जहीर कुरेशी

हिंदी में गजल ने उर्दू की काव्य-परंपरा को आत्मसात करते हुए अपना विकास किया है। वह भी वज्न और बहर को मानती है और अरेबिक अर्कानों का पालन करने वाले इल्मे-अरूज को स्वीकार कर हिंदी की प्रकृति, पहचान और शब्द-शक्ति से उसके अनुभव-कोष को विस्तार दे रही है। हिंदी गजल भी ‘तगज्जुल’ को स्वीकार और शेर कहते हुए अभीष्ट सांकेतिकता की अधिकतम रक्षा करना चाहती है। हिंदी गजल के पास अपनी विराट शब्द-संपदा है, मिथक, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, रदीफ और काफिए हैं। शिल्प और विषय का उत्तरोत्तर विकास भी इसमें दिखता है। इस प्रक्रिया और विकास की पृष्ठभूमि में समकालीन जीवन की जटिल परिस्थितियां भी महत्त्वपूर्ण हैं। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तन भी इसकी पृष्ठभूमि में हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी गजल का उद्भव अकस्मात नहीं हुआ। यह गतिशील संघर्ष प्रक्रिया का परिणाम है।

गजल वार्णिक छंद है, जिसकी व्याकरणीय शुद्धता जांचने की कसौटी उसकी (अरेबिक) बहर है। सोने को खरा साबित होने के लिए कसौटी से गुजरना ही पड़ता है। हिंदी गजल भी उर्दू गजल की शैली में अरेबिक बहरों को मानती है और अपनी परख के लिए ‘बहर’ की छंदानुशासी ‘तक्तीअ’ के लिए तैयार है। हिंदी के कुछ नए अरूजियों (छंद-शास्त्रियों) ने ‘रुक्न’ और ‘बहरों’ के हिंदी नामकरण की चेष्टा की है। पर उनके इस प्रयत्न से सहमत नहीं हुआ जा सकता। फारसी गजल ने अरेबिक अर्कान को स्वीकार किया, उर्दू गजल ने भी इसका अनुगमन किया, फिर हिंदी गजल के सर्वस्वीकार्य मानकों से हटने का क्या औचित्य है? नए मानक स्वीकृत होने तक, हिंदी गजल को जिन अंतर्द्वंद्वों से गुजरना पड़ेगा, उससे बेहतर है कि वह अरेबिक बहर स्वीकार कर, अपने को केवल मन, वचन, कर्म से हिंदी की गजल सिद्ध करे। यह हिंदी गजल के लिए अधिक उदार, समावेशी और सरल रास्ता है।

हम सब जानते हैं कि आरंभिक तौर पर नई विधाओं के साथ हमेशा संशय बने रहते हैं। पचास वर्ष आयु की हिंदी गजल के साथ भी हैं। मगर इस कालावधि में भाषाई स्तर पर मध्यमार्गी हिंदी गजलकारों ने गजल के चरित्र और मिजाज को समझा है। अनेक आत्म-संघर्षों और विमर्शों से गुजरने के बाद हिंदी में गजल कहने वाले अधिकतर गजलकारों ने भाषाई स्तर पर एक बीच का रास्ता चुन लिया है। आज मध्यमार्गी हिंदी गजलकार ही हिंदी गजल की काव्य-परंपरा को आगे बढ़ाने वाले माने जा सकते हैं। रदीफ, काफिया, मतला, बहर, तक्तीअ आदि मूलभूत सिद्धांतों को मानते हुए भी, हिंदी का समकालीन गजलकार उर्दू गजल की निम्न बातों को नहीं मानता-

– उर्दू के केवल उन प्रचलित शब्दों को समकालीन हिंदी गजल में मान्य किया जाता है, जो सचमुच आज की जनभाषा में लोकप्रिय हैं। मसलन, सियासत, जुबान, मजा, रौनक, इंकिलाब, परचम, पैगाम आदि जैसे जन-प्रवाह में घुले-मिले शब्दों को तो हिंदी गजल के शेरों में उपयोग कर लिया जाता है। पर, साकित, गर्काब, फुसूंगर, तकल्लुम, बरहम, सम, तलातुम आदि शब्दकोश में देख कर समझने योग्य उर्दू शब्दों को हिंदी गजलकार अपनी शायरी में उपयोग नहीं करते।

– उर्दू में तराकीब (विभक्ति-कौशल) से बनाए गए शब्दों (जैसे, लज्जते-अहसासे-उल्फत, जुस्तजू-ए-खुद, चश्मे-नम, करारो-लुत्फ आदि) को समकालीन हिंदी गजल शेरों में अस्वीकार करती है।

– ‘राज’ का काफिया ‘आज’ से और ‘आगाज’ का सानुप्रास ‘ताज’ से मिलाने वाले गजलकारों को हिंदी गजल में हतोत्साहित किया जाता है।

– समकालीन हिंदी गजल में (2+1) पदभार के अनेक (यथा- शह्र, जम्अ, दख्ल, रह्म, सुब्ह, सुल्ह, शम्अ, फस्ल, नक्द, वह्म, वज्ह आदि) शब्दों को (1+2) के पदभार (जैसे, शहर, जमा, दखल, रहम, सुबह, सुलह, शमा, फसल, नकद, वहम, वजह) में उपयोग किया जा रहा है। क्योंकि हिंदी आलेख, कहानी, छंद-मुक्त कविता, गीत, दोहे में उपरोक्त जन-प्रवाह में लोकप्रिय उर्दू शब्द (1+2) के पदभार में ही प्रयोग किए जाते हैं।

– इसी प्रकार, पियाला, परवा, जियादा, खंडर, मुआमला, मुआफ, मसअला, मशअल, तजरुबा, किल्आ जैसे लोकप्रिय उर्दू शब्द हिंदी गजल में प्याला, परवाह, ज्यादा, खंडहर, मामला, माफ, मसला, मशाल, तजुर्बा, किला शब्दों के रूप में उपयोग किए जा रहे हैं।

समकालीन हिंदी गजल की इसी व्याख्या के क्रम में, यह बताना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि रदीफ, काफिया, मतला, बहर, तक्तीअ आदि मूलभूत सिद्धांतों को मानने वाली हिंदी गजल आज उर्दू गजल की और कौन-कौन सी बातों का अनुसरण कर रही है:

– प्राय: देखा गया है कि उर्दू गजल में ‘अलिफ’, ‘ये’ आदि के काफिए स्वीकार्य हैं- जिनके कारण शेरों में सानुप्रास सरल हो जाते हैं। हिंदी गजल भी अपने शेरों में बड़े आ, बड़ी ई, बड़ा ऊ, ए, ओ वर्णों की मात्राओं के काफिए (उर्दू गजल की शैली में ही) उपयोग कर रही है।

– उर्दू गजल में मिसरे या शेर की आवश्यकतानुसार मेरा, तेरा, कोई, और, वो आदि शब्दों को मिरा, तिरा, कुई, उर, वु पढ़ा जा सकता है। तक्तीअ करते हुए, उपरोक्त शब्दों की मात्रा दबा कर पढ़ने की स्थिति में ही गणना की जाती है। हिंदी गजल भी इस सुविधा का पूरा-पूरा लाभ उठा रही है।

इसी प्रकार, नियमानुसार का, की, के, से, को, लो, दोनों, जाएगी, रहे, किया, ऐसा, देखो, है, हैं, पी, सकते, सकता, उठना, जागना, आपकी रखी, था, थी, हूं आदि शब्दों की अंतिम (दीर्घ) मात्राएं गिराई जा सकती हैं। यानी दीर्घ होते हुए भी, अंतिम वर्णों को कई बार उर्दू गजल में लघु गिना जाता है। समकालीन हिंदी गजल ने उर्दू की इस सुविधा को स्वीकार कर लिया है और शायरी में नियमानुसार इसका उपयोग कर रही है।

– उर्दू गजल में वस्ल के नियम से शायरी को बहुत लाभ हुआ है। वस्ल के नियम के अंतर्गत शेर में अगर दो शब्द एक-दूसरे के निकट हैं। पहले शब्द का अंत (लघु) व्यंजन वर्ण के रूप में हो रहा है। दूसरे निकट के शब्द का आरंभ (दीर्घ) स्वर वर्ण के रूप में हो रहा है, तो व्यंजन और स्वर को वस्ल (संयुक्त) किया जा सकता है। जैसे, मिसरा है- बहुत थक गया हूं, कुछ आराम दे दो। वस्ल करने के बाद, मिसरे को यों पढ़ा जाएगा- बहुत थक गया हूं, कुछाराम दे दो।

(ब) मिसरा है, अगर और जीते रहते, यही इंतिजार होता। वस्ल करने के बाद, मिसरे को कुछ यों पढ़ा जाएगा- अगरौर जीते रहते, यही इंतिजार होता।

उल्लेखनीय है कि समकालीन हिंदी गजल ने वस्ल (संयुक्त करने) की इस सुविधा को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है और अपने शेरों में नियमानुसार इसका उपयोग भी कर रही है।

– उर्दू गजल में, आवश्यकतानुसार मिसरे के अंतिम शब्द के सर्वांतिम लघु वर्ण को (तक्तीअ के समय) लोप करने की सुविधा है। जैसे, मिसरा है- दूर तक फैली हुई तन्हाइयों में तेरी याद। तक्तीअ करते समय मिसरा यों पढ़ा जाएगा- दूर तक फैली हुई तन्हाइयों में तेरी या।

आवश्यकतानुसार मिसरे के अंतिम शब्द के अंतिम लघु वर्ण को लोप करने की सुविधा का लाभ समकालीन हिंदी गजल भी उठा रही है।

पांच दशक लंबी यात्रा के बाद, समकालीन हिंदी गजलकारों का आत्मविश्वास काफी बढ़ा है। देवनागरी में, लब्ध-प्रतिष्ठ प्रकाशनों से इल्मे-अरूज (गजल के छंदशास्त्र) की आधिकारिक पुस्तकों के बाजार में आने के बाद, हिंदी के नए गजलकार भी वज्न, बहर, तक्तीअ जैसे गजल के मूलभूत सिद्धांतों से ‘लैस’ दिखाई दे रहे हैं। हिंदी के गजलकारों के पास समकालीनता की बेहतर समझ तो है ही। फलस्वरूप आज की हिंदी गजल मुख्यधारा की कविता होने के मार्ग पर पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ रही है।