देवशंकर नवीन
समाज और साहित्य के मध्य स्थापित संबंधों को देखने का कार्य आलोचना के माध्यम से होता है। साहित्य की सामाजिक प्रासंगिकता को स्थापित करते हुए पाठकों के बीच साहित्य को ले जाना और इस संबंध को उत्तरोत्तर विकसित करते जाना आलोचना की बुनियादी प्राथमिकता होती है। भारतीय साहित्य में आलोचना की दीर्घ और विकसित परंपरा काव्य-तत्त्व के अनुसंधान की जिज्ञासा को तृप्त करने के लिए विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टि से संपृक्त रह कर निरंतर प्रवाहित होती रही है। भारतीय आलोचना रचनाओं के परीक्षण या मूल्यांकन मात्र तक सीमित नहीं रही। प्रारंभिक हिंदी आलोचना संस्कृत आलोचना पर ही आधारित थी। जब खड़ीबोली का उदय हुआ तो हम विदेशी साहित्य से प्रभावित होने लगे। खासकर हिंदी गद्य साहित्य के साथ ऐसा हुआ और उसके लिए जिस आलोचना का उदय हुआ, वह कई मामलों में पश्चिम की हूबहू नकल था। साहित्य और आलोचना दोनों पर पश्चिम के साहित्य और आलोचना का प्रभाव देखा जा सकता है। आलोचना की नवोदित धारा पर भी इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। अगर सकारात्मक पक्ष को देखा जाए, तो आलोचना के क्षेत्र में नवीन संभावनाओं के सृजन के लिए भारतेंदु और बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, बालकृष्ण भट्ट, गंगाप्रसाद अग्निहोत्री और अंबिकादत्त व्यास आदि ने अमूल्य योगदान दिया।
हिंदी आलोचना के विकास का दूसरा चरण द्विवेदी युग से शुरू होता है। ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवि-कर्म और कवि-कर्म की परिणति, दोनों की स्पष्ट, व्यावहारिक और सामयिक आलोचना करके जो निष्कर्ष दिए हैं, वे वर्तमान में भी प्रासंगिक बने हुए हैं। द्विवेदी युगीन साहित्य ने भी भारतेंदु युगीन साहित्य की ही तरह प्रेरणा देने का कार्य अधिक किया। चूंकि पुनर्जागरणकालीन भारत आगे बढ़ने के लिए कृत संकल्प था, इसलिए रीतिकालीन प्रवृत्तियों पर नई यानी वैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्तियां हावी हो रही थीं। द्विवेदी युग के परवर्ती छायावाद युग में साहित्य की अन्य विधाओं के नए दौर में प्रवेश करने के साथ ही हिंदी आलोचना में भी एक नए युग का सूत्रपात हुआ। उपन्यास और कहानी विधाओं के विकास के साथ ही कविता और नाटक में उदित होती नवीन प्रवृत्तियों के विवेचन और विश्लेषण हेतु आलोचना विधा की अनिवार्यता नए ढंग से स्थापित हुई और आलोचना विधा का विकास-विस्तार सामयिक आवश्यकता बन कर उभरा। इसके साथ छायावादी काव्य-प्रवृत्ति अपने अनूठेपन के कारण आलोचना के केंद्र में आई और इसके पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई आलोचनाओं ने आलोचना विधा के विस्तार में अप्रत्याशित योगदान दिया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस कालखंड में सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय और पाश्चात्य साहित्य चिंतन परंपरा के समन्वय से समृद्ध करके गांभीर्य और वैविध्य प्रदान किया। डॉ. नगेंद्र भी आचार्य रामचंद्र शुक्ल से प्रभावित थे। वे मूलत: रसवादी आलोचक माने जाते हैं। उन्होंने सैद्धांतिक आलोचना के साथ ही व्यावहारिक और मनोविश्लेषणात्मक आलोचना के क्षेत्र में योगदान दिया। भारतीय साहित्यशास्त्र के साथ पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के समन्वय और इनके समन्वित रूप को प्रकाश में लाने का अभूतपूर्व कार्य नगेंद्र ने किया। नगेंद्र के साथ ही आचार्य नंददुलारे वाजपेयी और शांतिप्रिय द्विवेदी ने छायावाद का पक्ष लिया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ के माध्यम से ऐतिहासिक आलोचना को स्थापित किया। कबीर, सूर और तुलसी आदि के मूल्यांकन में द्विवेदी जी की मानवतावादी और समाजकेंद्रित आलोचनात्मक दृष्टि देखने को मिलती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के परवर्ती युग में हिंदी आलोचना का क्षितिज व्यापक होता गया। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक पद्धतियों से हट कर मार्क्सवादी आलोचना, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक आलोचना, शैलीवैज्ञानिक आलोचना और नई आलोचना जैसी नवीन पद्धतियों का विस्तार हुआ। फिर मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद जैसी आलोचना की ऐतिहासिक पद्धतियों का निषेध कर ‘नई आलोचना’ पनपने लगी। साहित्य में रूपवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, संरचनावादी, नई समीक्षा से भाषावादी आलोचना का तुमुलनाद गूंज उठा। इस बीच अच्छी बात यह हुई कि अब आलोचना केवल कविता-केंद्रित न रह कर उपन्यास, कहानी, नाटक, रंगमंच, निबंध, रेखाचित्र आदि सभी गद्य विधाओं को साथ लेकर बढ़ने और पनपने लगी। इस स्थिति ने हिंदी आलोचना का सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर क्षेत्र काफी विस्तृत कर दिया है।
साहित्य की विविध विधाओं की आलोचना के प्रकाश में आने के साथ ही आलोचना विधा में सक्रिय विद्वानों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। आलोचना के क्षेत्र-विस्तार का यह सुखद पक्ष है। नाटक और रंगमंच सहित गद्य की विविध विधाओं से जुड़े साहित्यकारों की हिंदी आलोचना में उपस्थिति ने विविधता का, विचारों का फैलाव किया है। साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान भी हिंदी आलोचना के विकास में अभूतपूर्व है। प्रगतिवादी आलोचना के बाद अस्तित्व में आई नई आलोचना में व्यक्तिवाद और पूंजीवाद की प्रबलता है। इस आलोचना में भारतीय काव्यशास्त्र लगभग पूर्णत: उपेक्षित हो गया है और वह पश्चिमी चिंतन और आलोचना पर पूर्णत: निर्भर हो गई है। ‘नई आलोचना’ ही नहीं, स्वातंत्र्योत्तर काल की नई लगभग संपूर्ण हिंदी आलोचना एक ओर पश्चिमी आलोचकों, दूसरी ओर अस्तित्ववाद, मानववाद, यथार्थवाद, अतियथार्थवाद, प्रभाववाद, आधुनिकतावाद, उत्तरआधुनिकतावाद, संरचनावाद आदि वादों और तीसरी ओर ‘नई आलोचना’, नवअरस्तूवादी आलोचना, शैलीविज्ञान, समाजशास्त्रीय आलोचना आदि पश्चिमी आलोचना-पद्धतियों का लगभग पूर्णत: अनुसरण करने लग गई है। पश्चिम के विचार और वस्तुओं का अनुकरण करना और पाश्चात्य अंधानुकरण में पड़ कर अपने संसाधनों को गौण मानना आजकल की प्रवृत्ति बन गई है और आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता का पर्याय बन गई है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में भी यह प्रवृत्ति देखी जा सकती है।
यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि आज के वैश्वीकृत समाज में आलोचना के पुराने मानदंड बड़े काम के नहीं सिद्ध हो सकते। किसी भी आलोचना-पद्धति का स्थिर और जड़ होना गतिशील साहित्य का अवरोधक होता है, पर ‘आलोचना के पुराने औजार बक्से’ में कुछ उपकरण हो सकते हैं, जो थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ भारतीय उत्तर-आधुनिक आलोचना को नया रूप दे सकने में समर्थ हों। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में पुरानी पीढ़ी के आलोचकों की सक्रियता ही संप्रति दिखाई देती है। युवा पीढ़ी के आलोचकों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है। उनकी उपस्थिति भी जो है, उन्हें आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। दूसरी तरफ साहित्यिक अनुशासन और साहित्यिक लगाव की स्थिति भी अत्यंत दयनीय है। इस समय वाद, विमर्श और समाजशास्त्रीय दर्शन की परिधियों को तोड़ कर आलोचना-बोध के सर्वमान्य प्रादर्श के निर्माण की महती आवश्यकता है। इस कमी के कारण साहित्य और पाठक के बीच की दूरी बढ़ रही है। सामयिक साहित्य अगर सामान्य हिंदी पाठक के लिए बोधगम्य नहीं होता, तो इसका बहुत बड़ा दायित्व हिंदी आलोचना पर है। पाठक का दिग्भ्रमित होना आलोचना की विफलता है।
बहुत सारे साहित्यकार अपनी प्रसिद्धि के लिए, चर्चा में बने रहने के लिए प्राय: उन बातों का जिक्र करते हैं, जो साहित्य की मर्यादा के एकदम विपरीत होती हैं। इसके अलावा स्वयं को स्थापित करने के लिए दूसरे को अपमानित करने, लांछन लगाने की हद तक भी कई साहित्यकार, आलोचक पहुंच जाते हैं। मूल्यहीनता की यह स्थिति भी हिंदी आलोचना के वर्तमान और भविष्य के लिए घातक है।हिंदी आलोचना के सफल, सार्थक भविष्य के लिए पुरानी पीढ़ी के आलोचकों द्वारा युवा आलोचकों को प्रोत्साहन देना और संसाधन उपलब्ध कराना अपेक्षित है, तो युवा आलोचकों को मूल्यहीनता, अनुशासनहीनता और विचारों की संकीर्णता से ऊपर उठ कर पक्षपात रहित होकर आलोचना के दायित्व का निर्वहन करना होगा। इन प्रयासों के माध्यम से हिंदी आलोचना के भविष्य की दिशा भटकाव से बचते हुए समृद्धि की ओर उन्मुख होगी और हिंदी आलोचना विधा अपनी सार्थकता के साथ स्थापित हो सकेगी। ०