटॉप पर काम करना शुरू कर देते। मैं दिन भर इतने बड़े घर में अकेले तुम्हारा इंतजार करती और तुम लैपटॉप और फोन-कॉल्स में व्यस्त हो जाते। खाने की टेबल पर तुम किसी तरह खाना निगलते थे। मैं भरसक कोशिश करती तुममें अपने पुराने विप्लव को पाने की, पर मेरी हर कोशिश नाकाम साबित होती।

तुम्हारी कंपनी हर दो-तीन महीनों में अपने कर्मचारियों को कोई न कोई टारगेट दे देती और तुम सब दौड़ पड़ते टारगेट की रेस में। तुम्हारे अंदर लालच पैदा हो रहा था या इस रेस में तुम सबसे आगे निकल जाना चाहते थे, मैं नहीं जानती, लेकिन इतना भली-भांति जान चुकी थी कि इस रेस में तुम बहुत आगे निकल चुके हो, अब तुम्हारा लौटना आसान नहीं। इस रेस ने तुम्हारे अंदर के व्यक्ति को, तुम्हारे अंदर की संवेदना को मार डाला है। मैं मां के पास जाने के लिए पैकिंग कर रही थी। दस दिनों के लिए तुम स्विटजरलैंड की टूर पर जा रहे थे। जैसा कि तुमने कहा था, तुमने और तुम्हारी टीम ने कड़ी मेहनत से एक टारगेट पूरा कर इस टूर को जीता है। घर से निकलते वक्त तुमने कहा था, ‘अपनी मां को यहां बुला लो, अकेले तुम्हारा मन नहीं लगेगा।’ इन चार सालों में मैंने पहली बार तुम्हारे मुंह पर जवाब देते हुए कहा था: ‘मैं तो हमेशा अकेली ही रहती हूं।’ मेरे इस जवाब से तुम कुछ दुखी हुए थे, उदास आवाज में तुमने कहा था: ‘तुम बंगलुरू जा सकती हो, वहां बहुत सारे जॉब स्कोप हैं। तुम्हारा टाइम पास होगा।’ मैं सन्न रह गई थी।

हम दोनों ने साथ रहने के सपने देखे थे और आज शादी के चार साल बाद उसकी यह परिणति! मैं सब कुछ समझ चुकी थी। इन चार सालों में मैं धीरे-धीरे तुम्हें खो रही थी। भौतिक सुखों के तुम मानसिक गुलाम बन रहे थे। मैंने मां को यहां नहीं बुलाया। मैं खुद मां के पास जाना चाहती थी। तुम्हारे इस सोने के पिंजरे में मेरा दम घुट रहा था। तुमने मुझे एक कार गिफ्ट की थी, बावजूद इसके मैं आॅटो से अपने घर पहुंची थी। घर के ठीक पास पहुंचते ही सड़क पर रॉस्केल से भेंट हुई। रॉस्केल के चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान बिखरी हुई थी। रॉस्केल हमारे मोहल्ले से थोड़ी दूर एक बस्ती में रहता था, लेकिन उसका घर कहां था, यह ठीक से मैं आज भी नहीं जानती। जब मैं छोटी थी, रॉस्केल हम दोनों बहनों को सड़क पर आते-जाते छेड़ता था। हमें छेड़ते हुए वह क्या बोलता था, यह तो अब स्मृति से लोप हो चुका है, लेकिन इतना याद है कि हम दोनों बहनें उसे अंगरेजी में गालियां देती थीं।

वह हमसे चार-पांच साल बड़ा रहा होगा। एक दिन हम दोनों बहनों ने भइया से उसकी शिकायत की थी। बाद में भइया ने हमें बताया था कि हम अंगरेजी में जो कुछ कहते हैं, वह सुनने में उसे अच्छा लगता है, इसलिए जब भी वह हमें सड़क पर देखता है, कुछ न कुछ टीका-टिप्पणी करता है। भइया के टोकने के बाद रॉस्केल ने हमें छेड़ना छोड़ दिया था। पर हम दोनों बहनें जब भी उसे देखतीं ‘रॉस्केल… रॉस्केल पुकारने लगतीं। इसमें हमें मजा आता और इस खेल-खेल में न जाने कब उसका नाम रॉस्केल पड़ गया। रॉस्केल का असली नाम मैं आज तक नहीं जानती। मैं बचपन से ही उसे देखती आ रही थी। कभी भी मैंने उसे उदास नहीं देखा। हमेशा उसके चेहरे पर एक मुस्कान बिखरी होती।

आज यह सोचते हुए मुझे अच्छा महसूस हो रहा था कि कम से कम रॉस्केल इस रेस से बाहर है। आर्थिक संसाधनों और विपन्नता में भी उसकी मुस्कान जस की तस बरकरार है।
आज साल भर हो गए, मैं तुम्हारे उस सोने के पिंजरे से मुक्त हो चुकी हूं। मैं बंगलुरू नहीं गई। अपनी आजीविका के लिए मैंने इसी शहर में एक छोटी-सी नौकरी ढूंढ़ ली है। मैं किसी रेस का हिस्सा बनना नहीं चाहती और न ही मॉल्टीनेशनल कंपनियों के हाथ की कठपुतली। मुझे मानसिक सुकून चाहिए। मुझे अपने चेहरे पर एक तृप्त मुस्कान चाहिए, बिल्कुल रॉस्केल के चेहरे जैसी। तुमसे अलग होने के अलावा मेरे पास कोई और रास्ता नहीं था। तुम्हारे उस परिवेश में मेरा दम घुट रहा था। मैं थक चुकी थी तुम्हारे उस हाई-प्रोफाइल सोसायटी से। उन दिनों मैं तुमसे डरने भी लगी थी।… विवाह के इन चार सालों में मैं धीरे-धीरे तुम्हें खो रही थी, लेकिन कुछ भी करने में असमर्थ थी। और एक दिन हम दोनों आपसी रजामंदी से बिना किसी कोर्ट-कचहरी के अलग हो गए। तुमसे अलग होने के बाद एक दिन भइया ने बताया था कि कंपनी तुम्हें दो साल के लिए विदेश भेज रही है। बस यही अंतिम सूचना थी तुम्हारे विषय में।  कृष्णचूड़ा का वह पेड़ अब भी जस का तस खड़ा है। नई-नई डालों, फूलों और पत्तियों से लदा हुआ, हरा-भरा कृष्णचूड़ा का पेड़। कृष्णचूड़ा की वह डाल जिसकी पत्तियां मुझे दुलारती थीं, आज उस डाल का कहीं अता-पता नहीं है। वह अपनी जड़ से कट चुकी है। मुझे आज भी उस डाल की तलाश है। ०