डॉ. वरुण वीर
प्रकृति के पंचतत्व आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन्हीं तत्वों से मिलकर इस जगत का निर्माण हुआ है। सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलकाय अर्थात क्रम आकाश से पृथ्वी की ओर होगा। समस्त ब्रह्मांड परमात्मा में समाया हुआ है। आकाश सभी तत्वों में सूक्ष्म है और बाकी चारों तत्व आकाश में हैं। जैसा आकाश हमें चारों ओर महसूस होता है वैसा ही आकाश हमारे शरीर के अंदर भी है। आकाश का अर्थ ‘रिक्त स्थान’ अर्थात ‘शून्य’ है। शून्य से ही प्रत्येक वस्तु का आरंभ है। शून्य में ही अत्यंत गहरी शांति है। यदि शून्य का ज्ञान हो जाए तभी परम आनंद भी है। इस जगत में दिखने और न दिखने वाले जितने भी पदार्थ हैं उन सभी का निर्माण पंच तत्वों के अलग-अलग अनुपातों के कारण हुआ है। आकाश तत्व में ध्यान लगाना मन में शून्य भाव को जन्म देता है। जब मन में कोई विचार आता है तो उसके पीछे दूसरा विचार स्वभाविक ही आता है। इन दोनों विचारों के बीच में अत्यंत सूक्ष्म आकाश तत्व रहता है।

आकाश तत्व में ध्यान लगाने से विचारों के बीच रिक्त स्थान बनता है, वही रिक्त स्थान अधिक से अधिक लंबा होना मन को शांति देता और विचारों की गति शांत हो जाती है। ध्यान अवस्था में बैठकर शरीर के बाहर जो आकाश तत्व है तथा शरीर के भीतर जो आकाश तत्व है उस पर ध्यान केंद्रित कर उसे अनुभव करना ही आकाश तत्व का ध्यान करना है। आकाश का गुण ‘शब्द’ है। शब्द अनादि है एक बार उत्पन्न हुआ शब्द कभी नष्ट नहीं होता है। शब्द की उत्पत्ति तथा अंतिम स्थान आकाश ही है। शब्द आकाश में से ही उत्पन्न होकर आकाश में ही समा जाता है। आकाश का गुण सूक्ष्म और कार्य विशालताए स्वतंत्रता तथा खुलापन होता है। समस्त ब्रह्मांड आकाश में समाया हुआ है।

आकाश तत्व पर ध्यान लगाना इसलिए भी सरल है कि इसकी कोई सीमा नहीं है। जब ध्यान आकाश पर लगाया जाता है तो मन भागता रहता है क्योंकि कोई भी स्थान ऐसा नहीं जहां मन को स्थिर किया जा सके। इसलिए मन जब बिना रुके भागता रहता है तो कुछ समय के बाद अपने आप मन की गति धीरे हो जाती है और मन कुछ समय के बाद शांत हो जाता है। अच्छे अभ्यास से मन शून्यता को प्राप्त होता है। मन जब उस शून्यता में आ जाता है तो आत्मसाक्षात्कार होना संभव होता है।

आकाश तत्व पर सतत अभ्यास से विचारों में स्थिरता, सौम्यता, तथा रिक्त स्थान आने लगता है। विचारों के रहने का स्थान भी आकाश ही है जहां सभी प्रकार के विचार रहते हैं। किस प्रकार के विचार आपके मन के आकाश में तैरते हैं, यह आप के संस्कारों पर निर्भर करता है। हम त्राटक क्रिया से आकाश तत्व पर ध्यान का आरंभ करते हैं। हालांकि त्राटक क्रिया के लिए हम पहले किसी स्थान, रंग तथा आकृति को चिह्नित करते हैं फिर जिस स्थान पर रंग, चिह्न तथा आकृति होती है, उस स्थान से मन हटाकर केवल उस स्थान पर त्राटक ध्यान केंद्रित करते हैं।

विधि-1
एकांत स्थान में बैठ, कमर तथा सिर एक ही दिशा व स्थिति में सीधा रखें। अपने सामने आंखों के समानांतर फूल, मोमबत्ती या फिर किसी चिह्न पर लगातार आंखों से देखें। आरंभ में आंखों से पानी आने लगेगा। साधक की पलक लगातार झपकते रहती है। त्राटक क्रिया में पलकों को झपकने न दें। आंखों से आंसू भी आते हैं तो सहन करें, आंखों में जलन, टीस या दर्द होने लगे तो आंखें कुछ देर के लिए बंद कर लें। पुन: आंखें खोलकर लगातार उसको देखें। अब आंख बंद करके फूल, मोमबत्ती की लौ को बंद आंख से देखने का प्रयास करें। इसके बाद आंख खोलकर एक बार पुन: इस क्रिया को दोहराएं लेकिन इस बार जब आंख बंद करें तोा फूल या मोमबत्ती की लौ के स्थान पर जितनी आपकी आंख से दूरी थी उतनी ही दूर तक की दूरी को बंद आंखों से देखें यानी कि अब आकृति नहीं केवल दूरी पर ध्यान केंद्रिता करें। वह दूरी ही आपके मन में आकाश तत्व को भर देगी।

विधि-2
सुखासन में बैठें। सीधे हाथ की मुट्ठी बंद कर केवल कनकी अंगुली और अंगूठे खोलकर सीधा कर लें। अंगूठे को अपनी ठोड़ी पर लगा लें और आंखों से कनकी अंगुली को देखें। लगातार टकटकी लगाकर केवल कनकी अंगुली को देखें, कुछ देर बाद धीरे से कनकी अंगुली को बंद कर मुट्ठी के साथ मिला लें लेकिन जिस स्थान पर कनकी अंगुली थी अब लगातार आंखों से उस स्थान को देखते रहें। अगर वह स्थान आंख से ओझल हो जाए तो फिर कनकी अंगुली खोल कर उस स्थान पर ध्यान केंद्रित करें। फिर अंगुली और हाथ नीचे लाकर उसी रिक्त स्थान को देखें। अब धीरे से आंख बंद करके उसी स्थान को देखिए जहां पर अंगुली थी। ध्यान को लगातार उसी स्थान पर केंद्रित करके यह अभ्यास लगातार करने से एकाग्रता के साथ-साथ आकाश तत्व के गुणों, जैसे विशालता, स्वतंत्रता, असीमित शक्ति, स्वच्छंदता और विचारों में खुलेपन का अहसास होता है।

विधि-3
सुखासन में बैठ, कमर सीधी रखें या फिर इस ध्यान को शवासन में लेट कर भी कर सकते हैं। ध्यान रहे कि लेट कर करने से कई बार नींद आ जाती है, उस स्थिति में नींद न आने दे। यह ध्यान करने से पहले ग्यारह बार दीर्घ श्वास-प्रश्वास करें। इसके बाद अपने मन को अपने सहस्रार चक्र पर लाएं। उस स्थान को महसूस करें। फिर धीरे से सहस्रार चक्र से निकलकर सिर के ऊपर शरीर के बाहर आएं। कुछ समय यहां रहने के बाद लगभग एक फुट और फिर धीरे-धीरे आकाश की ओर जाने का प्रयास करें। यहां पर कई पड़ाव आप देखेंगे जैसे सिर के ऊपर से अपने शरीर को देखना, आकाश की ओर जाते हुए अपने स्थान या घर को देखना, गांव नगर राज्य तथा बहुत दूर जाकर अपनी पृथ्वी को देखना और ब्रह्मांड में लीन हो जाना। जितनी दूर आपका मन जा सकता है उतनी दूर जाने का प्रयास करें। इस यात्रा में आपको अनेक सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, ग्रह आदि देखने को मिलेंगे। जब आपको आकाश का अंत न मिले तब जिस गति और जिस मार्ग से आप गए थे, उसी गति तथा मार्ग से आपको वापस भी आना होगा और धीरे-धीरे पृथ्वी, नगर, गांव, घर तथा अपने सिर के ऊपर और फिर धीरे से सहस्रार चक्र पर वापस आकार आकाश तत्व का ध्यान समाप्त करें।

विधि-4
ध्वनि का स्थान आकाश है। आकाश असीमित है इसलिए ध्वनि पर लगाया गया ध्यान आकाश तत्व का ही ध्यान है। वैदिक मंत्रों का उच्चारण तथा अर्थ सहित उन पर ध्यान लगाना चाहिए। ॐ ध्वनि संगीत या अन्य वैदिक मंत्रों के द्वारा उत्पन्न कंपन पर ध्यान केंद्रित करना स्नायु तंत्र को स्वस्थ व जागरूक बनाता है। सुखासन में बैठकर पहले पांच मिनट तक ॐ ध्वनि का उच्चारण उच्च स्वर में करें। उसके बाद पांच मिनट तक मन की मन में यह उच्चारण करें। उसके बाद केवल मन में होने वाले कंपन को महसूस करें। यह कंपन आपके स्नायु तंत्र से आरंभ होता हुआ शरीर के सूक्ष्म प्राण तक कंपन उत्पन्न करता है, जिससे केवल मन ही नहीं अचेतन मन पर पड़े दूषित संस्कार तक दूर होकर मन को निर्मल बनाते हैं और चित अर्थात मन जितना निर्मल होगा उतनी ही अध्यात्म की स्थिति उच्च होगी। ल्ल