लंबे समय से खेल संघों पर काबिज सियासतदानों की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों को खेल से दूर रखने की हिमायत कर चुका है। लेकिन, स्थिति में कुछ खास बदलाव नजर नहीं आ रहा। ओलंपिक में भारत के खराब प्रर्दशन से आत्मविश्लेषण पर जोर दिया जा रहा है। इसकी पड़ताल कर रहे हैं सुरेश कौशिक।

खेलों को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए’। कहता हर कोई है पर अमल करने के लिए कोई तैयार नहीं। इतिहास गवाह है कि खेल संघों पर राजनेता, नौकरशाह और उद्योगपति काबिज रहते आए हैं। इन्हीं को लेकर सवाल खड़े होते हैं। इनसे खेल संघ को कितना फायदा हुआ, खेल को कितने सुपरस्टार मिले, देश में खेलों का आधार कितना मजबूत हुआ, युवा प्रतिभाओं को तराशने में कितनी सफलता मिली, खेल सुविधाओं में कितना इजाफा हुआ?सबको मालूम है कि राजनेताओं की पहली प्राथमिकता होती है राजनीति। खेलों के लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं, उनको खेल का ज्यादा ज्ञान होता नहीं, लेकिन फिर भी वे खेल संघों पर काबिज होने को लालायित रहते हैं। पैसा, पावर और पब्लिसिटी की चकाचौंध में वे बहते रहते हैं। स्थितियां कैसी भी हों, प्रदर्शन गड़बड़ा भी जाए तो भी वे हटने को तैयार नहीं होते।

कुर्सी से चिपके रहने का मोह इतना ज्यादा है कि मंत्रालयों की निर्देशिका की धज्जियां उड़ जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद ऐसे पदाधिकारी भी हैं जो बचने के रास्ते तलाशने में लगे हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, जिसमें नेताओं और उद्योगपतियों की भरमार है, ने तो जस्टिस लोढ़ा समिति की सिफारिशों पर पुनर्विचार करने की अर्जी लगा दी है। इंडियन प्रीमियर लीग में कुछ साल पहले स्पॉट फिक्सिंग और सट्टेबाजी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस मुकुल मुद्गल को जांच का जिम्मा सौंपा था। उनकी रिपोर्ट के बाद बीसीसीआई में पारदर्शिता और सुधार लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस आरएस लोढ़ा को यह जिम्मेदारी सौंपी थी। लोढ़ा समिति ने कई क्रांतिकारी कदम उठाने को कह दिया जिससे बीसीसीआई में हड़कंप मचा हुआ है।

दरअसल बीसीसीआई देश का सबसे धनी खेल संगठन है। अपने पैसे की ताकत के दम पर वह अपने को स्वतंत्र इकाई की दुहाई देकर हमेशा बचता रहा। यूपीए सरकार के दौरान जब अजय माकन खेल मंत्री थे तो उन्होंने क्रिकेट बोर्ड सहित खेल संघों पर नकेल कसने की कोशिश की थी। पर राज्य क्रिकेट संघों पर सत्तारूढ़ विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के सदस्यों ने अभूतपूर्व एकजुटता दिखाते हुए माकन के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। कांग्रेस से राजीव शुक्ला, ज्योतिरादित्य सिंधिया, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला और भाजपा से अरुण जेटली और अनुराग ठाकुर सरीखे नेताओं ने हाथ मिला लिए थे।लेकिन लोढ़ा समिति के सुधारवादी कदमों ने अब बीसीसीआई को रक्षात्मक जरूर कर दिया है लेकिन अभी भी वह समय खींचने में लगा है। सेवानिवृत्त जस्टिस मार्कंडेय काटजू को अपना कानूनी सलाहकार बनाकर क्रिकेट बोर्ड ने टकराव की राह पकड़ ली है। लेकिन जिस तरह का रुख सुप्रीम कोर्ट का है, उससे लगता नहीं कि बीसीसीआई की दाल गल पाएगी। क्रिकेट बोर्ड की कमान भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर के पास है जिन पर हिमाचल क्रिकेट संघ के अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव है। लेकिन क्रिकेट के पक्ष में यह बात जरूर है कि प्रशासनिक कुशलता से उसने अपने को आर्थिक रूप से मजबूत बनाया, खेल में पैसा आया, खिलाड़ियों पर मेहरबानी हुई, खेल की लोकप्रियता बढ़ी।

करीब तीन साल पहले जब राष्ट्रीय खेल हॉकी में गुटबाजी पनपी और मामला अदालत में पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने खेल के पतन को लेकर भी चिंता जताई थी। तब अदालत ने स्पष्ट कह दिया था कि राजनेता और उद्योगपति खेलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने यह भी कहा था कि यह बड़ा अफसोसनाक है कि खेल का प्रशासन उन लोगों के हाथों में है जिनका खेलों से कोई लेना-देना नहीं। खेल की कीमत पर संघ को चलाया जा रहा है। जिसे खेल में हम गोल्ड मेडल जीतते थे उसी में हम 2008 में बेजिंग ओलंपिक के लिए क्वालीफाई तक नहीं कर पाए। हॉकी संघ को कब्जाने के चक्कर में गुटबाजी ने ऐसा रंग दिखाया कि खेल काफी पिछड़ गया। हॉकी पर एक दशक से भी ज्यादा समय तक आईपीएस अधिकारी केपीएस गिल का दबदबा रहा। टीम को कुछ सफलताएं मिलीं जरूर पर हॉकी का ग्राफ चढ़ने की बजाय नीचे जाता रहा। लंदन ओलंपिक (2012)में टीम 12वें स्थान यानी अंतिम स्थान पर रही थी। यहां तक कि राष्ट्रीय हॉकी चैंपियनशिप का कई वर्षों तक आयोजन नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से नरेंद्र बत्रा ने हॉकी को गिल के चंगुल से निकाला।
फुटबाल की कमान जबसे राजनेताओं के पास आई, नीतियां कुछ ऐसी बनीं कि खेल की चमक ही खो गई। कांग्रेसी नेता प्रियरंजन दासमुंशी के कमान संभालने से पहले जियाउद्दीन और अशोक घोष ने फुटबाल को बखूबी चलाया था। तब भारत फीफा रैंकिंग में सौ से नीचे था। आजकल 170 के करीब पहुंच चुका है।

फुटबाल का कैलेंडर सिस्टम से बनता था। निर्धारित समय और अवधि पर आईएफा, शील्ड, डीसीएम, रोवर्स कप और डूरंड कप का आयोजन हुआ करता था। सन् अस्सी के दशक में अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन ने जवाहरलाल नेहरू आमंत्रण फुटबाल टूनार्मेंट की शुरुआत की। उरुग्वे, हंगरी और अर्जेंटीना जैसे मजबूत राष्ट्रों की टीमें कोलकाता में हुए पहले टूर्नामेंट में खेलीं। नियमित रूप से टूर्नामेंट का आयोजन होता रहा। लेकिन दासमुंशी के कार्यकाल में एक अच्छी शुरुआत हुई। वह थी 1996 में राष्ट्रीय फुटबाल लीग का आयोजन। फुटबाल में पेशेवरपन लाने के चक्कर में एआईएफएफ ने यह शुरुआत तो कर दी लेकिन इसके चलते प्रमुख टूर्नामेंटों के प्रति उदासीनता दिखा दी। डीसीएमए रोवर्स जैसे टूर्नामेंट इसी के चलते बंद हो गए। उस दौर का सबसे चिंतनीय पहलू रहा प्रशासनिक गड़बड़ियां। अंतरराष्ट्रीय फुटबाल महासंघ (फीफा) से मिलने वाली अनुदान राशि का घपला भी प्रकाश में आया।

2008 में दासमुंशी के कोमा में चले जाने पर अध्यक्ष बने एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल। लेकिन उनके आने से भी न तो फुटबाल में सुधार आया और न ही रैंकिंग सुधरी। 2017 में अंडर-17 फुटबाल विश्व कप की मेजबानी को ले आना उनकी उपलब्धि माना जाएगा। इससे जूनियर स्तर पर भारतीय फुटबाल को बढ़ावा मिल सकता है। मेजबान होने के नाते होनहार भारतीय फुटबालरों को पहली बार विश्वस्तरीय टीमों के साथ जूझने का सुअवसर मिलेगा।लेकिन दूसरी ओर दुखद खबर यह है कि दो दिग्गज भारतीय खिलाड़ियों भास्कर गांगुली और मनोरंजन भट्टाचार्य ने अखिल भारतीय फुटबाल फेडरेशन के खिलाफ अदालत का रुख किया है। मामला है कि 750 करोड़ रुपए की धनराशि का जो आईएमजी-रिलायंस से अनुबंध पर मिली। राजनेताओं के इस दौर में दो बड़े संस्थानों महिंद्रा एंड महिंद्रा और जेसीटी ने तो अपनी टीमों को ही खत्म कर दिया।

भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष हैं। लेकिन जिस तरह से ओलंपिक के लिए नरसिंह यादव और सुशील का मामला आया, कुश्ती संघ की फजीहत ही नहीं हुई, 74 किलो फ्रीस्टाइल में हासिल किया गया ओलंपिक कोटा भी बर्बाद चला गया। भारतीय खेलों की साख पर धब्बा एक और राजनेता अभय चौटाला ने भी लगाया। उनके कुर्सी मोह की वजह से भारतीय मुक्केबाजी संघ की बुरी गत बनी और भारतीय ओलंपिक संघ को अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति से निलंबन झेलना पड़ा। लेकिन उनका खेल से मोहभंग नहीं हुआ। जेल से निकलकर बिना अदालत की इजाजत के वह ओलंपिक खेलों को देखने रियो पहुंच गए। ऐसा अपने देश में ही हो सकता है। भारतीय जूडो संघ पर जगदीश टाइटलर का करीब ढाई दशक तक कब्जा रहा। जूडो में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए देश तरसता रहा। जूनियर स्तर पर पदक लाकर यह साबितनहीं होता कि आप खेल का विकास कर रहे हैं। आलम यह है कि गुटबाजी की वजह से जूडो संघ में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। साइक्लिंग फेडरेशन पर एक और राजनेता सुखदेव सिंह ढींढसा का राज रहा। अब उनके ही पुत्र परमिंदर सिंह ढींढसा कमान संभाले हुए हैं लेकिन खिलाड़ियों का भाग्य नहीं बदला। आज भी पहचान बनाने के लिए हम तरस रहे हैं।

बैडमिंटन संघ पर काबिज हैं अखिलेश दास गुप्ता। पीवी सिंधु के पदक से जरूर वह गदगद होंगे। खेल में वह पैसा ले आए, आईपीएल की तर्ज पर इंडियन बैडमिंटन लीग शुरू करा दी। लेकिन ओलंपिक में मिला पदक सिंधु और उनके कोच पुलेला गोपीचंद की मेहनत की वजह से मिला, बैडमिंटन की नीतियों से नहीं। नीति यह नहीं कहती है कि वोट की राजनीति में राज्य संघों में दो फाड़ करा दिए जाएं। पुणे से सांसद रहे सुरेश कलमाड़ी ने भी अस्सी के अंत में भारतीय एथलेटिक्स की तस्वीर बदलने की कोशिश की। लेकिन एथलेटिक्स में किए उनके अच्छे काम उस समय मिट्टी में मिल गए जब 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। घपलेबाजी के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। शोहरत से बदनामी के उनके सफर का एक फायदा यह हुआ कि पहली बार एक एथलीट आदिल सुमारीवाला एथलेटिक्स संघ के अध्यक्ष चुने गए। सुमारीवाला अपने समय के शानदार स्प्रिंटर रहे हैं।

आयु की सीमा को लेकर विजय कुमार मल्होत्रा का खेल मंत्रालय से टकराव रहा। वह कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं थे। आखिर तीरंदाजी के साथ उनका चालीस साल का सफर रहा। अखिल भारतीय खेल परिषद का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद उन्होंने तीरंदाजी का अध्यक्ष पद छोड़ा। लेकिन उन्हें संघ का आजीवन अध्यक्ष बना दिया गया। यह जरूर कहा जा सकता है कि उनके कार्यकाल में भारतीय तीरंदाजी को विश्व स्तर पर पहचान जरूर मिली। लिंबा राम से लेकर अतानु दास तक भारत ने कई चैंपियन खिलाड़ी पैदा किए। विश्व चैंपियनशिप में पदक भले ही आ गया हो पर ओलंपिक में अब तक पदक नहीं मिल पाने का मलाल जरूर रहेगा। जिस खेल को अपनाने वाले ज्यादा नहीं हों उसमें भी इनामी राशि का आना शुभ संकेत है।

यशवंत सिन्हा (टेनिस), विद्या स्टोक्स (महिला हॉकी), अभिषेक मटोरिया (मुक्केबाजी) और शरद पवार (क्रिकेट) जैसे नेताओं का खेल संगठनों पर कब्जा रहा। एमडीएमके से जुड़े एन रामचंद्रन तो भारतीय ओलंपिक संघ सहित कई खेल संघों में पैठ किए हुए हैं। खेल संघों का मुख्य काम प्रतिभा को उभारना, उन्हें आधुनिक प्रशिक्षण की व्यवस्था कराना, खेल विकास के लिए कदम बढ़ाना होता है। पर भारत अभी किसी भी खेल में ताकत बनने से कोसों दूर हैं। ‘खेल को खेल की भावना से खेला जाना चाहिए’। यह नारा दिया था 1951 में प्रथम एशियाई खेलों के दौरान दिल्ली के नेशनल स्टेडियम पर भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने । लेकिन समय बीतने के साथ इस नारे की भावना न जाने कहां लुप्त हो गई। भ्रष्टाचार और राजनीति की जड़ें गहरी हुई हैं। खेल की नब्ज को पहचानने वाले, खिलाड़ियों की जरूरत को समझने वाले लोगों की कोई कद्र नहीं है। उनको कोई आगे आने ही नहीं देना चाहता।

खेल के पास खिलाड़ी तो हैं पर सुविधाएं उच्चस्तरीय नहीं। इसीलिए जब भारतीय खिलाड़ी मैदान में उतरते हैं तो प्रतिद्वंद्वियों से मात खा बैठते हैं। तीरंदाजी में यही हुआ। भारतीय तीरंदाजों के पास सामान हल्का था। जहां तक सुविधाओं की बात है, जो हैं, उसका भी सही इस्तेमाल नहीं हो रहा। इसी के चलते नई दिल्ली में 1982 के एशियाई खेलों और 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनाए गए स्टेडियम ‘सफेद हाथी’ बनकर रह गए हैं। कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता हो तभी उपयोग होता है।  पर संघों को सस्ते में किराए पर नहीं देते। स्टेडियमों का किराया दे पाना खेल संघों की पहुंच से बाहर है। स्टेडियम इसलिए बनाए जाते हैं कि खिलाड़ियों के काम आ सकें। लेकिन अपने यहां मामला उलट है। स्टेडियम तो हैं पर उनमें खेलने वाले नहीं। यहां तक कि राज्य खेल संघों को भी अपनी प्रतियोगिताएं आयोजित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। खिलाड़ियों को कंपीटीशन नहीं मिलेंगे तो खेलों की गत बुरी बनेगी ही।

देश भर में भारतीय खेल प्राधिकरण के केंद्रों का जाल बिछा है। प्रशिक्षण और खिलाड़ियों को तराशने में काफी पैसा बहाए जाने के बावजूद नतीजे वैसे नहीं हैं जैसे होने चाहिए। देश के कई क्षेत्रों में स्पोर्ट्स स्कूल भी चलते हैं। लेकिन एक भी स्कूल ऐसा नहीं है जो लगातार देश को खिलाड़ी उपलब्ध करा रहा हो। हॉकी में हरियाणा के शाहबाद स्कूल की लड़कियां पिछले कुछ समय से बेहतरीन प्रदर्शन कर रही हैं। कमजोर प्रदर्शन का प्रमुख कारण है भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखलअंदाजी। चयन में राजनीति होती है, पसंदगी-नापसंदगी चलती है। ऐसा भी माना जाता है कि पैसा भी चलता है। खेल से जुड़े अधिकारियों के निजी स्वार्थ के चलते खेलों का कबाड़ा हो रहा है। आज हम ओलंपिक में मिले दो पदकों से ही संतुष्ट हैं। हम अच्छा करें या बुरा, किसी की जवाबदेही नहीं है। अच्छा प्रदर्शन होता तो श्रेय लेने के दावेदार कई बन जाते हैं, और खराब प्रदर्शन पर हम चुप्पी साध लेते हैं। खिलाड़ियों ने अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है, इसी को मानकर हम संतोष कर लेते हैं। ०