पंक्ति में एक के पीछे एक चलते
बनती है पगडंडी
साथ-साथ
समांतर चलने के लिए
बनानी पड़ती है सड़क
जहां होती है होड़
आगे निकलने की
पहले पहुंचने की
पगडंडी बनती है
अनुगमन से
पीछे चलने वाला
अकुंठ, समर्पित भाव से
पीछे-पीछे चलता जाता है
आगे चलने वाला
आगे चलने का श्रेय नहीं लेता
निष्काम, निरभिमान
वह चलता चला जाता है
आश्वस्त कि यों एक के पीछे एक
चलकर भी
पहुंचना तो साथ-साथ ही है!
सड़क पर चलते
सब साथ-साथ हैं
पहुंचते सभी अकेले-अकेले हैं…
पुरखों ने बनाई थीं
पगडंडियां
हमने पगडंडियों को
सड़कों में तब्दील किया
साथ-साथ चलते
हम अकेले-अकेले पहुंच रहे हैं
न जाने किन अनजान
अनचीन्हे हलकों में
और खोज रहे हैं पगडंडियां
जिधर से होकर
पुरखे गुजरे थे,
जो वास्तव में कहीं से शुरू होकर
कहीं तक भी पहुंच सकती हैं…
ताक पर दुनिया
चीजें संभालते
दम नहीं घुटता उसका
जरूरी-गैरजरूरी के बीच
अंतर नहीं करती वह
अपने हिसाब से
सबका बराबर ख्याल रखती है
जब भी दिखती है
क्षमता से अधिक उठाती दिखती है
… कि हम ही उसकी योग्यता
कम आंकते हैं शायद
जब कि यह परम आश्वस्ति का भाव है
यह भी नहीं कि
कोई बनी-बनाई चीज ही हो ताक
जिस पर हम
अपनी बुद्धि तक रख छोड़ते हैं
और निश्चित हो रहते हैं
कई बार चीजें और सामान
अपनी औकात भूल
उसकी भूमिका निभाने लगते हैं
और ढोना शुरू कर देते हैं
जैसे कुर्सी पर किताबें
और उसके ऊपर चाय की प्याली
चौकी पर संदूक
और उसके ऊपर कपड़े-लत्ते
यह कितना कुछ ढोता चला जा रहा हूं
दुनिया और दुनियादारी …
जिसे ताक पर रख छोड़ना था
खुद उठा, फिर रहा हूं
बोझा भारी हो रहा है
कोई आकर कुछ उठा ले जाता
कुछ जरूरी…
(शिवदयाल)