राम कुमार निराला
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री उत्तर छायावाद के एक विलक्षण कवि थे, जिन्होंने हिंदी काव्य जगत में अपनी एक अलग पहचाना बनाई। वे उमंग और उत्साह के रचनाकार तो थे ही, दुख को सुख में बदलने वाले मनीषी भी थे। उन्होंने जीवन को अत्यंत निकट और गहराई से देखा था। उनका अभिमत था-सुख वही पा सकता है जिसमें पीड़ा सहने की क्षमता हो। दुख से घबराना सुख से वंचित रहना है और फिर जीवन में उन्नति की भी अपनी सीमा है। शास्त्रीजी ने जीवन जीने की कला बताते हुए कहा-
बहुत जोर से बोले हो स्वर इसीलिए धीमा है
घबड़ाओ मत उन्नति की भी बंधी हुई सीमा है
तपन ताप से नहीं तुहिन से कोमल कमल जला है
जीवन भी एक कला है।
कविता को शांति के क्षणों में लिखना सर्वविदित है। वर्ड्सवर्थ के अनुसार- ‘कविता भावावेग की स्वत:स्फूर्त अभिव्यक्ति है।’ शांति के क्षण संवेदनशील हृदय के होते हैं। क्षण विशेष में ही अनुभूतियों का वेग फूट पड़ता है और हृदय का पात्र जब अनुभूतियों के रस से लबरेज होता है तब भावना गीत या गजल में अभिव्यक्त होती है। जैसे-
जहां गुलजार तेरा, क्या अजब सब फूल तेरे हैं
लगे पर जो गले तेरे, सुमन वे और होते हैं।
शास्त्रीजी के गजलों में नई अनुभूतियां हैं इसका मुख्य आधार है उनकी चिंतनयुक्त गीतात्मकता। उनके काव्य में प्रयुक्त नूतन बिंब और प्रतीक अत्यंत प्रभावशाली हैं। इसलिए शास्त्रीजी के गीतों और गजलों में जीवन की सारी भंगिमाएं सजीवता के साथ चित्रित हुई हैं। वे शांति के हर क्षण से जीवन को छान लेने वाले गीतकार हंै। वे शायर, सिंह,सपूत की तरह चलने के हिमायती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण निराला ने कभी इन पर टिप्पणी की थी, ‘जानकी वल्लभ शास्त्री बिहार के महान कवि हैं, जिनकी कविताओं में चिंतन है, दर्शन है, सुकोमल अनुभूतियां हैं, और हृदय वीणा के तार से निकली अंतर्मन की मानवीय संवेदनाएं हैं।’ शास्त्री अपने परिवेश के प्रति अत्यंत ईमानदार थे। युग की हर धड़कन को वे समझने में समर्थ थे। उनकी आंखों में भविष्य बसता था और कल्पना की उड़ानें आने वाले समय की रूपरेखा पूर्व में ही प्रस्तुत करती थीं।
आज का परिवेश पूरी तरह बदल गया है। प्रेम, श्रद्धा, करुणा, सहानुभूति, सदाशयता, परदुखकातरता इत्यादि मानवीय मूल्यों की जगह ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि ने ले ली है। स्थिति अत्यंत भयावह हो गई है। आदमी, आदमी का शत्रु बन गया है। राजनीतिक परिवेश ने मानवीय मूल्यों का गला घोंटा है। नैतिकता अब शब्दकोश का शब्द बन कर रह गई है। शास्त्रीजी जानते थे कि आने वाले समय में राजनीति कैसी होगी, कैसे होंगे राजनेता। साहित्य पर राजनीति का वर्चस्व होने के कारण हमारी संस्कृति विकृत हो गई है। शास्त्रीजी के ‘मेघगीत’ में युग बोलता है, युग की हर धड़कन सुनाई पड़ती है ‘मेघ’ को कविता का विषय कालिदास, निराला, नागार्जुन, पंत, नेपाली आदि कवियों ने भी बनाया है। लेकिन प्रकृति और परिवेश का अप्रतिम संयोग करने का श्रेय शास्त्रीजी को ही है। इनका पागल बादल सर्वत्र घुमड़ता है और अपने परिवेश को सार्थकता में पिरो कर जन-जन को शीतलता प्रदान करता हुआ प्रकारांतर से एक सशक्त अर्थबोध छोड़ जाता है।
परिवर्तन ही युग का नियम है, इसलिए युग के साथ राजनीति में भी बदलाव होना स्वाभाविक है। शास्त्रीजी ने अपनी कविता ‘मेघगीत’ में राजनेताओं का वास्तविक चेहरा प्रस्तुत किया है। इस कविता में वे प्रकृति के माध्यम से राजनीति और समाज की विसंगतियों को सजीव और मार्मिक अभिव्यक्ति देते हैं-
कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ निर्देशक वह हैजाल जलाती जिसकी कृति से धृति उपदेशक वह है। जनप्रतिनिधि जन समस्याओं से दूर होते चले जाते हैं, विशेषकर मलिन बस्तियों की समस्यायों से तो वे परी तरह अनिभिज्ञ ही रहते हैं। शास्त्री ऐसे नेताओं पर अपनी लेखनी से प्रहार करते हैं और यथार्थ को प्रकट करते हैं। समाज की यही विसंगतियां कवि को सालती हंै।
जनता धरती पर बैठी है नभ में मंच खड़ा है
जो जितनी है दूर मही से उतना वही बड़ा है।
आज का जनप्रतिनिधि जनता से कोसों दूर रहकर भी समाजसेवी होने का स्वांग खूब रचता है। कैसी है यह विडंबना, कैसा है हमारा दुर्भाग्य? गरीबी उन्मूलन के नाम पर सारी घोषणाएं और योजनाएं अब तक करीब विफल ही रही हैं। लेकिन राजनेता मालोमाल होते चले गए। राजनेता जनरक्षक नहीं बल्कि जनभक्षक बन गए हैं। ऐसी विषम स्थिति में शास्त्रीजी ने लिखा-
ऊपर-ऊपर पी जाते हैं, जो पीने वाले हैं
कहते हैं ऐसे ही जीते हैं, जो जीने वाले हैं।
इन पंक्तियों के माध्यम से शास्त्रीजी ने समाज के वंचित और उपेक्षित वर्ग की आवाज को सत्ता के गलियारे तक पहुंचाने की सफल कोशिश की है। उन्होंने कभी कल्पना नहीं की होगी कि ‘स्व’ की परिधि में घिर कर मानव दानव बन जाएगा। यही है आज के युग का यथार्थ। उनके जीवन का एक उल्लेखनीय पहलू है-पशु प्रेम। उनका पशु-प्रेम दिखावा नहीं, वास्तविक-जुनून की हद से भी आगे तक। उन्होंने पालतू पशुओं का नामकरण भी मनुष्यों के नाम पर कर दिया था। यथा- गौतमी, वंदना, सुपिया, मंदाकिनी, राधे आदि। वे पशु प्रेम में इतना तल्लीन दिखते कि रात्रि में कुत्ते और बिल्लियां उनके साथ सोते, कोई सीने पर तो कोई पेट और कोई जांघों पर। विविध पशुओं के साथ वे बहुत ही अपनापन और शांति का अनुभव करते थे। पशुओं के उपस्थिति से उनके चिंतन, अध्ययन और अनवरत लेखन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता था। उनके आवास पर आने वाले आगंतुक इस परिवेश को देखकर आश्चर्यचकित रहते। १

