डॉ. वरुण धीर
जीवन बिना कर्म के नहीं चल सकता है। सांस लेना भी एक कर्म है और यह सांस भी शरीर मिलते ही शुरू हो गई और जब तक शरीर है यह चलती ही रहेगी। इसी तरह से मन भी जन्म से लेकर मृत्यु तक बिना बाधा के चलता रहता है। कर्म के तीन आधार हैं- मन वचन तथा शरीर। इसी तरह इसकी श्रेणी भी तीन है- सात्विक राजसिक तथा तामसिक। त्रिगुण कर्म की व्यवस्था तथा व्याख्या योगीराज श्री कृष्ण ने बहुत ही सुंदर तरीके से गीता में दी है।

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषत: कृतम्।
अफप्रेप्सुना कर्म यतत्सात्विकमुच्यते॥

जिन कार्यों का विधान शास्त्र के अनुसार नियमबद्ध हो, जिस प्रकार से वेद, वेदांग, दर्शन, उपनिषदों में कर्मों की आज्ञा दी गई है, उसी के अनुसार जीवन में कर्म करने चाहिए क्योंकि ऐसे कर्म मानवता, प्रकृति तथा आध्यात्मिक ज्ञान बढ़ाने वाले होते हैं। जिस कर्म में आसक्तिन हो यानी कर्म तथा उसका भोग तो किया जाए लेकिन आसक्त होकर नहीं। जो कर्म फल की इच्छा न रखते हुए और राग-द्वेष से पृथक होकर किया गया हो, ऐसे कर्म सात्विक कर्म की श्रेणी में आते हैं।

परमात्मा द्वारा बनाई गई यह सृष्टि अत्यंत सूक्ष्म रूप तथा सूक्ष्म भाव से काम करती है और कर्म फल व्यवस्था ही एक ऐसी व्यवस्था है जिसे समझ पाना अत्यंत कठिन कार्य है। बड़े-बड़े योगी, ऋषि-मुनि इस कर्म फल की व्यवस्था का जब अत्यंत सूक्ष्म तथा गहराई से अनुसंधान करते हैं तो हाथ खड़े कर देते हैं कि केवल परमात्मा के सिवाय इस व्यवस्था की जड़ तक कोई नहीं जा सकता है। इतने सूक्ष्म कर्म के गणित की व्यवस्था केवल अत्यंत सूक्ष्म परमात्मा ही बना सकता है और जो बना सकता है वही उसको चला भी सकता है। हालांकि त्रिगुण प्रकृति के गुण हैं लेकिन परमात्मा ने प्रकृति के इन गुणों को बहुत ही सुंदर ढंग से मनुष्य के जीवन में स्थान दिया है।

मन, बुद्धि, अहंकार और ज्ञानेंद्रियां इत्यादि सब प्रकृति हैं और जड़ हैं लेकिन उस दयालु परमात्मा ने ब्रह्मांड की रचना तथा उसका उपयोग आत्मा के उत्थान के लिए ही बना कर आत्मा पर बहुत बड़ा उपकार किया है। सात्विक कार्यकर्ता के कर्म भी उसी प्रकार होते हैं। पूरी तरह से आसक्ति रहित। मैंने यह किया, मैंने वह किया, इस प्रकार के अहंकार से शून्य, धैर्य तथा उत्साह से युक्त कर्म को बुद्धिपूर्वक विचार करके जो करता है वह सात्विक कार्यकर्ता कहलाता है।

जब सात्विक कर्म तथा कर्ताओं की संख्या समाज में अधिक होती है तो चारों ओर का वातावरण आध्यात्मिक हो जाता है। प्रकृति प्रस्फुटित होकर शुद्धता तथा शांति बनाए रखती है। जीवन में आनंद ही आनंद बना रहता है। वो समाज और राष्ट्र सुखी है, जहां हिंसा और कलह के साथ कर्म न होते हो, जहां प्रेम, उत्साह और धैर्य का वास हो वहीं पर सात्विक कर्म तथा कर्ता का निवास होता है।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥

जो कर्म बहुत प्रकार की कामनाओं के लिए अत्यंत कष्ट सहकर तथा अहंकार की तृप्ति के लिए किया जाता है, वह राजसी कर्म कहलाता है। इस कर्म की श्रेणी में भौतिक इच्छाओं की पूर्ति तथा अहंकार को पोषित किया जाता है। आज तमाम विकसित देशों में ही नहीं, विकासशील देशों में भी भौतिकता की पराकाष्ठा है। प्रत्येक व्यक्तिआज अपने को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करता है। अपने घर, गाड़ी, प्रतिष्ठानादि को दिखाना चाहता है। व्यक्ति के मन का अहंकार दूसरों को दिखाने से संतुष्ट होता है लेकिन वास्तव में वह संतुष्ट नहीं बल्कि अंदर ही अंदर अधिक बढ़ता चला जाता है और व्यक्तिके शरीर, वाणी तथा कर्म में झलकता है।

व्यक्ति का वह कर्म राजसिक है जिसमें वह अपनी इच्छाओं को किसी भी तरीके से परिश्रम करके पाना चाहता है। भिन्न-भिन्न पदार्थों में राग रखना, सभी कर्म फल की प्राप्ति को ध्यान में रखकर करने वाला, लोभी, लालची, यहां तक कि हिंसा से फल प्राप्त करने की वृत्ति तथा कर्म करने के बाद यदि फल मिल गया तो हर्षित होना और फल न मिलने पर शोक मनाने वाला व्यक्ति राजसिक कार्यकर्ता कहलाता है। आज समाज में राजसिक कर्म अधिक दिखाई देते हैं।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्ततामसमुच्यते ॥

परिणाम, परिणाम के परिणाम तथा उनके परिणाम, अपने हित में क्या है तथा दूसरों के प्रति हिंसा, अपनी शक्ति-पुरुषार्थ को ठीक से न पहचान कर मूर्खतापूर्ण तरीके से जो कार्य किया जाता है, वह तामसिक है। बिना विचारे कुछ भी करते रहना, जो कार्य नहीं करना चाहिए ऐसे कार्य में समय, शक्ति तथा धन का दुरुपयोग करना आदि कर्म जीवन के आनंद को क्षीण कर देते हैं।

तामसिक कर्म में उत्तेजना तो होती है लेकिन उत्साह नहीं होता है। उत्तेजना में मूर्खतापूर्वक कर्म अधिक होते हैं लेकिन उत्साह में धैर्य बना रहता है। उत्तेजना क्षणिक होती है उत्साह जीवन भर बनाकर रखा जा सकता है। जहां भी समाज में दुख है उसकी जड़ में तामसिकता अधिक है। अत्यधिक वायु, जल तथा ध्वनि प्रदूषण, चारों तरफ हिंसा, गरीबी, गंदगी, ये सब समाज में तामसिक कर्मों के कारण ही हैं। तामसिक कर्मों के कारण ही आज अस्पताल और जेल भरे हुए हैं। भ्रष्टाचार, दुराचार तथा व्यभिचार चारों ओर दिखाई देता है।

परमात्मा की व्यवस्था में सभी कुछ सुंदर और संतुलित है जिससे कभी भी किसी का मन नहीं भर सकता लेकिन मनुष्य की बनाई हुई व्यवस्था में कुरूपता अशुद्धता तथा असंतुलन दिखाई देता है क्योंकि जड़ में राग-द्वेष और लोभ-लालच है। इसलिए मनुष्य की व्यवस्था में मन दुखी तथा द्वंद्व में उलझा रहता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति युक्तिपूर्वक सोच-विचार कर काम नहीं करता, जो ऊंची भावनाओं से प्रेरित न होकर साधारण भावनाओं में ही उलझा रहता है, अहंकारी तथा बदला लेने के स्वभाव वाला आलसी, निरुत्साहि तथा दीर्घ सूत्री ( हर कार्य को देर से करने वाला) व्यक्ति तामसिक कार्यकर्ता कहलाता है।

दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं। देवता, मनुष्य तथा राक्षस। देवता वह होता है जो अपना काम बिगड़ जाए लेकिन दूसरे का काम बनना चाहिए, जो इस भावना को लेकर चलता है तथा सदा दूसरों का भला तथा परोपकार की भावना रखता है। देवता व्यक्ति सात्विक श्रेणी में आता है। मनुष्य वह होता है, जो अपना कार्य प्रमुखता से करता है और यदि उसके साथ दूसरे का भी काम बन जाए तो ठीक है। ऐसे लोग अपने काम को दूसरों के काम से अधिक महत्व देते हैं। मुख्य रूप से जो केवल अपने बारे में सोचता व कार्य करता है वह मनुष्य राजसिक श्रेणी में आता है।

राक्षस श्रेणी में वह होता है जो दूसरों का काम बिगाड़ता है। ऐसा व्यक्ति इतना मूर्ख होता है कि दूसरों के कार्य तो बिगाड़ ही देता है, साथ में अपना काम भी बिगाड़ लेता है। ऐसे मूर्ख राक्षस श्रेणी में आते हैं। इसलिए जीवन में सात्विकता की ओर बढ़ कर काम करना ही जीवन में आनंद को लाता है। तमस से रजस , रजस से सत्व की ओर बढ़ना ही गीता का उपदेश है।