भारत अपनी आजादी के साथ उस आधुनिकता की चमक की तरफ से भी तेजी से बढ़ा जहां समाज और राजनीति से लेकर साहित्य तक गहन विवाद और द्वंद्व के कई समांतर रूप देखने को मिलते हैं। आधुनिक हिंदी साहित्य में राजकमल चौधरी की चर्चा विवाद और द्वंद्व का वह आगाज है, जिसकी गर्मी पाठकों-आलोचकों के बीच आज भी महसूस की जाती है। देशजता से शहरी जीवन और लोक-सहजता से सभ्यतागत अराजकता तक राजकमल के पांव जहां भी पड़े, सृजन के अमिट निशान छोड़ गए। हिंदी और मैथिली के इस बेहद चर्चित लेखक-कवि का जन्म 13 दिसंबर, 1929 में उत्तरी बिहार में मुरलीगंज के समीपवर्ती गांव रामपुर हवेली में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणींद्र नारायण चौधरी था लेकिन स्नेह से लोग उन्हें ‘फूलबाबू’ कह कर पुकारा करते थे।
राजकमल के साहित्य में शोक और अंतर्द्वंद्व के द्वार कई वजहों से बार-बार खुलते हैं। इसमें एक संभावित वजह यह भी रही कि जब उनकी आयु महज 10-12 साल रही होगी तभी उनकी मां त्रिवेणी देवी का असामयिक निधन हो गया। राजकमल के माता की मृत्यु के बाद उनके पिता मधुसूदन चौधरी ने जमुना देवी से पुनर्विवाह कर लिया। जमुना देवी, राजकमल के हमवयस्क थीं। घर में सौतेली मां के आगमन के बाद से ही राजकमल के पिता से संबंध मधुर नहीं रहे।
इस शादी की वजह से राजकमल ने कभी भी अपने पिता को माफ नहीं किया। यहां तक कि 1967 में पिता के देहावसान के बाद राजकमल ने अपने पिता को मुखाग्नि नहीं दी थी लेकिन बाकी का श्राद्धकर्म पूरा किया था। राजकमल के साहित्य में जो बेचैनी और अराजक विद्रोह दिखता है उसकी नींव जाहिर तौर पर उनके निजी जीवन में है। यहां तक कि स्त्री-पुरुष संबंधों की आधुनिक बुनावट, जटिलता और उसके बीच की मलिनता को अगर वे गहनता से रेखांकित कर पाए तो उसकी बड़ी वजह उनके खुद के अनुभव भी थे।
प्रेम और विवाह को लेकर उनकी जिंदगी कई पड़ावों से गुजरती रही। आलम यह रहा कि उन्होंने दूसरी शादी अपने प्रथम विवाह में रहते हुए की पर यह शादी बमुश्किल एक साल चली। इसके बाद भी वे प्रेम से बंधे। पर हर बार जैसे एक अतृप्ति और बैचैनी ही अंतिम हासिल रहा। बड़ी बात यह कि यह सब उनकी रचनात्मकता को कई तरह की संभावनाओं और प्रयोगों से लगातार भरता गया। उनका लेखन कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और नाटककार आदि कई रूपों में सामना आया।
भाषा के लिहाज से उन्होंने मैथिली और हिंदी में तो लिखा ही, अंग्रेजी में भी लिखा। हिंदी की तुलना में मैथिली में ज्यादा समय तक लिखा, लेकिन उनका हिंदी साहित्य में योगदान काफी समृद्ध माना जाता है। हिंदी में उन्होंने आठ उपन्यास, करीब 250 कविताएं, 92 कहानियां, 55 निबंध और तीन नाटक लिखे।
हिंदी में उनका लेखन मैथिली से कई मायनों में भिन्न था। यह भिन्नता कविता के रूप में जहां ‘मुक्ति प्रसंग’ या ‘इस अकाल बेला में’ जैसी उनकी कृतियों के तौर पर सामने आई तो वहीं ‘मछली मरी हुई’ और ‘देहगाथा’ जैसे उपन्यासों के जरिए वे हिंदी में स्त्री को देखने की एक नई दृष्टि लेकर आए, जो खासी विवादित भी रही। उनकी यह दृष्टि आज भी आधुनिक जीवन व समाज के बीच देह और प्रेम की स्थिति से जुड़े कई विमर्शीय प्रस्थानों को आगे बढ़ा रही है। चार दशक से भी कम का राजकमल का जीवन रचनात्मक गहनता और विविधता के लिहाज से इतना समृद्ध है कि आश्चर्य होता है।