कुमार गौरव अजीतेंदु
न्यायपुर के युवराज अतुल्य विक्रम की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली थी। बुद्धि और बल उनका कौशल देखते ही बनता। उनके पिता राजा ज्ञान सिंह ने जब संन्यास लेने की घोषणा की तो जनता अपने प्रिय युवराज अतुल्य के राजतिलक की खबर सुन कर उत्सव मनाने लगी। लेकिन अतुल्य विक्रम ने स्नेहवश अपने छोटे भाई राजकुमार अविजित प्रताप का नाम आगे कर दिया।
अतुल्य ने कहा- ‘अविजित के राजा बनने पर मुझे अधिक प्रसन्नता होगी।’
अविजित ने भी इसी शर्त पर राजगद्दी स्वीकार की कि युवराज अतुल्य अपनी पत्नी के साथ राज्य के प्रधान संरक्षक का दायित्व संभालेंगे। उसने कहा- ‘भैया, मैं आपसे उच्च आसन पर नहीं बैठ सकता।’
चारों ओर दोनों भाइयों के प्रेम की प्रशंसा होने लगी। सब कुछ ठीक चल रहा था। लेकिन इधर कुछ दिनों से अतुल्य चिंतित दिखाई देने लगे थे। महामंत्री ने पूछा- ‘क्या हुआ महामहिम? आपके मुख पर शंकाओं के बादल?’
‘कई रातों से एक ही स्वप्न आ रहा हैं महामंत्री जी।’ अतुल्य बोले।
‘कैसा स्वप्न?’ महामंत्री ने पूछा।
‘देखता हूं कि किसी के घने केश लहरा रहे हैं और उनके तले हमारा महल बहुत छोटा हो गया है।’
‘और?’
‘और एक विचित्र पुष्प प्रकट होता है, जो अचानक अजगर बन हमारे महल को निगल लेता है।’
‘मेरे विचार में हमें राजगुरु से परामर्श लेना चाहिए।’
‘हम भी यही सोच रहे थे महामंत्री जी।’
दोनों ने उसी समय राजगुरु आचार्य प्रेरकदेव के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राजगुरु का चेहरा भी तनाव से भर उठा। वे बोले- ‘पुत्र अतुल्य, राज्य संकट में है। तुम्हारा स्वप्न उसी ओर संकेत कर रहा। राजा की रक्षा करना।’
अतुल्य विक्रम दृढ़ता से खड़े हुए और बोले- ‘मेरे होते अविजित का बाल भी बांका नहीं हो सकता गुरुदेव।’
प्रेरकदेव ने अपना हाथ ऊपर उठाया और कुछ चावल उन्होंने अतुल्य को दे दिए। ‘ये राजा के सही शत्रु की पहचान करने में तुम्हारी सहायता करेंगे।’
अतुल्य ने उन चावलों को अपने दुपट्टे में बांध कर रख लिया और रात होते ही कुछ महिला और पुरुष सिपाहियों को साथ लेकर बंजारों के वेश में निकल पड़े। एक घर के पास पहुंच कर उन्हें मंत्र पाठ की आवाजें सुनाई देने लगीं। अतुल्य ने झांक कर देखा कि कोई लंबे बालों वाली स्त्री अग्नि के सामने बैठी साधना कर रही थी। वह तुरंत दरवाजा तोड़ अंदर घुसे और उसे गिरफ्तार कर लिया। वह गुस्से से भर उठी और बोली- ‘मूर्ख, तूने मेरी बरसों की साधना भंग कर दी।’
अतुल्य ने प्रेरकदेव के दिए चावल निकाल उस स्त्री पर छिड़के। लेकिन कोई असर नहीं हुआ। वह समझ गए कि यह राजा की शत्रु नहीं है।
अगली कई रातें इसी खोजबीन में कटती रहीं, लेकिन कुछ हाथ न लगा। एक शाम जब वे अविजित से मिलने जा रहे थे तो उसके कक्ष के बाहर कुछ फूल बिखरे देख कर चौंक गए। उनकी नजर दरवाजे की ओट में छिप कर सब देख रहे एक नौकर पर गई। उसे पकड़ लिया गया। ‘क्या देख रहा था इस तरह छिप कर? ये फूल यहां कैसे आए?’
नौकर घबरा गया। बोला- ‘महाराज, मुझे कुछ नहीं पता।’
अतुल्य का चेहरा तमतमा उठा। यह देख नौकर पसीने-पसीने हो गया। उसने बताया- एक तांत्रिक ने ये फूल मुझे राजा के कमरे के बाहर डालने के लिए कहा। इन पर पैर रखते ही राजा का स्वभाव मेरे प्रति कोमल हो जाएगा।’
अतुल्य ने गुरु के दिए चावल उस नौकर पर भी छिड़के, मगर इस बार भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
अतुल्य जब अविजित के कक्ष में पहुंचे तो वह वहां नहीं मिला। उन्होंने सेवक से पूछा- ‘महाराज कहां गए?’
‘महाराज, वे राजकुमारी आदर्शा से मिलने बाग में गए हैं।’
अतुल्य को याद आ गया कि पड़ोसी देश की राजकुमारी आदर्शा आज आने वाली थी। अविजित उससे प्यार करता था। वह उन दोनों को परेशान करना तो नहीं चाहते थे, लेकिन एक बार सुरक्षा का मुआयना कर लेने के विचार से वहां चले गए। राजकुमारी ने उन्हें देखते ही चरण स्पर्श किया।
‘आपके पिता महाराज ठीक हैं राजकुमारी?’
‘जी भैया, वे अच्छे हैं।’
जल्दी ही अतुल्य को आभास हुआ कि राजकुमारी कोई उपहार अविजित को देना चाहती है, लेकिन उनको वहां पाकर लजा रही है।
‘अच्छा, आप लोग बातें करें, हम चलते हैं।’
वे जैसे ही लौटने लगे कि अचानक उनका हृदय कांप उठा। उन्होंने देखा कि राजकुमारी के घने केश हवा में लहरा रहे थे। ये हूबहू वही केश थे, जो उन्हें सपने में दिखे थे। राजकुमारी के हाथ में भी वही विचित्र फूल था। वे चिल्लाए- ‘अविजित, वह फूल मत लेना।’ और अपना चाकू निकाल कर उन्होंने फूल पर चलाया। वह कट के गिर पड़ा और जलने लगा। इस पर राजकुमारी का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। वह भागने लगी। लेकिन सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। अतुल्य उसके पास जा ही रहे थे कि उसके केश यकायक लंबे होकर सबको जकड़ने लगे। तभी अतुल्य ने पोटली में बंधे चावल निकाल राजकुमारी पर डाल दिए। वह चीखती हुई धुएं में बदल गई।
अविजित को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अतुल्य ने अपने भाई अविजित को गले से लगा लिया। ‘अब सब कुछ ठीक हो गया है भाई।’
‘ये सब क्या था?’
अतुल्य ने उसे पूरी बात बताई और सैनिकों के साथ राजकीय अतिथि गृह में पहुंचे। वहां असली राजकुमारी आदर्शा बंधी पड़ी थी। उसे छुड़ाया। वह रोती हुई बोली- ‘एक दुष्ट जादूगरनी ने मेरा रूप बना कर मुझे यहां कैद कर दिया था, वह राजा अविजित को मार कर अपना कोई पुराना बदला लेना चाहती थी।’
जांच में पता चला कि उस जादूगरनी को बच्चे चुराने के आरोप में पूर्व राजा ज्ञान सिंह ने देश निकाला दे दिया था। वह उसी का बदला लेने आई थी।
गुरु प्रेरकदेव ने संतोष भरे स्वर में कहा- ‘राज्य को तुम्हारे रहते कोई खतरा नहीं पुत्र अतुल्य।’ ०