आ धुनिक परिवेश में भी ब्रज की होली ने अपने वास्तविक स्वरूप को बनाए रखा है। इस आनंद की अनुभूति के लिए सारे देश के लोग यहां बरबस खिंचे चले आते हैं। मथुरा की होली विदेशी पर्यटकों को भी आनंद में डूब जाने को मजबूर कर देती है। ब्रज में होली पूरे एक महीने से अधिक मनाई जाती है। होली का वास्तविक आनंद देवालयों में मिलता है। मंदिरों में होली एक माह पूर्व ही शुरू हो जाती है, जब कहीं भी होली की चर्चा भी नही होती है। होली की शुरुआत मंदिरों में गायन से होती है। बसंत पंचमी के दिन से मंदिरों में ठाकुरजी को इत्र और रंग लगा कर होली शुरू की जाती है। वृंदावन में प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर और मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर में होली की शुरुआत समाज गायन से की जाती है। पंडा समाज के लोग बडेÞ-बड़े नगाड़ों और ढोल मंजीरे की धुन पर नाचते गाते है।

लंबे वक्त से ब्रज की धरती पर होली खेली जाती है। ब्रज के कण-कण में आज भी नटखट कृष्ण कन्हैया और राधा रानी की प्रेम भरी होली बनी हुई है। कान्हा की मधुर बांसुरी की धुन और राधा रानी के नूपुरों की झनकार और उनके नृत्य आज भी हमें उनके हमारे बीच उपस्थिति का अहसास कराते रहते है। जब होली की कहीं भी चर्चा तक नहीं होती उस समय ब्रज में होली शुरू हो जाती है। यहां होली का पर्व वंसत पंचमी से शुरू हो जाता है। इसी दिन श्यामा श्याम को गुलाल लगा कर शृंगार करने की परंपरा निभाई जाती है। जब भक्तों पर गुलाल पड़ता है तो वे इसे भगवान का प्रसाद मानकर अपने आपको धन्य मानते हैं। ब्रज में चारों ओर होली की अनूठी परंपराओं के दर्शन होते हैं, कहीं रंग-गुलाल की होली होती है तो कहीं अंगारों की, कहीं फूलों की, तो कहीं लाठियों और कोड़ों की होली होती है।

बरसाना -नंदगांव की होली

फाल्गुन शुक्ला नवमी को बरसाना में लठामार होली खेली जाती है। कहने को बरसाना छोटा सा गांव है, लेकिन राधा की बाललीलाओं का स्थान होने के कारण यह देश विदेश में विख्यात है। यहां होली खेलने के लिए कन्हैया के गांव नंदगांव से हुरिहारे बरसाना आते हैं। रंगबिरंगी पगड़ी पहने हाथों में ढाल लिए ये सब पीली पोखर में पहुचते हैं। यहां भांग- ठंडाई छान कर सब आपस में हास परिहास करते हुए गीत गाते हुए बरसाने की ऊंची पहाड़ियों की तंग गलियों में होते हुए ऊपर बने हुए मंदिर में पहुंचते हैं। श्रीजी के प्राचीन मंदिर में बरसाना और नंदगांव के गोसाइयों में हास परिहास के बीच गीत संगीत का कार्यक्रम शुरू होता है। इसमें आपस में गालियों का प्रयोग करते हुए प्रेम और प्रीति के साथ हंसी ठिठोली भी होती है।

गीत-संगीत और नृत्य कार्यक्रम के बाद नंदगांव के हुरिहारे अपने अपने हाथों में ढाल लिए संकरी गली, जिसका नाम रंगीली गली के नाम से जाना जाता है, वहां एकत्रित हो जाते हैं और यहीं पर होती है मशहूर लठामार होली। इन संकरी गलियों में मोटी मोटी लाठियां लिए गोस्वामी परिवार की महिलाएं गोपियों के रूप में अपने चेहरे पर घूंघट काढ़े नंदगांव से आए हुरिहारों की प्रतीक्षा में होती हैं। जैसे ही वे यहां से गुजरते हैं उछल-उछल कर उन पर लाठियां बरसाती रहती हैं और नंदगांव के हरिहारे जमीन पर बैठ कर उनकी लाठियों के प्रहार को झेलते रहते हैं। दूसरे दिन इसी तरह का माहौल नंदगांव में होता है। यहां भी नंदरायजी का ऊंची पहाड़ी पर मंदिर है। बरसाने के हुरिहारे यहां आते हैं और नंदगांव के गोसाइयों के साथ समाज गायन का कार्यक्रम होता है। इसके बाद नंदगांव के एक चौक में सभी एकत्रित होते हैं जिसमें नंदगांव की हुरिहारिनें बरसाने के हुरिहारों के साथ लठामार होली खेलती हैं।

बरसाने नंदगांव की होली की शुरुआत के साथ ही ब्रज मंडल में चारों ओर सतरंगी रूप निखर उठता है और चारों तरफ अलग अलग ढंग से होली खेलने की परंपरा शुरू हो जाती है। नंदगांव की होली के अगले दिन फाल्गुन शुक्ल एकादशी को रंगभरनी एकादशी पर्व पर मथुरा, वृंदावन, गोवर्धन आदि के मंदिरों में रंग और गुलाल के ऐसे बादल उड़ते हैं जिससे बच कर किसी का भी निकलना मुश्किल होता है। मंदिरों में होने वाली सतरंगी होली का आनंद भक्त और भगवान के बीच में खेला जाने वाला होली का वास्तविक आनंद की अनुभूति कराता है। फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को ब्रज में होली पूजन और होलिका दहन होता है। इस दिन तिथि के अनुसार ही महिलाएं होलिका पूजन करती हैं और रात्रि में शहर और गांव के हर गली मोहल्ले में होलिका दहन किया जाता है। इस मौके पर फालैन और जटवारी में गांव के बीचोंबीच बडेÞ से मैदान में हिरण्यकश्यप और होलिका के प्रतीकों के दर्शन मिलते हैं जिसमें दोनों गावों में एक एक पंडा कई दिनों से पूजा अर्चना करता है। इस दिन पंडा विशाल होली की लपटों के बीच से होकर छलांग मार कर बाहर आता है। यह रोमांचकारी दृश्य देश विदेश के लाखों लोगों के बीच संपन्न होता है। प्रहलाद के विशाल अग्नि से बाहर आने पर सभी भक्त जयकारा लगाते हैं।

होलिका दहन के अगले दिन धुलैड़ी होती है, जिसमें ब्रज के सभी लोग मदमस्त होकर होली खेलते हैं। एक दूसरे को रंग लगाते हैं। जगह- जगह गीत संगीत का आयोजन किया जाता है। लोग ठंडाई और भांग का सेवन करते हैं। नाचते हैं गाते हैं झूमते हैं आपस में रंग लगाते हैं। खुशियां मनाते हैं मिठाई खाते हैं और खिलाते हैं और आपस में बधाइयों का आदान प्रदान भी करते हैं। गले मिल कर आपसी प्रेम को और प्रगाढ़ करते हैं। मथुरा में यमुनातट पर विश्राम घाट, स्वामी घाट, बंगाली घाट आदि क्षेत्रों में होली की छटा कुछ अलग ही देखने को मिलती है। जगह-जगह घाटों की बुर्जियों में भांग ठंडाई बड़ी-बड़ी सिलों पर पीसा जाता है। इसके शौकीन मथुरा के चतुर्वेदी समाज के लोग बादाम, पिस्ता, काजू, मुनक्का, खरबूजे की मिंगी, सौंफ, कालीमिर्च, गुलकंद आदि को पीस कर एक गोले का रूप देते हैं। इसके बाद उसे दूध में मिला कर सभी देवताओं का आवाहन करके लोग पीते-पिलाते हैं। भंग की तरंग और ठंडाई की उमंग के साथ सभी मस्ती में डूब जाते हैं। फिर शुरू होती है होली की तान।

चैत्र कृष्ण पक्ष की द्वितीया से नवमी तक ब्रज के हुरंगे और फूलडोल के आयोजन होते हैं जिसमें जगह जगह होली के रसिया और गीत संगीत के आयोजन और होली मिलन समारोह आयोजित किए जाते हैं। मुखराई, ऊमरी, रामपुर, अहमल कलां, बछगांव, सौंख आदि आठ गांवों में चरकुला नृत्य का अयोेजन होता है। यह ब्रज का परंपरागत लोकनृत्य है, जिसमें चांदनी रात में सैकडों दीपों से जगमगाता 40 से 60 किलो वजन का चरकुला सिर पर रखकर एक नृत्यांगना होली के रसिया गीतों के लय ताल पर थिरकती है। उपस्थित गांवों के लोग रात भर इसका आनंद लेते हैं। आधुनिकता से परे आज भी विशाल बंब (नगाडेÞ) की ताल और अलगोजा थाली, करताल और मंजीरे की मधुर स्वर लहरियों के बीच इस नृत्य की समाप्ति पर नृत्यांगना को जुग जुग जीने का आशीर्वाद भी गायन के साथ ही दिया जाता है। ‘जुग जुग जीओ मेरी नाचन हारी नाचन हारी के दुई दुई हुइयें।’

दाऊजी का प्रसिद्ध हुरंगा

मथुरा से लगभग बाईस किलोमीटर दूर बलरामजी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है, जहां दाऊजी का हुरंगा मंदिर प्रांगण में ही खेला जाता है। यहां महिलाएं कपड़े फाड़ देती हैं और उनके कोडेÞ बनाकर पुरुषों के नंगे शरीर पर मारती हैं। मंदिर के विशाल प्रांगण में निर्मित हौजों में टेसू के फूलों को भिगो कर रंग बनाया जाता है। हुरिहारे बाल्टियों में भर भर कर हुरिहारिनों पर डालते रहते हैं। मंदिर के छज्जों से अलग-अलग रंगों का गुलाल उड़ता रहता है अबीर और गुलाल की इंद्रधनुषी छटा का आभास कराता यह हुरंगा सभी के मन को उमंगों से भर देता है। इसी दिन कोसीकलां के निकट जाब और बठैन गांव में भी हुरंगा होता है जिसमें बलराम के प्रतीक के रूप में हुरिहारों को राधारानी के प्रतीक रूप में महिलाओं से बड़ी मर्यादा के साथ होली खेलनी होती है।

हुरंगा के शुरू होने से पहले शोभायात्रा के रूप में सिरदारी निकलती है। इनकी यह शोभायात्रा राजा, महाराजा, जमीदारों की तरह बठैन के वयोवृद्ध जाब गांव में आते हैं तो उनका सम्मान किया जाता है। एक विशेष मिठाई खिलाई जाती है फिर सभी गांव के लोग मैदान में एकत्रित होते हैं जहां हुरिहारे हाथ में हाथ डाले एक घेरा बनाकर बीच में बलराम के प्रतीक को लेकर चलते हैं और गांव की हुरिहारिनें लाठियों से बठैन से आए हुरिहारों को मारती हैं। इस वार को हुरिहारे लाठियों से ही रोकते रहते हैं। घेरा के बीच में बलराम एक ध्वज को लेकर घूमता रहता है। बसंत पंचमी से चैत्र कृष्ण नवमी तक चलने वाला पचास दिनों का गीत, संगीत, नृत्य, भक्ति और भाव लोगों को तृप्त कर देता है। सभी की कांमना होती है कि सभी चिरजीवी हों और ब्रज में प्रति वर्ष होली खेलकर आनंद की अनुभूति के साथ साथ भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम का संदेश जन-जन तक पहुंचाते रहें। १