एक कस्बे के रेलवे बंगले में
छूट गई थीं
बचपन की ढेर सारी यादें
वे अब भी एक पोटली में बंधी रखी होंगी
किसी कोने में!
मां- पिता की अंगुलियों की छाप
अब भी टंगी होंगी
दरवाजों पर!
मैं अब भी डालती होऊंगी
भर-भर बाल्टी पानी
मोगरे, चमेली, गुलाब, गुड़हल, चांदनी, तिकंबे और मधुमालती में!
हम पच्चीस बरस पहले समेट लाए थे
सारा अपना साजो-सामान इस महानगर में!
पर, कितना ही समेटो
सारा कहां आ पाता है
साथ में!
कुछ न कुछ छूट ही जाता है
यहां-वहां
बिखरा-बिखरा
कतरा-कतरा!
बस रह जाता है…
आंखों में कुछ!
जो किनारे पर खड़े हैं
जो किनारे पर खड़े हैं
वही सबसे पहले डूबेंगे।
सबसे पहले उनकी नौकरियां जाएंगी
सबसे पहले उन्हीं की बस्तियां
आग के हवाले होंगी।
सबसे पहले वही विस्थापन के नाम पर
धकेले जाएंगे
यहां-वहां, जाने कहां-कहां
सबसे पहले उन्हीं की गलतियां अक्षम्य होंगीं
सबसे पहले उन्हीं की मां-बहनें बलात्कार की शिकार होंगी
रौंदी-कुचली जाएंगी और अंतत: मार दी जाएंगी
किनारों पर खड़े लोग
नहीं डरते हैं
प्राकृतिक विपदाओं से,
किसी अज्ञात ताकत से
इन्हें डर है तो बस
आदमी से।
कितना डर है, एक आदमी को, दूसरे आदमी से ।
क्या तुम भी किसी से डरते हो ?
अगर डरते हो
तो वह आदमी नहीं है
जिससे तुम डरते हो ।