भाषा से उसके समयबोध का प्रश्न अनिवार्य रूप से जुड़ा है। भाषा में कवि अपने समय को रूपायित ही नहीं करता, बल्कि रचता भी है। जिस कवि में यह समयबोध जितना अधिक होता है वह उतना ही बड़ा कवि या लेखक होता है। समयबोध से आशय एक निश्चित अर्थ के अलावा भाषा में जो प्रतीतियां और अनुगूंजें रहती हैं, उनसे है। आनंदवर्द्धन के ध्वनि सिद्धांत में जो ध्वनि यानि गुणीभूत व्यंग्य है यह वही है। प्रत्येक काल में उसके जो अंतर्विरोध होते हैं यह उन्हीं में निहित रहती हैं। कवि अपने अंतर्विरोधों से संघर्ष करके इन्हें प्रकट करता अथवा सामने लाता है। कवि का यह संघर्ष ऊपर से नीचे की ओर यात्रा करता है। जिस समय कवि की कला चरम पर होती है उस समय उसका संघर्ष उतना ही तीव्र और वेगशाली होता है। हिंदी में भक्ति साहित्य को उसके स्वर्ण-युग की संज्ञा दी गई है। अन्य कालों की अपेक्षा कवियों खासकर दलित कवियों का संघर्ष इस काल को विशिष्ट बनाता है। इस संदर्भ में दूसरी परंपरा की खोज में नामवर सिंह ने मुक्तिबोध के हवाले से जो बात कही है, वह बेहद महत्त्वपूर्ण है और वह यह कि मुक्तिबोध की मुख्य स्थापना है कि निचली जातियों के बीच से पैदा होने वाले संतों के द्वारा निर्गुण भक्ति के रूप में भक्ति आंदोलन एक क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में पैदा हुआ। लेकिन आगे चलकर ऊंची जाति वालों ने इसकी शक्ति को पहचान कर इसे अपनाया और क्रमश: उसे अपने विचारों के अनुरूप ढाल कर कृष्ण और राम की सगुण भक्ति का रूप दे डाला, जिससे उसके क्रांतिकारी दांत उखाड़ लिए गए।
वैसे समयबोध के विषय में मेरा अपना एक प्रिय कथन है कि अब तक सारी दुनिया में कुल मिला कर उतनी खराब किताबों का उत्पादन नहीं किया गया जितना कि अकेले शेक्सपीयर काल में अच्छी किताबों का। शेक्सपीयर का काल और किन-किन कारणों से महत्त्वपूर्ण है, अपने प्रबुद्ध पाठकों का ध्यान इस ओर ले जाना विषयांतर होगा। इसीलिए फिलहाल विषय पर ही केंद्रित रहकर भाषा की दृष्टि से विचार किया जाना ही बेहतर विकल्प है। भाषा जब बदलती है तो समाज बदलता है और समाज तब बदलता है जब उसकी रुचि-अरुचि एवं आदतों में परिवर्तन आता है। इसके लिए एक कवि अथवा लेखक को अपनी रचना में खासी मशक्कत करनी होती है। वह भाषा में अनेक प्रयोग करके पाठक की रुचि को बदलने का प्रयास करता है। जैसा कि आजकल स्त्री और दलितों के प्रश्नों को लेकर साहित्य में हो रहा है।सिनेमा एवं अन्य माध्यमों की अपेक्षा एक लेखक को अधिक मेहनत करनी पड़ती है। मगर जब सिनेमा जैसे माध्यम से अधिक गंभीरता की अपेक्षा हो तो निर्देशक को भी उतनी ही मशक्कत करनी पड़ सकती है जैसा कि हम सत्तर के कालखंड में समांतर सिनेमा में पाते हैं जब सिनेमा के पॉपुलर मुहावरे में बदलाव लाने के लिए थियेटर एवं अन्य कलाओं से पहले से जुड़े लोगों ने कटिबद्धता दिखाई और सिनेमा की भाषा में परिवर्तन कर दर्शकों का झुकाव सिनेमा की ‘लार्जर दैन लाइफ वाली’ छवि को तोड़ कर यथार्थ की ओर किया।
यह सच है कि इस तरह के सिनेमा को समझने में उस समय के दर्शक को दिक्कत हुई और यही इस सिनेमा को कम करके आंकने का कारण भी बना। किंतु बाद में लोगों ने इसकी ताकत को पहचाना और सराहा। जो सिनेमा अंतरराष्ट्रीय फलक पर भारतीय सिनेमा का परचम लहराने में पहले ही कामयाब हो चुका था, अपने ही घर में उसकी सुध देर से ली गई। लेकिन देर आए दुरस्त आए, और आज के परिप्रेक्ष्य में तो सिनेमा में समांतर और पॉपुलर का फर्क ही मिटता नजर आ रहा है। पर एक और तथ्य है जो उतना ही महत्त्वपूर्ण है कि अस्सी से नब्बे के दशक की पॉपुलर फिल्मों पर भी समांतर सिनेमा का प्रभाव था और ‘वो सात दिन’ जैसी फिल्में बनी जो पॉपुलर और समांतर दोनों एक साथ कही जा सकती हैं। उसका कारण है कि सिनेमा अपने आपको कला माध्यम के रूप में विकसित करने की यात्रा की ओर अग्रसर हो चुका था। उसकी इस यात्रा की संभावनाएं तथा अंतर्विरोध उसके जन्मकाल से ही सामने आते रहे। लेकिन इस यात्रा में शायद सबसे दिलचस्प मोड़ समांतर ही है। चूंकि उसमें बाकायदा पॉपुलर और समांतर का विभाजन किया गया था। बाजार ने उस फर्क को मिटा दिया है।
यह देखना भी दिलचस्प है कि बाजार अपनी बिसात निहायत शातिर तरीके से इस प्रकार बिछाता है कि वह अपने अंतर्विरोधों को अपने में ही समाहित कर लेता है। इस दृष्टि से तो जो लोग यह मानते हैं कि बाजार में मल्टीप्लेक्स सिनेमा ने समांतर सिनेमा को लोगों की रुचियों के अनुरूप ढाला है और इसके लिए दर्शक भी जुटाए हैं, तो उनका कथन गलत ही साबित होता है। चूंकि कला की जो जमीन अभी पक रही थी या पकनी शुरू हुई थी, उसे बाजार ने बिना किसी आहट के चुपचाप हथिया लिया और सब चीजें बाजार के मानदंडों के अनुरूप संचालित होने लगीं। इस खेल को समझने के लिए पर्दे के पीछे की राजनीति को पहचानना होगा क्योंकि आज हर चीज अपने प्रायोजित और पूर्वनियोजित पड़ाव से गुजरकर ही हमारे सामने आती है। यह कला और साहित्य तथा उसके अन्य माध्यमों के लिए समयबोध के अकाल का समय है। इस समय सबसे अधिक खतरा अगर कला एवं साहित्य को किसी चीज से है तो वह है बाजार। जबकि सतह पर बाजार से कला का यह अंतविर्रोध कतई प्रकट नहीं हो पा रहा। इसकी पड़ताल और छानबीन कठिन से कठिनतर होती जा रही है। चूंकि बाजार चीजों को अपने में ऐसे घुला लेता है जैसे पानी में नमक और किसी तरह से कला के अंतर्विरोधों को प्रकट नहीं होने देता। देखना यह भी है कि आज का कवि अथवा लेखक इस मामले में कितना सहज और सतर्क है कि वह इस जटिल समय की सबसे बड़ी चुनौती योग्यतम की उत्तरजीविता को स्वीकार करते हुए भी अपनी कला को अक्षुण्ण रख सकता है। ०