देश की ग्रामीण और आदिवासी महिलाएं एक गहरे संकट से गुजर रही हैं। सरकारी स्तर पर जागरूकता के प्रयासों के बावजूद सदियों से चले आ रहे रीति-रिवाजों और परंपराओं के तहत महिलाओं को अशुभ और डायन बताना अब तक जारी है। कहीं महिलाओं को डायन बताकर मार दिया जाता है तो कहीं अगर कोई स्त्री विधवा या परित्यक्ता है, तो समाज से उसे पूरी तरह बहिष्कृत करने का प्रयास होता है। हाल में, बिहार के गोपालगंज जिले के बरौली इलाके की घटना इस संदर्भ में प्रासंगिक है, जहां एक ग्रामीण स्कूल पर गांववालों ने इसलिए ताला जड़ दिया क्योंकि वहां एक विधवा स्त्री को सरकार ने मिड-डे मील बनाने के लिए रसोइया नियुक्त किया गया था। ग्रामीणों का मत है कि विधवा स्त्री के हाथ का बना भोजन खाने से उनके बच्चों को देवताओं को कोप झेलना पड़ सकता है।
गोपालगंज के जिलाधिकारी ने अंधविश्वास के इस मामले में दखल दिया और उस विधवा के हाथ का बना खाना खाकर और विरोध कर रहे लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने की चेतावनी देकर इस प्रकरण को सुलझाया। ग्रामीण इस मामले में कितना सहयोग करेंगे, यह तो भविष्य ही बताएगा। देश के ज्यादातर ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में महिलाओं को लेकर तरह-तरह के रीति-रिवाज, परंपराएं और अंधविश्वास प्रचलित हैं। इन परंपराओं और अंधविश्वासों का इधर एक यह नया रूप सामने आया है कि जो महिलाएं लीक से हटकर काम कर रही हैं, समाज उनके खिलाफ ज्यादा कठोर रुख अपना रहा है। असम के कार्बी आंगलांग जिले की राष्ट्रीय एथलीट देबजानी बोरा को डायन बताकर उनके साथ मारपीट की गई थी। देबजानी का अपराध यह था कि राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं में उसने पदक जीते, जिससे उसका गांव चर्चा में आ गया।
इस चर्चा से भविष्य में गांव का क्या भला हो सकता है, यह देखने की बजाय गांव के अंधविश्वासी लोगों ने यह देखा कि देबजानी के साथ जाने कौन-कौन लोग गांव में आ रहे हैं जो पहले कभी वहां नहीं दिखते थे। ऐसे संदेह करते हुए ग्रामीणों ने देबजानी को गांव की समस्याएं बढ़ाने की वजह मान लिया और अक्तूबर, 2014 में गांव के एक धार्मिक सभागार में जमा भीड़ ने इन अपरिचित वजहों का दोषी मानते हुए राष्ट्रीय एथलीट देबजानी को डायन कहा और उसे जमकर पीटा था। यह एक विचित्र मामला था जिसमें देश-दुनिया की जानकारी रखने वाली एथलीट को डायन कहा और प्रताड़ित किया गया हो। अनपढ़ और बेसहारा महिलाओं को इस कलंक से जोड़कर उन पर अत्याचार ढाए जाते रहे हैं। इन सारे प्रकरणों ने यह खुलासा भी कर दिया है कि जागरूकता की कोशिशों के बावजूद हमारा समाज महिलाओं को डायन कहकर प्रताड़ित करने से बाज नहीं आ रहा है।
मई 2015 में डायन का आरोप लगाकर झारखंड के नक्सल प्रभावित आदिवासी जिले सिमडेगा के सरईपानी गांव में दो महिलाओं को मार दिया गया था। गांव में एक लड़की काफी समय से बीमार थी, जिसके उपचार के लिए एक ओझा ने उसके परिवार से कहा था कि वह डायन की मौजूदगी के कारण बीमार है। इस संदेह में दो महिलाओं को पहले डायन घोषित किया गया, फिर उनकी हत्या कर दी गई।
ये घटनाएं साबित करती हैं कि सामाजिक चेतना की जाग्रति के दावों और कानूनों की कड़ाई के बावजूद जादू-टोने और अंधविश्वास की रूढ़ियों के बीच ऐसी कुप्रथाएं जीवित हैं। हर साल सैकड़ों ग्रामीण महिलाएं इनकी शिकार बन रही हैं। पिछले साल अगस्त में संसद में राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने जो आंकड़े पेश किए थे, उनके मुताबिक 2013 में देश के दूरदराज के इलाकों में जादू-टोने और अंधविश्वासों से जकड़े समाज ने एक सौ साठ महिलाओं को डायन कहकर मार दिया था। पिछले तीन-चार वर्षों में डायन के नाम पर लगभग 525 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है। जहां तक डायन कहकर मार दी जाने वाली महिलाओं का प्रश्न है, उनकी सुरक्षा के संबंध में महिला-बाल विकास मंत्रालय की दलील है कि डायन के नाम पर प्रताड़ना और हत्या की घटनाएं भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय अपराध हैं। यानी भले ही इस बारे में मंत्रालय के पास अपनी कोई योजना न हो, लेकिन अगर पहले से कायम कानूनों को ठीक से लागू किया जाए तो समस्या का समाधान हो सकता है।
विडंबना यह है कि ऐसे मामलों की जानकारी सरकार को होती है, फिर भी इनकी रोकथाम नहीं हो पाती है। ऐसी कुप्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने वालों को सरकार की तरफ से कोई संरक्षण नहीं हासिल है, इसलिए अंधश्रद्धा के हिमायती उन्हें अपने रास्ते से हटाने से बाज नहीं आ रहे हैं। अंधश्रद्धा के खिलाफ मुहिम चलाने वाले समाजसेवी नरेंद्र दाभोलकर की महाराष्ट्र में हत्या कर दी गई। दाभोलकर उन ओझाओं, बाबाओं और तांत्रिकों के निशाने पर थे, जिनकी दुकानदारी अंधविश्वासों पर चलती थी। यही वजह है कि कहीं महिलाओं को डायन तो कहीं डाकन, तेनी या टोनी, पनव्ती, मनहूस और ऐसे ही नामों से लांछित कर उसे बहिष्कृत किया जाता है। हमारे देश में गांव-देहात और छोटे कस्बों में अब भी ओझा, भोपा और तांत्रिक किसी सामान्य औरत को कभी भी बड़ी आसानी से अशुभ या डायन घोषित कर देता है और पूरा समाज उस महिला की जान लेने पर उतर आता है। विचित्र बात है कि कई बार ऐसे मामलों में उनके अपने परिवार वाले और रिश्तेदार भी शामिल हो जाते हैं।
अहम सवाल यह है कि समाज में कायम कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ आखिर कोई जंग कैसे छेड़ी जाए। इसका एक उपाय कानून बनाना हो सकता है जिसमें अंधश्रद्धा फैलाने वालों को दंडित करने का प्रावधान हो। ब्रिटिश राज में 1829 में लॉर्ड बेंटिक ने जब तक सती प्रथा के विरोध में कानून नहीं बनाया, तब तक कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि पति के साथ चिता में उसकी विधवा को जला डालना एक अंधविश्वास है और कायदे से इसके लिए महिला को सती होने के लिए मजबूर करने वाले लोगों और समाज को दंडित किया जाना चाहिए। सती प्रथा का विरोध करने वालों को फटकारते हुए लॉर्ड बेंटिक ने कहा था कि अगर शासक अपनी आंखों के सामने एक स्त्री को जिंदा जलते हुए देखने के बाद भी हस्तक्षेप न करे, तो वह शासन करने के लायक नहीं हैं। इसी तरह दाभोलकर भी सवाल उठाते थे कि अगर उनकी सरकार किसी इंसान को बलि चढ़ते देख या उसे अघोरी प्रथा का शिकार होते देख चुप है तो ऐसे शासक कायर ही कहलाने चाहिए।
विधवा स्त्रियों को तो अक्सर ही समाज में अंधविश्वासों का शिकार बनाया जाता है। कई बार तो संपत्ति कब्जाने के षड्यंत्र में किसी भी बेसहारा विधवा को डायन घोषित करके मार डाला जाता है। किसी गांव में किसी बच्चे की बीमारी से मौत हो जाए, गाय दूध देना बंद कर दे, कुएं का पानी सूख जाए तो दोष किसी अकेली, बेसहारा, परित्यक्ता या विधवा पर डाल दिया जाता है। ओझा बता देता है कि फलां दिशा में रहने वाली महिला, जो असल में डायन है, उसके प्रकोप से ऐसा हुआ है। फिर किसी बलि के बकरे की तलाश शुरू हो जाती है। वास्तव में इस अज्ञानता के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाने और सख्त कानून की दरकार है। इस संबंध में सामाजिक जागरूकता के लिए शिक्षा की भी जरूरत है।
अभी भी देश के गांव-देहात के लोग शिक्षा का लाभ उठाने की हैसियत में नहीं आ पाए हैं, इसलिए सामाजिक कुप्रथाएं भी नहीं मिट पा रही हैं। लेकिन जैसे ही शिक्षा तक उनकी पहुंच बढ़ेगी, शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी कुप्रथाओं में कमी आ पाएगी। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जब देश में दहेज हत्या, मान-हत्या आदि मामले सामने आने पर उनके खिलाफ सैकड़ों आवाजें उठ सकती हैं तो ऐसे महिलाओं को अशुभ बताने-ठहराने वाली प्रथाओं आदि अंधविश्वासों के विरोध में कोई बड़ा अभियान क्यों नहीं चल सकता।