पवन माथुर
भाषा की जैव प्रकृति का अध्ययन मस्तिष्क में उपलब्ध तंत्रिका ढांचे और क्रियाविधियों पर हो रहे शोधकार्यों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। फें्रच न्यूरोसर्जन पॉल ब्रोका सन 1861 में ऐसे मृत व्यक्ति के मस्तिष्क की जांच कर रहे थे, जो भाषा तो समझ लेता था, पर पूर्ण वाक्य बोलने-लिखने में असमर्थ था। ब्रोका ने पाया कि उसके मस्तिष्क के बाएं अर्द्ध-गोलार्द्ध के अगले हिस्से में घाव था। भाषा के लिए हम बाएं अर्द्ध-गोलार्द्ध के अगले भाग का उपयोग करते हैं। उसके बाद जर्मन न्यूरोसर्जन कार्ल-वर्निक ने मस्तिष्क की शल्य क्रिया द्वारा निष्कर्ष निकाला कि जिन मनुष्यों की भाषा टूटी-फूटी होने के साथ-साथ असंगत भी हो जाती है, वे बाएं अर्द्ध-गोलार्द्ध के पिछले भाग में हो गए घावों से ग्रस्त होते हैं। इसलिए बाएं अर्द्ध-गोलार्द्ध का अगला/ पिछला भाग, भाषा का जन्म-केंद्र तो है ही, इस हिस्से के तंत्रिका ढांचे में क्षति पहुंचने से भाषा की हमारी मूल-प्रकृति का ध्वंस भी हो सकता है।
रूसी भाषाविज्ञानी रोमां याकाब्सोन ने सन 1956 में प्रस्तावित किया कि ह्यव्याधि-जनित भाषा विकृतिह्ण शब्द-चयन की विकृति है। यहां संज्ञाएं लुप्त होने लगती हैं, सभी कुछ ह्यवहह्ण में लोप हो जाता है। समानधर्मा या पर्यायवाची शब्द उपलब्ध नहीं हो पाते। ह्यचाकूह्ण पेंसिल-गढ़ने वाला या फिर ह्यसेब छीलनेह्ण वाला औजार हो जाता है, मरीज लाक्षणिक शब्द-व्यापार से काम चलाने लगता है।
तंत्रिका-विज्ञान शोध से मालूम होता है कि भाषा का उपयोग मस्तिष्क के किन्हीं विशिष्ट स्थलों को क्रियाशील कर देता है। स्वनिमों और वर्णों के गट्ठर, किन्हीं जैव-रासायनिक क्रिया-प्रणालियों द्वारा ह्यशब्द-कूटह्ण में परिवर्तित होकर, मस्तिष्क के ह्यकोशिका-तंत्रह्ण का हिस्सा हो जाते हैं। यह माना गया है कि जैविकी आधारित ह्यसार्वभौमिक-व्याकरणह्ण मानव जाति के जीव-विज्ञान का हिस्सा है। इस आंतरिक व्याकरण को सीखने की जरूरत नहीं पड़ती, बल्कि इसके इस्तेमाल से कुछ हफ्ते पहले जन्मे शिशु अंग्रेजी के ह्यपीह्ण, ह्यटीह्ण और ह्यकेह्ण स्वनियों में अंतर करने की क्षमता रखते हैं, जिन्हें उन्होंने सीखा ही नहीं होता। इस ह्यआंतरिक सार्वभौमिक व्याकरणह्ण को ह्यब्रोका-स्थलह्ण से जोड़ा गया। वे मरीज, जिन्हें ह्यब्रोकाह्ण क्षेत्र में क्षति पहुंची होती है, व्याकरण संबंधी गलतियां अधिक करते हैं। हालांकि अब आधुनिक तकनीक जैसे ह्यपैटह्ण, जिसके माध्यम से हम मस्तिष्क के क्षति-ग्रस्त स्थल का त्रि-आयामी चित्र खींच सकते हैं और ह्यएफएमआरआइह्ण (जिसके माध्यम से मस्तिष्क की क्रियाहीन अवस्था को उसकी क्रियाशील अवस्था में से घटाने के बाद यह चिह्नित किया जाता है कि मस्तिष्क के कौन से स्थल, किस क्रिया के दौरान सक्रिय थे) से यह जाना गया है कि ह्यब्रोका और वर्निकह्ण स्थलों से इतर भी कई आसपास के स्थल हैं, जो भाषा की प्रक्रिया में संलिप्त होते हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना ठीक होगा कि ह्यभाषाह्ण मस्तिष्क के कई हिस्सों में विकेंद्रित है और मस्तिष्क के किसी एक हिस्से को व्याकरण-जनित नियमों या ह्यशब्दार्थतंत्रह्ण से जोड़ना उचित नहीं होगा।
एक अध्ययन के अनुसार जब प्रतिभागियों से अपूर्ण शब्दों को पूरा करने को कहा गया, तब कुछ दिलचस्प नतीजे सामने आए। मसलन, अगर उन्हें ह्यपुराह्ण शब्दांश से शब्द बनाने को कहा जाए, तब प्रतिभागी कई शब्द बना सकता है। जैसे पुराना, पुराण, पुराकाल, पुरातन, पुरातत्त्व, पुरालिपि, पुराकृत आदि। यानी प्रतिभागियों के मस्तिष्क के बाएं गोलार्द्ध का अगला भाग अधिक सक्रिय हो उठता था। इसके विपरीत अगर हम प्रतिभागियों को ऐसा शब्दांश देते हैं, जिससे सीमित शब्द बनाने की संभावना हो जैसे ह्यपुलिह्ण पुलिस, पुलिन, पुलिया… तब मस्तिष्क के अगले भाग में सक्रियता अपेक्षाकृत कम हो जाती है। पर दिलचस्प है कि जब मस्तिष्क के बाएं गोलार्द्ध के दाहिने भाग में स्थित ह्यसैरीबलमह्ण में क्रियाशीलता को मापा जाता है, तब ह्यपुराह्ण के बरक्स ह्यपुलिह्ण में यह सक्रियता अधिक बढ़ी हुई मिलती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मस्तिष्क का अगला भाग (प्री-फ्रटंल-कोर टैक्स) और दाहिना पिछला भाग (सैरीबलम), भाषा से जुड़े अलग-अलग कार्यों के लिए विशेष हैं। एक अन्य अध्ययन से पता चला कि ह्यसंज्ञा-शब्दह्ण की अपेक्षा ह्यक्रिया शब्दह्ण में ह्यसूचनागत-बोझह्ण संज्ञा के बरक्स कहीं ज्यादा है। जब हम क्रिया ह्यकहां गयाह्ण का उपयोग करना चाहते हैं, तब ह्यकौन गयाह्ण, ह्यकैसे गयाह्ण, ह्यकब गयाह्ण और ह्यकहां गयाह्ण की सूचना का एकत्र ह्यगयाह्ण क्रिया से स्वभावत: जुड़ जाता है। इसी प्रकार अगर किसी एक संज्ञा के लिए उपयुक्त क्रियाएं मांगी जाएं तब क्रियाओं का ह्यसंभाव्यह्ण बढ़ जाता है। उदाहरण के लिए वाक्यांश ह्यमैंने हलुआ… के लिए कई उपयुक्त क्रियाएं है खाया/ खिलाया/ पकाया आदि। यहां ह्यप्रि-फ्रंटल-कोरटैक्सह्ण अधिक क्रियाशील है, इसलिए यह शब्द और अर्थ से जुड़े कार्य और ह्यसंभाव्यह्ण से उपयुक्त शब्द ह्यचयनह्ण के लिए विशेष रूप से सक्षम है, और यह प्रक्रिया मस्तिष्क की सामान्य ह्यक्रिया-प्रणालीह्ण का अंग है।
शब्द-उपयोगह्ण कार्य के दौरान, प्रेरक-शब्द प्रस्तुत करने के लगभग दो-सौ-मिली सेकेंड के बाद मस्तिष्क के बाएं गोलार्द्ध के सबसे अग्रभाग जिसे ह्यब्राडमैंन- एरिया-47ह्ण भी कहते हैं, विद्युत सक्रियता बढ़ जाती है, इसलिए यह ह्यशब्द भंडार और उससे जुड़े अर्थ-तंत्रह्ण को क्रियान्वित करने का स्थल है। (मिली सेकेंड: सेकेंड का हजारवां हिस्सा)। जब प्रतिभागियों को ह्यवाक्य-उपयोगह्ण कार्य दिया गया, तब मालूम हुआ कि ह्यब्राडमैन-एरिया-47ह्ण का पिछला भाग अधिक सक्रिय है। यह विद्युत सक्रियता, प्रेरक शब्द प्रस्तुत करने पर आठ सौ मिली-सेकेंड तक बनी रहती है। इसलिए यह ह्यवाक्यार्थह्ण का स्थल। ह्यशब्दार्थह्ण पहले सक्रिय होता है, तदुपरांत ह्यवाक्यार्थह्ण से जुड़ा मस्तिष्क का भाग। ह्यवाक्यार्थह्ण के दौरान मस्तिष्क, चयनित शब्द को अधूरे वाक्य के अन्य शब्दों से मिलान भी करता है, इस शब्द संघटन के दौरान ह्यउपयुक्तह्ण और ह्यअनुपयुक्तह्ण शब्द लगभग दो सौ मिली सेकेंड तक उपलब्ध रहते हैं। इसके बाद लगभग सात सौ मिली सेकेंड के बाद सिर्फ उपयुक्त ह्यशब्दह्ण रह जाता है। इसलिए इससे यह भी सिद्ध होता है कि मस्तिष्क में ह्यवाक्यह्ण का संदर्भ, अनुपयुक्त ह्यशब्दह्ण का दमन करने की प्रक्रिया में भी शामिल रहता है। एक अन्य विस्तृत अध्ययन में, मरीज जिन्हें मस्तिष्क के ह्यमिडिल-टेंपरल-गायरसह्ण में चोट पहुंची हो, घोषणाओं वाले सरल वाक्यों को (डिक्लेरेटिव) फिर भी समझ लेते हैं। जैसे ह्यजोकर के पास गुब्बारा हैह्ण, पर क्रिया लगते ही संज्ञान में दिक्कत आती है, जैसे ह्यलड़की बैठी हुई है जब उन्हें ऐसे वाक्य, जिनकी संरचना में दो-उपवाक्य जुड़े हों, सुनाए गए तब वे वाक्यार्थ समझने में असमर्थ थे। जुड़े उपवाक्यों से बनी जटिल संरचना के अधीन, हर संज्ञा/ सर्वनाम/ विशेषण का पुनर्निर्धारण भी करना पड़ता है।
चूंकि यह मरीज जटिल-वाक्यों को समझने में गलती करते हैं, इसलिए इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह मरीज भाषा-संबंधी किसी मूल बाधा के शिकार हैं। यह बाधा शब्द के स्तर पर अधिक है, जो वाक्य के स्तर पर भी दृष्टिगोचर होती है। शायद इसीलिए जिस वाक्य में मुख्य संज्ञाओं के बोध से कार्य चल जाता है, वे वाक्य समझ आ जाते हैं, जैसे ह्यजोकर के पास गुब्बारा हैह्ण। शब्द के स्तर पर बाधा होने का एक अर्थ यह भी है कि ऐसे मरीजों में धारणा (कॉन्सेप्ट) और अर्थ (मिनिंग) के मध्य दो फांक हो गई है। यानी धारणा है तो अर्थ अस्पष्ट है और अर्थ है तो धारणा अस्पष्ट हो गई है। शोधों से यह भी जानकारी मिली है कि मस्तिष्क के बाएं गोलार्द्ध के ह्यपोस्टीरीयर-टेम्परल-लोबह्ण में धारणा और अर्थ में गांठ लगती है। हालांकि यह कहना कठिन है कि यह गांठ ह्यस्वर-स्वरूपह्ण-ह्यशब्द-स्वरूपह्ण के मध्य खुली है या ह्यधारणात्मक-स्वरूप-ह्यशब्द-स्वरूप के मध्य।
कहा जा सकता है कि शोधों से मस्तिष्क के बाएं अर्द्ध गोलार्द्ध में भाषा-व्यापार की कुछ मुख्य प्रक्रियाएं रेखांकित हो सकी हैं। मुख्यत: काल, स्थान, क्रिया के अंतर्संबंध, शब्द संभाव्य की पुनर्प्राप्ति, शब्द चयन, अनुपयुक्त ह्यशब्दह्ण का दमन, क्रिया का सूचनागत-बोझ, वर्गीकरण और गणना के बरक्स, अर्थगत कार्य में अधिक क्रियाशील अवस्था, स्वर-स्वरूप, शब्द-स्वरूप, धारणात्मक-स्वरूप के अंतर्संबंध, संज्ञा के लिए मस्तिष्क के दाहिने अर्द्ध गोलार्द्ध का उपयोग। मस्तिष्क में भाषा विकेंद्रित तो है ही, बेहद जटिल स्वरूप में अवस्थित भी है, इस ह्यभाषा के जैविक-रसायन शास्त्रह्ण की खोज जारी है। ०