आगामी वर्ष 2019 को संयुक्त राष्ट्र ने ‘अंतरराष्ट्रीय जनजातीय भाषा वर्ष’ घोषित किया है। इस घोषणा के साथ ही सदस्य राष्ट्रों से यह भी अपील की गई है कि विश्व की जनजातीय भाषाओं के संरक्षण, संवर्धन और प्रसार हेतु सक्रिय भूमिका निभाएं। इस आशय का प्रस्ताव वहां आमसभा में बोलीविया और इक्वाडोर जैसे देशों ने रखा था, जिसका समर्थन अन्य पचास देशों ने किया। इसके अनुमोदन में यह भी कहा गया है कि जनजातीय समाजों में युवा और महिलाओं को और अधिक प्रोत्साहन दिया जाए। साथ ही इन समाजों के राजनीतिक, कानूनी, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थानों को मजबूत किया जाए और संयक्त राष्ट्र के नेतृत्व में इन सबकी शुरुआत 1 जनवरी, 2019 से की जाए। गौरतलब है कि सन 2009 में जब संयुक्त राष्ट्र ने संकटग्रस्त भाषाओं की एक सूची जारी की थी, जिसमें विश्व की प्राय: अल्पसंख्यक भाषाओं पर खतरे की बात की गई थी और खतरे की विभिन्न कोटियों के माध्यम से आगाह किया गया था कि अल्पसंख्यक भाषाओं के प्रति वृहत्तर समाज और सत्ताओं को सोचने की आवश्यकता है। असल में यह पूरा परिदृश्य हाशिए की भाषा, संस्कृति एवं समाज की चिंताओं से जुड़ा है, अन्यथा जिस संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में विश्व के बड़े-बड़े देशों के सैकड़ों एजेंडे आते रहते हैं, उसमें विश्व की संकटग्रस्त भाषा एवं संस्कृति की चिंता बोलीविया और इक्वाडोर जैसे देशों को करना पड़ रहा है।
आज पश्चिम संरक्षित वैश्विक एकरूपता के समक्ष स्थानीय विविधताएं लगातार संकुचित हो रही हैं। भौतिक विकास की बुनियाद में एकरूपता एक ऐसे मूल्य के रूप में सामने आती है, जो सबको स्वयं के अनुरूप ढाल देना चाहती है। जैव-पारिस्थितिकी का प्रारूप लगातार संकुचित होता जा रहा है। इसका प्रभाव जीवन को गहनता से प्रभावित करता जा रहा है, जिसमें विकल्पों के बाहुल्य का संघर्ष जारी है। इसी क्रम में समाज की भाषाई-सांस्कृतिक विरासत के रूप में मौजूद खुरदुरापन लगातार समतल होता जा रहा है। जल, जंगल एवं जमीन के बदले भौतिकता ने जिस तेजी से अपने पांव फैलाए हैं, उसमें हमारे सामने सीमेंट वाला विकास ही दिख रहा है, जिसमें कितनी अस्मिताएं ध्वस्त हो रही हैं, उनकी गणना करने की चिंता से भी ‘विकसित’ या ‘सभ्य’ समाज के लोग दूर होते जा रहे हैं। इन परिस्थितियों का सीधा प्रभाव भाषा पर पड़ना स्वाभाविक है। इसमें न सिर्फ छोटी जनसंख्या वाली भाषाओं पर संकट बढ़ता जा रहा है, बल्कि प्राय: बहुसंख्यक भाषाओं की मूल एवं जातीय संस्कृति से भीगी हुई शब्दावली भी समाप्त हो रही है।
स्थानीयता बनाम वैश्विकता के संघर्ष में विजय स्वाभाविक रूप से वृहत्तर या शक्तिशाली समूहों के साथ है। तमाम ऐतिहासिक संदर्भों में न पड़ते हुए भी इतना तो जोड़ना ही चाहिए कि आज इस वैश्विक विजय का सबसे अधिक जश्न अंग्रेजी मना रही है। इसलिए विश्व के अग्रणी अंग्रेजीभाषी देशों को वैश्विक अल्पसंख्यक भाषा की चिंता भला क्यों होने लगी। आज उदारीकरण में अगर यह तथ्य पूंजी के लिए उचित है कि बड़ा लगातार बड़ा हो रहा है और छोटा या तो छोटा बने रहने के लिए अभिशप्त है या समर्पण करने को बाध्य, तो यह स्थिति भाषा के संदर्भ में भी यथावत लागू होती है। इसमें फिलहाल अंग्रेजी सबसे शक्तिशाली भाषा है, क्योंकि यह मूल भाषी से अधिक द्वितीय भाषा के रूप में व्यवहृत है। दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के संवाहकों जैसे सूचना-क्रांति, अंतरराष्ट्रीय निवेश, पारदेशिक रोजगार जैसे अभिकरणों ने कभी स्थानीय भाषा या संस्कृति की चिंता नहीं की। इसलिए बहुभाषिकता लगातार संकुचित हो रही है। निश्चित रूप से भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा। यह देश जो अपनी बहुस्तरीय विविधताओं के लिए विख्यात है, वहां भाषाएं और संस्कृतियां पारिस्थितिकी की अनिवार्य इकाई हैं, धरोहर हैं, विरासत हैं, जीवन हैं और उम्मीद भी। प्राय: स्थानीय भाषाओं में भाषिक सामर्थ्य किसी मानक या कथित विकसित भाषा से अधिक होता है, जाहिर है कि देश की बहुरंगी संस्कृति और भाषाओं के सामर्थ्य पर कभी किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। लेकिन यहां चुनौती भाषिक से अधिक आर्थिक सामर्थ्य की है। जिसके सामने सब कुछ असहाय दिख रहा है।
जैसा कि स्पष्ट है, आज भाषाई संदर्भों में भी स्थिति वही है, जिसमें ‘वृहत’ लगातार वृहत्तर होता जा रहा है और ‘लघु’ के सामने लघुतर होने के अलावा कोई वैकल्पिक रास्ता सहज नहीं प्रतीत हो रहा है। प्रभु वर्ग ने हमेशा अपने अधीनस्थ को दबाया है, इसलिए भूमंडलीकरण के रूप में सृजित सत्ता से रहम की उम्मीद करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इसने समय के साथ अपनी विकरालता बढ़ाई है और इस विकरालता का एक चेहरा शोषक का ही है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आज हमारे सामने विकल्प क्या है? क्या हम व्यावहारिक धरातल में इंटरनेट का विरोध कर सकते हैं? क्या उदारीकरण के बदले कोई वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का मॉडल हमारे सामने है?
आज जो विश्व का आर्थिक ढांचा बन गया है, उसमें उदारीकरण का विकल्प क्या है? इसमें गांधी एक ऐसे समाधान के रूप में दिखते हैं, जिसमें वे स्थानीय तथा कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की वकालत करते थे, इसके साथ उनके भाषाई प्रयोग जिसमें वे हिंदुस्तानी और मातृभाषा को प्रश्रय देने की बात करते थे। इसके साथ शिक्षा का प्रसंग एक बड़ी चुनौती है, जिसमें रवींद्रनाथ ठाकुर की शिक्षा-पद्धति एक समाधान प्रस्तुत करती है। ऐसा नहीं कि आज महात्मा गांधी या टैगोर नए हैं, बल्कि समस्या यह रही कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र-निर्माण में राष्ट्रपिता की उपेक्षा हुई और हमने आंख मूंद कर पश्चिमी पैमानों को अपनाया। इसीलिए राष्ट्रवाद की भी एक पश्चिमी अवधारणा हमारे सामने आती है, जिसमें हम एक देश, एक भाषा, एक धर्म आदि की कल्पना करने लगते हैं।
भाषा को न तो संदूक में रख कर सुरक्षित किया जा सकता है और न ही सिर्फ व्याकरण की उपलब्धता से किसी दूसरी भाषा को सीखने की प्रेरणा मिलती है। आज समग्रता में रोजगार से परे शिक्षा को नहीं देखा जा सकता। आवश्यक है कि स्थानीय स्तर पर रोजगार, औद्योगीकरण और शिक्षा को बढ़ावा मिले। भाषा का बचना या बढ़ना संबंधित समाज के साथ विश्व-व्यापार, अंधाधुंध शहरीकरण, पलायन, रोजगार, शिक्षा, नीति-निर्माण आदि पक्षों पर निर्भर करता है। अगर इक्वाडोर के किसी स्थानीय नागरिक को उसकी अपनी भाषा में समग्र शिक्षा और संतोषजनक रोजगार मिल जाता, तो शायद संयुक्त राष्ट्र में उसे भाषाओं की चिंता नहीं करनी पड़ती। अब विचारणीय यह है कि भारत इस पूरी पहल में कहां है, क्योंकि भाषाई धरोहर विश्व के किसी देश से अधिक भारत में है। 2009 में जिस आधार पर संयुक्त राष्ट्र ने विश्व को भाषाई खतरों के प्रति चेताया था, उसमें भारत की भाषाएं सर्वाधिक थीं। क्या हम इन चेतावनियों के प्रति संवेदित हैं? इन दस वर्षों में देश में सामाजिक, सरकारी और अकादमिक स्तरों पर इन भाषा और संस्कृतियों के लिए क्या हुआ है? इन सब सवालों से अधिक संयुक्त राष्ट्र संघ की अपील पर ही सही अब हमें उस सवाल से भी जूझना चाहिए कि हम कितनी अपनी जनजातीय भाषा का बचाने की स्थिति में हैं और इसमें समाज और सरकार की भागीदारी किन स्तरों पर है। ऐसे में 2019 एक अवसर की तरह है, अन्यथा तो इस तरह की चिंता रोज की जानी चाहिए, ताकि संगीतमय बहुभाषिकता बची रहे।
